समाज में कुछ भूत ऐसे होते हैं, जो दिखाई नहीं देते. न उनकी परछाईं होती है, न ही उनकी कोई आकृति. लेकिन उनका असर पीढ़ियों तक महसूस किया जाता है. ये भूत होते हैं- पाखंड, डर, दबाव, झूठी नैतिकताएं और बिना सवाल किए ओढ़ ली गई परंपराएं. रंगमंच में परदे के पार इन्हीं अनदेखे लेकिन प्रभावशाली ‘प्रेतों’ से मुठभेड़ कराता है नाटक 'प्रेत', जिसका प्रदर्शन थ्री आर्ट्स क्लब की तरफ से किया गया.
मंच पर उतरी समाज की झूठी नैतिकता की परतें
प्रसिद्ध रंगकर्मी 'एमके रैना' के निर्देशन में तैयार यह नाट्य प्रस्तुति, नॉर्वेजियन लेखक हेनरिक इब्सन के विश्वप्रसिद्ध नाटक ‘घोस्ट्स’ पर आधारित है. इसका हिंदी रूपांतरण वरिष्ठ लेखक और रंगविद्वान नेमी चंद्र जैन ने किया है. नाटक का मंचन जब बीते शुक्रवार की शाम त्रिवेणी कला संगम, नई दिल्ली में हुआ तो मंच पर समाज की झूठी नैतिकता और रूढ़ियों की परंपराएं टूटती-बिखरती नजर आईं.
‘प्रेत’ मूल रूप से उस क्षण की कहानी है, जब समाज की जड़ हो चुकी सोच नए विचारों से टकराती है. यह नाटक दिखाता है कि जब किसी समाज में पुराने नैतिक मानदंडों को बिना जांचे-परखे आदर्श मान लिया जाता है, तो उसका बोझ आने वाली पीढ़ियों को उठाना पड़ता है. सच को दबाने की आदत, सम्मान के नाम पर चुप्पी और दिखावे की नैतिकता, ये सब मिलकर ऐसे ‘प्रेत’ रचते हैं, जो समय-समय पर लौटते हैं और त्रासदी का रूप ले लेते हैं.
क्यों प्रासंगिक बन जाता है प्रेत नाटक?
इब्सन के ‘घोस्ट्स’ को हिंदी संदर्भों में ढालते हुए ‘प्रेत’ इसे केवल एक पारिवारिक या सामाजिक कथा नहीं रहने देता, बल्कि इसे विचारों की बहस में बदल देता है, जहां सवाल पूछना अपराध नहीं, बल्कि ज़रूरत बन जाता है. नाटक में राकेश कुमार सिंह, कविता सेठ, विपिन कुमार, नम्रता सिन्हा और अर्पित आनंद जैसे अनुभवी रंगकर्मी मंच पर नजर आए. अभिनय में भावनात्मक अतिरंजना से बचते हुए एक ठहराव और गंभीरता रही, जो विषय की गहराई को और मजबूत करती है.
नाटक की प्रस्तुति और इस आयोजन की सूत्रधार अनुराधा दार कहती हैं कि, 'आज के दौर ‘प्रेत’ की प्रासंगिकता आज और बढ़ जाती है. यह सिर्फ अतीत का नाटक नहीं है. यह आज के समाज का आईना है. रंगमंच हमें सोचने, सवाल उठाने और असहज सच्चाइयों का सामना करने की हिम्मत देता है. थ्री आर्ट्स क्लब का प्रयास हमेशा यही रहा है कि दर्शकों के सामने अर्थपूर्ण और विचारोत्तेजक काम रखा जाए.'
नाटक के निर्देशक एम. के. रैना के अनुसार, ‘प्रेत’ केवल अतीत की कहानी नहीं है. वह कहते हैं, 'यह नाटक उस क्षण की बात करता है जब जीवन और विज्ञान से जुड़े नए विचार, सड़ी-गली परंपराओं से टकराते हैं. अगर समाज बिना सोचे-समझे पुरानी सोच को ही आदर्श मानता रहे, तो उसका नतीजा दुख और पीड़ा ही होता है. जब तक गलत विचारों को सच और वैज्ञानिक नजरिए से उजागर नहीं किया जाता, वे ‘प्रेत’ बनकर लौटते रहते हैं.'
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