राजस्थान के जोधपुर में रहने वाला 12 साल का वह बच्चा जब अपने दादा-दादी के साथ सांप-सीढ़ी का खेल खेला करता था तब शायद उसने यह सोचा भी नहीं होगा कि किसी दिन वह अपना खुद का गेम बनाएगा. लेकिन अब 28 साल के हो चुके मनुज धारीवाल ने अपना अनोखा बोर्ड गेम ईजाद कर लिया है. आइआइटी-गुवाहाटी से डिजाइनिंग इंजीनियरिंग में ग्रेजुएट मनुज ने 2008 में अपने 31 वर्षीय भाई रजत और भाभी 32 वर्षीया मधुमिता के साथ मिलकर देश में पहली बार हिंदी में बोर्ड गेम अक्षरित की शुरुआत की है.
200 खानों वाले इस बोर्ड गेम ने आइआइएम कोलकाता में व्यावहारिक विचारों की स्पर्धा जीती है. उसके बाद, पिछले सात साल में इस रंगीन गेम ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के करीब 3 लाख स्कूली छात्रों के लिए हिंदी भाषा की पढ़ाई बेहद मजेदार बना दी है. अब यह तिकड़ी अपनी कंपनी मैडरैट गेक्वस के जरिए देश भर में अक्षरित का प्रसार कर रही है. यह बोर्ड गेम 11 क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध है और कंपनी ने इसका इंटरनेट संस्करण भी पेश कर दिया है. मनुज कहते हैं, ‘‘पढ़ाई को खेलों के जरिए ही दिलचस्प बनाया जा सकता है. इस तरह से बच्चों में उत्साह बढ़ता है और चुनौती स्वीकार करने की भावना जगाई जा सकती है.’’
दिखाओ, बताओ नहीं
इनका फलसफा शिक्षाशास्त्रियों को भी पसंद आ रहा है क्योंकि इसमें छात्रों को खेल-खेल में सीखने को प्रोत्साहन मिलता है और पाठ्यपुस्तकों को रटने के उबाऊ काम से छुट्टी मिल जाती है. सेसमी वर्कशॉप इंडिया की प्रबंध निदेशक शाश्वती बनर्जी के मुताबिक, यह साबित हो चुका है कि खेल के जरिए पढ़ाई और सीखने का तरीका ज्यादा कारगर है. सेसमी देश भर में पढ़ाई-लिखाई का प्रसार करने के लिए कई कार्यक्रम चलाता है, जिसमें शिक्षा, साफ-सफाई, स्वास्थ्य और महिला सशक्तिकरण जैसे विषयों के बारे में जानकारी देने के लिए गांवों में कठपुतलियों के शो आयोजित किए जाते हैं. बनर्जी कहती हैं, ‘‘हमें पहली बात यही समझ में आई कि बच्चे और वयस्क, दोनों ही उन कार्यक्रमों में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं जिनमें कोई खेल और कठपुतली का नाच शामिल होता है. हमारे कार्यक्रमों में शामिल होने वाले करीब 90 फीसदी लोग अपने रोजमर्रा के जीवन में इन खेलों के जरिए प्राप्त शिक्षा पर अमल करते हैं.
>सेसमी प्रसिद्ध अमेरिकी कार्टून शो सीसेम स्ट्रीट का भारतीय संस्करण गली, गली, सिम-सिम भी पेश करता है. यह कार्टून नेटवर्क, पोगो और दूरदर्शन पर आता है और अब ऑनलाइन भी उपलब्ध है. इस तरह यह शो देश भर में 15 करोड़ बच्चों तक पहुंचता है और इसके तहत पढ़ाई-लिखाई के प्रसार के लिए नए और नायाब तरीके ईजाद किए जाते हैं. बनर्जी कहती हैं, ‘‘शो में मौजूद ढेर सारे रंग, इसके पात्रों की बातचीत, हास्य-विनोद और सकारात्मक ऊर्जा का बच्चों में पढ़ाई के प्रति दिलचस्पी जगाने का सकारात्मक असर होता है. कठपुतलियां किस्सागोई का दिलचस्प तरीका हैं और ये सीखने-सिखाने में मदद करती हैं.’’
बच्चों को शिक्षा और जिंदगी के गुर सिखाने के लिए अब ज्यादातर प्रशिक्षक कठपुतलियों का इस्तेमाल करने लगे हैं. तरह-तरह के पात्रों की कठपुतलियां बनाई जाती हैं और उनके जरिए की जाने वाली किस्सागोई सभी उम्र के लोगों को दिलचस्प लगती है. कठपुतलियों के जरिए मनोरंजन और शिक्षा साथ-साथ हो जाते हैं. सामाजिक और पर्यावरण संबंधी संदेश, इतिहास की कहानियां, भाषा का व्याकरण, विज्ञान के सिद्धांत और गणित की शिक्षा भी दिलचस्प ढंग से देने के लिए कठपुतलियों का इस्तेमाल किया जाता है. कठपुतली कलाकार तथा निर्देशक मीना नायक कहती हैं, ‘‘आप कठपुतलियों के इस्तेमाल से हवा, वातावरण और खनिज पदार्थों के बारे में बच्चों को जानकारी दे सकते हैं. इसी तरह आप एक पात्र विटामिन सी बना सकते हैं जो किसी दूसरी कठपुतली बच्चे से विटामिनों के सेवन का लाभ बता सकता है.
