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उत्तराखंड में कभी किंगमेकर रही BSP, मोदी लहर में हाथी नहीं चल सका एक कदम

उत्तराखंड गठन के बाद शुरुआती तीन विधानसभा चुनाव में बीएसपी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन मोदी लहर में एक भी सीट नहीं जीत सकी. उत्तराखंड के सियासी इतिहास में पहली बार था जब बसपा का हाथी पहाड़ पर रेंगता नजर आया था. यही वजह है कि 2022 के चुनाव में बीएसपी अपने खोए हुए सियासी जमीन को वापस लाने की कवायद में जुटी है?

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बसपा प्रमुख मायावती
बसपा प्रमुख मायावती
स्टोरी हाइलाइट्स
  • बसपा के समर्थन से बनी थी कांग्रेस सरकार
  • उत्तराखंड में बसपा का गिर रहा सियासी ग्राफ
  • 2022 में बसपा क्या खोल पाएगी अपना खाता

उत्तराखंड की सियासत में सपा भले ही खाता नहीं खोल सकी थी, लेकिन बसपा अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के साथ-साथ किंगमेकर की भूमिका भी अदा करती रही है. राज्य गठन के बाद शुरुआती तीन विधानसभा चुनाव में बीएसपी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, लेकिन मोदी लहर में एक भी सीट नहीं जीत सकी. उत्तराखंड के सियासी इतिहास में पहली बार था जब बसपा का हाथी पहाड़ पर रेंगता नजर आया था. यही वजह है कि 2022 के चुनाव में बीएसपी अपने खोए हुए सियासी जमीन को वापस लाने की कवायद में जुटी है? 

बसपा ने उत्तराखंड की सभी 70 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने की तैयारी में जुटी है. सूबे में बसपा के खोए हुए जनाधार को वापस लाने का जिम्मा पार्टी कोऑर्डिनेटर समशुद्दीन राइन को सौंपा गया है, जो इन दिनों कैंडिडेट के चयन को लेकर जुटे हैं. इस बार बसपा का फोकस राज्य में दलित-मुस्लिम वोटों के कैंबिनेशन को बनाने का है, लेकिन चुनाव जिस तरह से बीजेपी और कांग्रेस के बीच सिमटता जा रहा है. ऐसे में बसपा के लिए यह चुनाव काफी चुनौतीपूर्ण बना गया है. 

हालांकि, एक दौर में बसपा उत्तराखंड की सियासत में अहम रोल में रही है. राज्य के मैदानी ही नहीं बल्कि पहाड़ी क्षेत्र में भी अपना सियासी ग्राफ बढ़ाती नजर आ रही थी. लेकिन, बसपा प्रमुख मायावती के सूबे में सक्रिय न होने से बसपा का सियासी ग्राफ गिरना शुरू हुआ तो फिर नहीं रुका. इसी का नतीजा रहा कि 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा एक भी विधायक अपना नहीं जिता सकी. 

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बसपा की दमदार दस्तक
उत्तराखंड में पहला चुनाव 2002 में हुआ, जिसमें बीजेपी, कांग्रेस और बसपा के बीच त्रिकोणीय मुकाबला हुआ. कांग्रेस 36 सीटों के साथ सरकार में आई तो बीजेपी ने 19 सीटों पर जीत दर्ज की थी. वहीं, बसपा को 7 सीट जीत कर तीसरे नंबर पर रही. 2002 में बसपा का मत प्रतिशत 10.93 फीसदी रहा.

2007 के विधानसभा चुनाव में बसपा उत्तराखंड में बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई. इस चुनावों में बसपा के 8 विधयाक जीते और मत प्रतिशत बढ़कर 11.76 फीसदी हुआ. हरिद्वार और उधम सिंह नगर की अधिकांश सीटों पर बसपा का दबदबा था. इस दौरान पहाड़ पर भी कई सीटें ऐसी थीं, जिन पर बसपा की हार का आंकड़ा 2000 से कम रहा. बसपा के बढ़ते ग्राफ से कांग्रेस और बीजेपी की चिंता बढ़ गई थी. 

किंगमेकर बनी जब बसपा
2012 के विधानसभा चुनाव में बसपा 3 विधायकों पर सिमट गई. हालांकि, बसपा का मत प्रतिशत बढ़कर 12.99 फीसदी पर पहुंच गया. बसपा के 2012 के चुनाव भले तीन ही विधायक थे, लेकिन इस बार बसपा ने किंग मेकर की भूमिका निभाई और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सरकार में शामिल हुई थी. भगवानपुर से विधायक सुरेंद्र राकेश बसपा कोटे के कैबिनेट मंत्री भी बने. लेकिन, बसपा अपने सियासी ग्राफ को मजबूत नहीं रख सकी. 

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मोदी लहर में हांफता हाथी
2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा का उत्तराखंड से सूपड़ा साफ हो गया. इस बार बसपा का एक भी विधायक जीतकर विधानसभा तक नहीं पहुंच पाया. 2017 की मोदी लहर में बसपा का हाथी उत्तराखंड पहाड़ के अलावा मैदानी इलाके में भी हांफता नजर आया. बसपा सीटें गंवाने के साथ-साथ वोट प्रतिशत भी घटकर आधा रह गया और महज 6.98 फीसदी वोट मिले. बसपा से बेहतर प्रदर्शन निर्दलियों के रहे, जिन्होंने मोदी लहर मोदी लहर के बावजूद कुमाऊं और गढ़वाल से दो निर्दलीय विधायक जीतने में कामयाब रहे. 

बता दें कि 2008 के उत्तराखंड परिसीमन के बाद बसपा का सियासी समीकरण गड़बड़ा गया है. बसपा की राजनीतिक घट गई है,  हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों में बसपा को मिले वोटों का प्रतिशत 21.83 रहा, लेकिन 2012 के बाद गिरे बसपा के जनादेश से शायद अब भाजपा और कांग्रेस के कोई डर नहीं है, तभी दोनों पार्टियां बसपा को 2022 के लिए कोई कड़ी चुनौती नहीं मान रहे हैं. हालांकि, राज्य में 13 फीसदी दलित वोटर है, जो बसपा का परंपरागत वोट माना जाता है. इस बार कांग्रेस दलितों को लुभाने की कवायद में जुटी है. 


 

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