कानून की किताब जितनी भारी होती है, उसके जल्द फटने की आशंका उतनी ही ज्यादा होती है. यूपी विधानसभा चुनावों पर भी यह बात सटीक बैठती है. चुनाव घोषित होते ही आचार संहिता लागू हो गई. फरमानों की झ्ड़ी लग गई, दीवारों पर लगे नारे रंग दिए गए, पोस्टर फाड़ डाले गए, झंडे-बैनर उतार दिए गए, नारों का शोर कभी सुनाई ही नहीं दिया. चुनावी रंग इस कदर काफूर हो गया मानो चुनाव नहीं, किसी मरघट का मंजर हो. सरसरी नजर डालें तो कहा जा सकता है कि चुनाव बेहद साफ-सुथरे हुए. लेकिन सतह को थोड़ा कुरेदें, तो अब यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि साफ-सुथरे चुनाव की पैकेजिंग के नीचे एक भयानक सचाई छुपी है. यह प्रदेश का सबसे महंगा चुनाव साबित हो रहा है, जिसमें बेहिसाब पैसा फेंका गया और शराब तो इस कदर बहाई गई मानो बाढ़ का पानी. चुनाव आयोग डाल-डाल घूम रहा था तो पार्टियां और उम्मीदवार पात-पात चल रहे थे. गफलत में पड़ा चुनाव आयोग मतदान खत्म होने के बाद यह कह सकता है कि उसने करोड़ों रुपए जब्त किए और लाखों लीटर शराब पकड़ी, लेकिन चुनाव में इससे कई गुना ज्यादा पैसा और शराब बांटी गई. इस बार के चुनाव में चुनाव आयोग को छकाने के कुछ नायाब और कई नए-पुराने तरीके अपनाए गए.
1.हुंडी की वापसी
नोट लाने और बांटने पर पाबंदी है तो कैसा गम, पर्ची से हो रहा है लेन-देन
नकद पैसा ले जाने में खतरा है. चुनाव आयोग से लेकर इनकम टैक्स विभाग और विजिलेंस की टीम हर गाड़ी को सूंघ रही है, हर गाड़ी की डिक्की खोलकर देखने की कोशिश हो रही है. कोई परवाह नहीं.
अगर किसी के पास हाथ से लिखी पर्ची पर किसी के दस्तखत हों तो कोई भी एजेंसी क्या कर लेगी. गोरखपुर में ऐसी पर्ची खास जगह पर देने पर शराब की दुकान से शराब मिल रही थी. दूसरे किस्म की पर्ची दिखाने पर ज्वेलर्स की दुकान से नथुनी और बालियां मिल रही थीं.
बहराइच में पर्ची दिखाने पर पेट्रोल मिल रहा था तो मेरठ में नकदी. इसमें पकड़े जाने का खतरा कम-से-कम है और इस तरह समर्थकों और मतदाताओं तक पैसे और दूसरे गिफ्ट आसानी से पहुंचाए जा सकते हैं. पर्चियां बांटने वाले ज्यादातर नेताओं के रिश्तेदार और करीबी हैं ताकि पकड़े भी गए तो उम्मीदवारी रद्द न हो. पर्ची या हुंडी का इस्तेमाल उन कामों में हो रहा है जिनका जिक्र चुनाव खर्च में नहीं करना है, मसलन- खाने-पीने का इंतजाम, पेट्रोल खर्च आदि. बलरामपुर में बंटी इस पर्ची में 'आर' का मतलब कोई खास आदमी है और स्टार का मतलब है हजार रुपए.
2.वोट ठेकेदार और वोट एजेंट
जिनके पास वोट हैं, उनके पास नोट पहुंचाए गए, यह सबसे बड़ा खर्च है
चुनाव में ज्यादातर पैसा ग्राम प्रधानों, पूर्व प्रधानों, बीडीसी सदस्यों और जाति के प्रभावशाली लोगों के जरिए बांटा गया. उम्मीदवारों ने चुनाव से पहले और चुनाव के दौरान पता लगाया कि वोट के थोक मैनेजर कौन हैं, उनकी हैसियत के हिसाब से 5,000 से 5 लाख रु. तक दिए गए. तराई क्षेत्र में प्रभावशाली लोगों को नेताओं ने एलसीडी टीवी और मोटरसाइकिलें भी दीं ताकि वे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके वोट दिलाएं. झांसी की गरौठा सीट पर एक उम्मीदवार ने वोट ठेकेदारों के लिए बोलेरो और ऐसी ही 50 एसयूवी खरीद डालीं. इस्तेमाल के बाद ये उम्मीदवार के पास लौट आएंगी. गोंडा सदर क्षेत्र के बारे में अनुमान है कि अलग-अलग प्रत्याशियों ने 5 करोड़ रु. तक इसी तरह से बांटे. वोट ठेकेदारों तक रकम पहुंचाने के लिए भी 10 फीसदी तक कमीशन मिला. वोट एजेंटों के माध्यम से प्रति परिवार 500 रु. से 1,000 रु. तक दिए गए.