बनर्जी का कहना है कि बच्चे कठपुतलियों से जुड़ाव महसूस करने लगते हैं इसलिए जब वे उनसे खेलते हैं तो उनकी हिचक टूट जाती है. बेहद अंतर्मुखी बच्चे भी कठपुतलियों से खुलने लगते हैं, जिन्हें वे अपना दोस्त बना लेते हैं. वे कहती हैं, ‘‘कठपुतलियां बोलती हैं तो बच्चे उनकी ज्यादा सुनते हैं. इससे कठपुतलियां बच्चों से संवाद कायम करने का और पढ़ाई का कारगर तरीका बन रही हैं.’’ बच्चों के मामलों के विशेषज्ञ और परामर्शदाता भी मानते हैं कि ऐसे तरीके ज्यादा कारगर हैं क्योंकि छात्र किसी भी सिद्धांत को साधारण भाषा और दिलचस्प तरीके से ज्यादा बेहतर और आसानी से सीखते हैं.
मुंबई में बच्चों की काउंसलर वत्सला नायक कहती हैं, ‘‘ऐसे तरीकों ने बच्चों की पढ़ाई की दिक्कतें कम की हैं वरना उन्हें पढ़ाई के परंपरागत तरीके बड़े बोझिल लगते थे.’’ असल में जाने-पहचाने पात्रों के जरिए ही पढ़ाई आसान नहीं हो जाती, बल्कि तकनीक, खासकर ऑडियो-वीडियो माध्यम भी पढ़ाई को आसान बनाने में मददगार हैं. एनआइआइटी का ‘द होल इन द वॉल’ प्रोग्राम छात्रों को कंप्यूटर की जानकारी देता है, जिसकी मदद से वे पढ़ाई के अपने तरीके ईजाद कर सकते हैं. 1999 में शुरू हुआ यह प्रोग्राम ग्रामीण भारत में 23 स्थानों में पहुंच चुका है. इस प्रोग्राम को शुरू करने वाले सुगाता मित्रा को 2013 में इस पर और शोध करने के लिए दस लाख डॉलर का टेड पुरस्कार दिया गया. मित्रा कहते हैं, ‘‘शिक्षा आसान से आसान तरीके से दी जानी चाहिए, ताकि दिक्कतें कम हो सकें. इसी मामले में नए शोध की जरूरत है. चुनौती यह है कि छात्रों में कैसे सीखने की दिलचस्पी जगाई जाए और अध्यापक कैसे उनके गाइड बन सकें.’’ मित्रा के शोध से पता चलता है कि जब शिक्षा नए तकनीकी ईजादों के जरिए दी जाती है तो वह दस गुना ज्यादा कारगर होती है.
स्कूल की कक्षा में पढ़ाई को धारदार बनाने के लिए छात्र ऑनलाइन कक्षाओं की मदद ले सकते हैं. मसलन, मेरिटनेशन डॉटकॉम छात्रों को स्कूल के बाद घर पर पढऩे में मदद करता है. इस वेबसाइट पर पढ़ाई की सामग्री के साथ सवाल, गेम, वीडियो और पहेलियां होती हैं. पढ़ाई की सामग्री सीबीएसई, आइसीएसई और 12 राज्य बोर्डों के पाठ्यक्रम पर आधारित होती है और साइट पर देश भर के छात्रों की एक ‘आभासी’ कक्षा होती है. मेरिटनेशन डॉटकॉम के सह-संस्थापक पवन चौहान कहते हैं, ‘‘इसका मकसद हर छात्र की योग्यता और समझदारी के स्तर के मुताबिक पढ़ाई को आसान बनाना है.
शिक्षा के क्षेत्र में नवाचार और शोध देश के विभिन्न हिस्सों से आ रहा है. उन्हीं में से एक है कक्षा. वडोदरा स्थित इस संस्था का लक्ष्य प्राथमिक स्कूल के छात्रों को बुनियादी अंग्रेजी, हिंदी, पर्यावरण विज्ञान और गणित का पाठ ऑडियो-विजुअल प्रोग्राम के जरिए पढ़ाना है. इसमें पारंपरिक पढ़ाई के तरीकों को बेहतर बनाने के लिए कठपुतली और दूसरे माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है. उनके पास करीब 500 पाठ का प्रोग्राम है जो राष्ट्रीय पाठ्यक्रम के ढांचे में बनाए गए हैं और इनमें गीत-संगीत, नाटक तथा तरह-तरह के प्रयोग शामिल किए गए हैं. ये कार्यक्रम खासकर ग्रामीण इलाकों के ‘‘कम संसाधनों वाले स्कूलों’’ के प्राथमिक छात्रों के लिए बनाए गए हैं. कक्षा की संस्थापक रुक्मिणी ठाकुर कहती हैं, ‘‘इन स्कूलों में अमूमन एक ही अध्यापक होता है और इन अध्यापकों पर भी काफी बोझ होता है.
