Premanand Maharaj: हिंदू धर्म में दान को सबसे बड़ा पुण्य माना जाता है. बचपन से हमें सिखाया जाता है कि जरूरतमंद की मदद करने से ईश्वर की कृपा मिलती है और जीवन के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. लेकिन, कई बार दिमाग में ये सवाल भी उत्पन्न होता है कि कोई साधु या जरूरतमंद व्यक्ति अगर हमारी दी हुई भिक्षा का गलत इस्तेमाल तो नहीं कर रहा है. इसी से संबंधित प्रश्न एक भक्त लेकर वृंदावन-मथुरा के बाबा प्रेमानंद महाराज के पास पहुंची. उसने महाराज जी से कहा कि मेरे मन में एक विडंबना है कि जब कोई साधु-महात्मा या कोई व्यक्ति घर पर भिक्षा मांगने आता है, तो हम आटा, चावल, दाल या जो भी संभव हो देकर उसकी मदद करते हैं. लेकिन मन में सवाल उठता है कि अगर वह उन्हीं चीजों को बेचकर मदिरापान करता हो, तो क्या यह गलत माना जाएगा?
इस पर प्रेमानंद महाराज उत्तर देते हुए कहते हैं कि हां ये गलत बात है और आप भी इस पाप में भागीदार बनेंगे. कुछ संत ऐसा पाप करते हैं लेकिन कुछ साधु-संत ऐसे होते हैं जो 15-15 दिनों के लिए आटा-चावल मांगते हैं. ब्रजमंडल में ऐसे बहुत संत मिलते हैं जो कई घरों से थोड़ी-थोड़ी मात्रा में 'आटा की चुटकी' लेकर भोग तैयार करते हैं और सरल जीवन जीते हैं. इसलिए अगर घर पर कोई आटा चावल मांगने आए तो उससे कहिए की 'बैठ जाइए, रोटी-दाल खाकर जाइए या अगर चाहें तो दो रोटी ले जाइए.'
क्या दान ना देने से लगता है पाप?
आगे वह महिला यह प्रश्न करती है कि अगर हम दान नहीं देंगे तो कहीं वो श्राप तो नहीं दे देंगे. इस प्रश्न का प्रेमानंद महाराज का उत्तर देते हैं कि श्राप देने का सामर्थ्य होता तो घर घर क्यों भटकते. इनके अलावा, जो साधु-संत पैसा मांगते हैं वह घोर पाखंडी होते हैं. सच्चा संत कभी किसी के अहित की कामना नहीं करता है. यदि वह क्रोधित भी हो जाए, तब भी उसका क्रोध मंगल बन जाता है जैसे नारद जी ने नलकूबर और मणिग्रीव को वृक्ष बनने का श्राप दिया, लेकिन अंततः उसी श्राप के कारण उन्हें श्रीकृष्ण के दर्शन और मुक्ति प्राप्त हुई थी.
अतः जो साधक ईश्वर को समर्पित है, वह दूसरों के लिए हमेशा मंगल ही चाहता है. आप ये कर सकते हैं कि अगर किसी साधु को भूख लगी है तो खाना खिला दो, ठंड लगी है तो कपड़े दे दो, बीमार है तो औषधि दिला दो, इतनी सेवा की जा सकती है.
किसको देना चाहिए दान
प्रेमानंद महाराज के मुताबिक, दान हमेशा सुपात्र को देना चाहिए, कुपात्र को नहीं. अच्छे संत वे होते हैं जो वास्तव में भगवान के लिए अपना जीवन समर्पित करते हैं. शास्त्रों और आचार्यों ने भिक्षावृत्ति को इसलिए स्वीकार किया है क्योंकि इससे साधक का अभिमान नष्ट होता है. ऐसे संत पांच-पांच घरों में जाकर एक-एक या दो-दो रोटियां मांग लेते हैं और दिनभर का भोजन हो जाता है.
कुछ संत गांवों में जाकर थोड़ा-थोड़ा आटा इकट्ठा करते हैं जैसे दो, ढाई, तीन, चार किलो और कई दिनों तक अपना भोजन स्वयं बनाकर भोग लगाते हैं. ऐसे संतों की पहचान हो जाती है क्योंकि उनका उद्देश्य केवल भिक्षा से अपने साधन जीवन को चलाना होता है. सच्चा संत तो ऐसा होगा कि यदि तुम उसे मार भी दो, तब भी वह तुम्हारा मंगल ही चाहेगा, अमंगल नहीं. संत वो है जो बुरा बोलने पर भी भलाई करें.