3.मोटरसाइकिल से टोकरी तक
रुपए को सही जगह तक पहुंचाने के लिए आजमाए गए नायाब तरीके
पैसे कार या एसयूवी की जगह मोटरसाइकिल पर रखकर पहुंचाए गए. गोंडा और बाराबंकी में फरवरी के पहले हफ्ते में अलग-अलग जगहों पर मोटरसाइकिलों पर ले जाए जा रहे लगभग 20 लाख रु. इनकम टैक्स विभाग ने जब्त किए. इन मोटरसाइकिलों से अमूमन 1 से 5 लाख रु. मिले. जहां ज्यादा सख्ती थी, वहां फलों की टोकरी में रखकर रुपए पहुंचाए गए.
4.कत्ल की रात और वह बैग
मतदान शुरू होने के कुछ घंटे पहले लड़ा जाता है असली चुनाव
चुनाव का पूरा कारोबार मतदान से एक दिन पहले तक साफ-सुथरा लगता है. फिर आती है कत्ल की रात, यानी मतदान से पहले की रात. इस समय रुपए का सर्वाधिक लेन-देन होता है और शराब की नदी बहा दी जाती है. इस एक दिन में कई बार हवा बदल जाती है. जीतता दिख रहा उम्मीदवार कहीं पीछे छूट जाता है. इसी दिन वोट ठेकेदार पाला बदलते हैं और इसके लिए अपनी कीमत वसूलते हैं. जिसने जितने वोट ठेकेदार पटा लिए, उसका पलड़ा उतना भारी. कई बार ऐसे उम्मीदवारों को भी रुपए देकर मैदान से हटा दिया गया, जिनसे वोट कटने का डर था.
मतदाताओं को बूथ तक पहुंचाना अपने आप में बेहद खर्चीला काम है, इस काम के लिए उम्मीदवार के विश्वसनीय लोग पोलिंग बूथ के लिए बस्ता देते हैं. इसमें पोलिंग एजेंट के लिए एजेंट फॉर्म, वोटर लिस्ट और नकदी होती है. यह बस्ता पोलिंग एजेंट और उनके समर्थकों के चाय-पानी के लिए होता है. आजमगढ़ में एक बस्ते में औसतन 2,000 रु. थे और मजबूत उम्मीदवारों ने हर बूथ पर तीन या अधिक बस्ते दिए. शहरी इलाकों में बस्ते भारी होते हैं.
5.शराब में है वोट का नशा
चुनाव जीतने का यह अरसे से चला आ रहा बेहद लोकप्रिय नुस्खा है
अब वह वक्त नहीं रहा जब उम्मीदवार बड़ी संख्या में शराब स्टॉक करके रखता था. शराब अब भी बंटती है और पहले से ज्यादा बंटती है, लेकिन सावधानी से. इलाहाबाद में देखा गया कि शराब छोटी खेप में खरीदी गई और उसे सावधानी से सही लोगों तक पहुंचाया गया.
इस लेन-देन में उम्मीदवारों के करीबी लोग शामिल रहे. नेपाल की सीमा से सटे महाराजगंज, सिद्धार्थनगर और बहराइच के इलाकों में नेपाल से लाकर लैला, सोन्फी, कर्णाली और महाकाली शराब बांटी गई. यहीं नहीं, खुली सीमा होने के कारण 5-7 की टोली में लोगों को नेपाल भेजकर भी दावत कराई गई. सिद्धार्थनगर के एक नेता कहते हैं कि बड़े दलों के उम्मीदवारों ने इस तरह शराब पिलाने पर ही 5 लाख रु. तक खर्च कर दिए.
