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‘समाधान में भरोसा करें, संदेह में नहीं...’, नेशनल मेडिएशन कॉन्फ्रेंस में सुप्रीम कोर्ट के जजों की नसीहत

जस्टिस नागरत्ना ने यह भी कहा कि वकीलों और न्यायपालिका की जिम्मेदारी केवल मुकदमों का निपटारा करना नहीं, बल्कि समाज में उत्पन्न विवादों का “हीलर” यानी उपचारक की भूमिका निभाना भी है. न्यूनतम खर्च, कम समय और कम तनाव में समाधान देना ही मध्यस्थता का उद्देश्य है.

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जस्टिस नागरत्ना बोलीं- अपील पर अपील से बर्बाद हो रहा है संसाधन(Image Credit: File/Supreme Court of India)
जस्टिस नागरत्ना बोलीं- अपील पर अपील से बर्बाद हो रहा है संसाधन(Image Credit: File/Supreme Court of India)

भुवनेश्वर में आयोजित राष्ट्रीय मध्यस्थता सम्मेलन 2025 में सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस बी.वी. नागरत्ना ने शिरकत की. इस दौरान उन्होंने विवादों को सुलझाने में सरकार के मध्यस्थता (Mediation) के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव की आवश्यकता पर जोर दिया.

जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि यदि सरकारी विभाग हर मामले में अपील पर अपील करता रहेगा, भले ही सफलता की संभावना न हो, तो इससे देश का समय और संसाधन दोनों ही बर्बाद होंगे और न्यायिक समय बर्बाद होगा.

सरकार द्वारा संचालित विवाद समाधान में "आमूल-चूल सुधार" का आह्वान करते हुए, उन्होंने कहा कि मध्यस्थता तभी सफल हो सकती है जब इस दृष्टिकोण में बदलाव लाया जाए. उन्होंने कहा, "अगर किसी सरकारी निकाय और एक ठेकेदार के बीच हुए मध्यस्थता डिक्री को उच्च अधिकारियों या उनके उत्तराधिकारियों द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है, तो राज्य प्राधिकरणों और निजी संस्थाओं के बीच मध्यस्थता को बढ़ावा देने की पूरी परियोजना विफल हो जाएगी."

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सरकार को दिया सुझाव

उन्होंने सुझाव दिया कि राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर बनने वाली मुकदमेबाजी नीतियों (Litigation Policies) में स्पष्ट होना चाहिए कि सरकार कब मध्यस्थता के फैसले या आदेश को चुनौती दे सकती है और कब नहीं. तभी यह प्रक्रिया भरोसेमंद बनेगी और विवादों को तेज़ी से सुलझाया जा सकेगा.

जस्टिस नागरत्ना ने यह भी कहा कि वकीलों और न्यायपालिका की जिम्मेदारी केवल मुकदमों का निपटारा करना नहीं, बल्कि समाज में उत्पन्न विवादों का “हीलर” यानी उपचारक की भूमिका निभाना भी है. न्यूनतम खर्च, कम समय और कम तनाव में समाधान देना ही मध्यस्थता का उद्देश्य है.

जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि अब समय आ गया है कि न्यायपालिका अतीत की सोच से बाहर निकले. संसद ने जब 2023 का मध्यस्थता कानून बनाया है, तो अदालतों की जिम्मेदारी है कि वे इसे शंका की दृष्टि से न देखें, बल्कि संसद की मंशा को पूरा करें.

जस्टिस अरविंद कुमार ने साझा किया अनुभव

उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा, “क्या मध्यस्थता अब न्याय प्रणाली का हिस्सा बनकर न्याय हासिल करने का साधन नहीं बन चुकी? इसे लोकतांत्रिक न्याय की नई परिभाषा के रूप में अपनाया जाना चाहिए.”

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इस दौरान जस्टिस अरविंद कुमार ने कर्नाटक हाई कोर्ट में सहायक सॉलिसिटर जनरल के रूप में अपने समय का एक अनुभव साझा किया. उन्होंने बताया कि जमीन गंवाने वाले लोगों के साथ मुआवजा देने को लेकर समझौता हो जाने के बावजूद, एक सचिव ने यह आशंका जताते हुए हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया कि वह 'समस्या में पड़ सकता है'. जस्टिस कुमार ने कहा कि "राज्य मुकदमेबाजी में अधिकांश अधिकारियों में यही बुनियादी मानसिकता है."

उन्होंने कहा कि इस वास्तविकता के प्रति सचेत रहते हुए कि सभी मंचों पर लंबित मुकदमों का 46.78 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार, राज्य सरकारों या वैधानिक निकायों से संबंधित है, यह उच्च समय है कि हम मध्यस्थता के माध्यम से विवादों को निपटाने के बारे में सोचें.

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