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'जिसे पूजते हैं, उसे कैद भी कर लेते हैं...' हाथियों की बढ़ती एंजायटी पर लेख‍िका मनीषा कुलश्रेष्ठ की तीखी टिप्पणी

बेजुबान पशुओं पर ल‍िखे गए दुन‍िया भर के साहित्य में पशुओं के प्रति भावनाओं में इजाफा किया है. आज इंसानी नस्लें पशुओं के लिए अपना प्रेम और जिम्मेदारी धीरे-धीरे भूलती जा रही हैं. साह‍ित्य आजतक के मंच पर 'बेजुबानों की जुबान' सेशन में पशुओं के प्रति अपने अनुभवों को किताबों में दर्ज करने वाले साहित्यकार मनीषा कुलश्रेष्ठ, निध‍ि अग्रवाल और अमित तिवारी ने फिर से वो संवेदनशीलता जगाने की हिदायत दी.

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हाथी हो या स्त्री जिसे पूजते हैं उसे कैद...बोलीं- मनीषा कुलश्रेष्ठ (Photo Credits: K Asif)
हाथी हो या स्त्री जिसे पूजते हैं उसे कैद...बोलीं- मनीषा कुलश्रेष्ठ (Photo Credits: K Asif)

साहित्य आजतक के सेशन 'हिंदी साहित्य की नई पहचान, बेजुबानों की जुबान' में एक ऐसी बातचीत हुई, जिसमें शब्द नहीं, संवेदनाएं ज्यादा बोलीं. जानवरों के जीवन, उनके दर्द, उनके भरोसे और उनके न बोल पाने की मजबूरी ने तीनों लेखकों को गहराई से बदल दिया और वही बदलाव उनकी पुस्तकों में भी दिखाई देता है. 

मनीषा कुलश्रेष्ठ: हाथियों की पीड़ा ने मुझे झकझोर दिया

मनीषा कुलश्रेष्ठ ने अपने उपन्यास त्रिमाया के निर्माण की यात्रा साझा की. उन्होंने बताया कि जब वे 'हनी माया' नामक हथिनी के बारे में लिख रही थीं, तब वे सिर्फ शब्द नहीं लिख रहीं थीं. वे उस पूरी दुनिया को जी रही थीं.  उन्होंने असम के टी-गार्डन का जिक्र किया, जहां हाथियों के पारंपरिक रास्तों पर अचानक फैक्ट्री और दीवारें खड़ी कर दी जाती हैं. 

'जब हथनियां अपने सदियों पुराने रास्ते पर चलती हैं और सामने दीवार दिखती है, तो उनकी घबराहट मुझे भीतर तक चीर देती है। हमें लगता है हाथी नष्ट होंगे, पर सच में उससे पहले मनुष्य नष्ट होगा.' 

उन्होंने हाथियों पर बढ़ती एंजायटी का असली कारण साफ शब्दों में रखा,  'हाथी अटैक नहीं कर रहे, हम उनकी दुनिया बदल रहे हैं. उनकी सदियों पुरानी राहें हमने फैक्ट्रियों और दीवारों से बंद कर दीं. जंगल कम कर दिए, खेत बीच में लगा दिए. उन्हें क्या पता कि गन्ना आपका लगाया हुआ है? वे उसे प्रकृति का हिस्सा समझते हैं.'

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Manisha Kulshreshtha, Sahitya Aajtak 2025 (Photo Credits: K Asif)

उन्होंने बताया कि जल्दापारा के एक विशेषज्ञ ने उनसे कहा था कि दस साल पहले हाथियों में इतनी बेचैनी नहीं थी, पर अब वे लगातार तनाव में रहते हैं. उनकी टेरिटरी घट गई है, इंसानी गतिविधियां बढ़ गई हैं, रास्ते टूट गए हैं और उनके सामने तेज आवाजें, पटाखे, गाड़ियां और प्रदर्शन आ चुके हैं. 