6.बेगानी शादी में नेता दीवाने
शादी के मौके पर नकदी दी जा सकती है और वहीं ढेर सारे लोग भी मिल जाते हैं
इस बार का उत्तर प्रदेश का चुनाव शादी के सीजन में आया और उम्मीदवारों ने इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया. खासकर, लड़कियों की शादी में उम्मीदवार दल-बल के साथ पहुंचे और मौका देख नोटों का लिफाफा भी थमा दिया. इस मौके पर एक साथ ढेर सारे लोग जुटते हैं इसलिए बिना किसी झ्मेले के जनसंपर्क भी हो गया. कई उम्मीदवारों ने गरीब मतदाता की बेटी की शादी का खर्च भी उठाया. झंसी के गरोठा क्षेत्र के एक प्रत्याशी तो यह काम लंबे समय से कर रहे हैं. वे अब तक 500 शादियां करा चुके हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुछ प्रत्याशियों ने सामूहिक विवाह कराए हैं. शादी में जाने में चुनाव प्रचार के लिए तय समयसीमा भी तोड़ी जा सकती है.
8.धर्म से भी मिलते हैं वोट
किसी ने धर्मस्थलों की मरम्मत कराई तो किसी ने दिया भारी दान
धर्म के नाम पर वोट मांगना मना है, लेकिन धर्म के नाम पर वोट देने पर कोई पाबंदी नहीं है. इसलिए चुनाव के मौके पर धर्मगुरुओं की हैसियत बढ़ जाती है. हमेशा इलाके की मस्जिद में नमाज पढ़ने वाले आगरा के एक प्रत्याशी चुनाव के मौके पर जामा मस्जिद में नमाज पढ़ने और फिर वोट मांगने पहुंच गए. मुस्लिम प्रत्याशी ने शिव मंदिर में भंडारा कराया तो हिंदू प्रत्याशी तोपशाह बाबा की दरगाह पर होने वाले उर्स में शरीक होने पहुंच गए. कई जगहों पर नेताओं ने चुनाव आयोग की नजर बचाकर चढ़ावा भी चढ़ाया. बाराबंकी के दरियाबाद, गोंडा के कटरा और लखनऊ के बख्शी तालाब में उम्मीदवारों ने धर्मस्थलों के जीर्णोद्धार के लिए खूब पैसे दिए और बदले में वोट मांगे.
9.हाइटेक कोड ब्रेकर
टेलीमार्केटिंग से लेकर एसएमएस और सोशल नेटवर्किंग का रास्ता
हाइटेक जमाना है, इसलिए फेसबुक और ट्विटर से भी प्रचार हो रहा है. यह काम ठेके पर भी होता है, जिसका खर्च चुनाव खर्च में नहीं जोड़ा जाता. लखनऊ और फैजाबाद में कई उम्मीदवारों ने टेलीमार्केटिंग कंपनियों से मतदाताओं को कॉल करवाए और एसएमएस भेजे. ये एसएमएस चुनाव प्रचार के दौरान बार-बार भेजे गए. कुछ उम्मीदवारों की तरफ से मतदाताओं को कॉल भी किए गए. इस काम में लाखों रुपए के ठेके दिए गए. तरीके तो सैकड़ों हैं, जिनका इस्तेमाल उम्मीदवारों ने चुनाव आयोग को छकाने के लिए किया. लेकिन ऑनलाइन और डिजिटल प्रचार का असली रंग इस बार ही दिखा.
10.चुनाव की चाय पार्टी
पार्टी कोई करता है, खर्चा उम्मीदवार देता है. जनसंपर्क का नायाब तरीका
कानपुर में ऐसी चाय पार्टियां खूब हुईं, जिनमें 20-25 लोग शामिल होते रहे और जिनका खर्च उम्मीदवारों ने उठाया. उम्मीदवारों के खर्च पर प्रत्याशियों को चाय पार्टी पर बुलाकर जनसंपर्क का इंतजाम कराया गया. ऐसी दावत और पार्टियां प्रदेश भर में खूब 'ईं. अब कोई चाय पार्टी करे तो उसका खर्च चुनाव खर्च में जोड़ने का कोई मतलब हुआ भला!
कुल मिलाकर चुनाव आयोग चुनाव सुधार के तमाम कार्यक्रमों से जो लक्ष्य हासिल करना चाहता था, वे उत्तर प्रदेश के गली-मुहल्लों में मुंह के बल गिरे पड़े हैं.
-आजमगढ़ से सुधीर सिंह, मेरठ से ऋचा जोशी, बहराइच से हरिशंकर शाही, गोरखपुर से कुमार हर्ष, सहारनपुर से सुरेंद्र सिंघल, आगरा से शिराज कुरैशी, इलाहाबाद से सुनील राय और कानपुर से सुरेंद्र त्रिवेदी