मंदिर संस्कृति पर उन्होंने कहा कि भारत की एक खासियत है, जिसे पूजते हैं, उसे कैद कर लेते हैं. स्त्री हो या हाथी. मंदिरों में हाथियों को बेड़ियां डाल दी जाती हैं. वे कभी चलना सीख ही नहीं पाते. भारी मूर्तियां लादकर, संगीत और पटाखों के बीच हम उन्हें जुलूसों में घसीटते हैं.

गिलहरी 'गिल्लू' ने सिखाया मातृत्व का असली अर्थ- निधि अग्रवाल

निधि अग्रवाल की कहानी उसके पात्र उनके गिल्लू की तरह ही कोमल थी. उन्होंने बताया कि किस तरह उनके घर के आंगन में मिला एक अनाथ गिलहरी का बच्चा उनके परिवार का हिस्सा बन गया. उन्होंने कहा कि हमने उसे कभी पिंजरे में नहीं रखा. वो घर में आजादी से घूमता, हमें ढूंढता और हमारे पास आकर बैठ जाता. 

Nidhi Agrawal, Sahitya Aajtak 2025 (Photo Credits: K Asif)

कहानी के शीर्षक पर निध‍ि ने साफ कहा कि उन्होंने महादेवी वर्मा को चुनौती नहीं दी बल्कि उनसे प्रेरित होकर ही 'गिल्लू' नाम चुना.  उनकी आवाज में अपनापन था जब वे बोलीं कि जानवर को पालते समय जो जिम्मेदारी आती है, वही असली मातृत्व है. वो कभी बड़ा नहीं होगा, उसकी हर छोटी जरूरत आपसे ही पूरी होगी. वो आपको तरल बनाता है. 

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मैं खुद कुत्ता बन जाऊं… तभी उसकी पीड़ा समझ सकूंगा- अमित तिवारी

अमित तिवारी ने अपने पालतू बंकू की कहानी सुनाई. ये कहानी असल में एक भावुक, पछतावे से भरी याद थी कि कैसे वे उसके इलाज में और बेहतर कर सकते थे. 

उन्होंने कहा कि अब लगता है, अगर उस वक्त उतनी संवेदना होती जितनी आज है तो उसका इलाज और अच्छे से कराता. जब उसे खोया, तब लगा कि हम रोज-रोज बहुत असंवेदनशीलता कर जाते हैं. उन्होंने आगे कहा कि कई बार उसे महसूस करने के लिए लगता था कि मैं खुद कुत्ता बन जाऊं… तभी उसकी पीड़ा समझ सकूंगा. 

Amit Tiwari, Sahitya Aajtak 2025 (Photo Credits: K Asif)

क्या वाकई हिंदी साहित्य में आएगा 'एनिमल सेंट्रिक फिक्शन' का दौर?

तीनों लेखकों ने माना कि दुनिया संवेदनशील हो रही है और जानवर अब साहित्य के पन्नों के हाशिये पर नहीं, केंद्र में आएंगे.  मनीषा ने कहा कि पश्चिम में Animal Narratology एक स्थापित विषय है और हिंदी भी उसी दिशा में आगे बढ़ रही है. वहीं निधि ने जोड़ा कि नई पीढ़ी जानवरों को लेकर सबसे ज्यादा संवेदनशील है, आज के बच्चे और युवा कुत्तों-बिल्ली के लिए खड़े होते हैं, लड़ते हैं, आवाज उठाते हैं, हमारी पीढ़ी से ज्यादा. 

इस सेशन ने साफ किया कि हिंदी साहित्य बदल रहा है और यह बदलाव बेहद मानवीय है. जहाँ पहले जानवर सिर्फ प्रतीक होते थे, अब वे कहानी के नायक हैं, संवेदना के दूत हैं. दुनिया शायद तभी खूबसूरत बनेगी, जब मनुष्य फिर से उन बेजुबानों पर भरोसा करना सीखेगा, जो बिना शर्त प्यार करते हैं. 

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