ओलंपिक में स्वर्ण पदक विजेता जोहान ओलाव कॉस ने जब ‘राइट टु प्ले इंटरनेशनल’ अभियान की शुरुआत की थी तो उनके जेहन में सिर्फ खेल ही नहीं थे. वे कहते हैं, ‘‘मैं हर बच्चे को खेल और मौज-मस्ती का अधिकार दिलाना चाहता हूं. अगर आप यह मानते हैं कि बच्चे खेल से नहीं सीख सकते तो आप गलत हैं. खेल सिर्फ छात्रों को खुलने का मौका ही नहीं देता है, बल्कि इससे समय का सही इस्तेमाल, नेतृत्व क्षमता, संवाद कला, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा और एक साथ कई काम करने की कला सीखी जाती है.’’
पढ़ाई और सीखने का माहौल भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. हिताची कंपनी में कॉर्पोरेट अफसर डॉ. हिदेकी कोइजामी के मुताबिक, खासकर प्रारंभिक वर्षों में बच्चों के मानसिक विकास में कक्षा का सकारात्मक, अनौपचारिक और दिलचस्पी जगाने वाला माहौल काफी अहम भूमिका निभाता है. वे बताते हैं, ‘‘शिक्षा और तकनीक के मेल से छात्र सीखने के साथ आनंद भी लेते हैं. यह एकतरफा और नीरस नहीं होता. इसकी बजाए यह प्रयोगात्मक और दिलचस्पी जगाने वाली पढ़ाई होती है. जैसे ही कोई बच्चा उसमें सक्रियता दिखाने लगता है, उसे ज्यादा-से-ज्यादा जानकारी मिलने लगती है और वह उसे लंबे समय तक याद रहती है.’’
नई नहीं, अतिरिक्त कक्षा
पर बच्चे सिर्फ सूचना पाने वाले बनकर नहीं रह जाएं और पढ़ाई में सक्रिय हिस्सेदारी भी रखें, इसके लिए प्रेरित करने के लिए शिक्षाशास्त्री खासकर विज्ञान जैसे विषयों की पढ़ाई के लिए नए तरीकों का ईजाद कर रहे हैं, जिनमें सिद्धांतों के प्रयोग की जरूरत पड़ती है.
अहमदाबाद में रेस्पायर एक्सपेरिमेंटल लर्निंग मिट्टी के अपचय, इंद्रधनुष वगैरह की प्रक्रिया को समझाने के लिए आसान किट बनाता है. यह दूसरे और तीसरे दर्जे के स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा के लिए उपकरण मुहैया कराता है और पाठ्यपुस्तकों के पाठ को समझाने के लिए कागज, प्लास्टिक की बोतलें, पुरानी सीडी और पानी जैसी सामान्य चीजों का इस्तेमाल किया जाता है. पिछले साल इस प्रोग्राम को शुरू करने वाली मोनिका यादव कहती हैं, ‘‘जब बच्चे सारी क्रियाएं सामान्य चीजों की मदद से करते हैं तो पढ़ाई मस्ती जैसी बन जाती है, इसमें उनकी दिलचस्पी बढ़ जाती है और विज्ञान महज परीक्षा पास करने के लिए रटने से कहीं अधिक मौज-मजे का विषय बन जाता है.’’
हालांकि तकनीक के सहारे पढ़ाई का दायरा बढऩे के साथ शिक्षाशास्त्री इसके ज्यादा इस्तेमाल के प्रति चेतावनी भी देते हैं. शिक्षा क्षेत्र में सक्रिय एनजीओ प्रथम के संस्थापक तथा सीईओ माधव चव्हाण कहते हैं, ‘‘सिर्फ कंप्यूटर लगाने और ऑनलाइन प्रोग्राम मुहैया करा देना काफी नहीं होगा. शिक्षकों का उसके सही इस्तेमाल की तकनीक सीखना और यह देखना भी जरूरी है कि उसका कैसा असर हो रहा है. उन्हें हर नई तकनीक को पूरी तरह जानना जरूरी है.’’ कोइजामी का कहना है कि तकनीक आधारित शिक्षा ‘‘ऐसी प्रक्रिया है जिसमें हर किसी की समान भागीदारी होनी चाहिए.’’ दूसरे विशेषज्ञों का मानना है कि शिक्षा में सबकी भागीदारी होनी चाहिए और समाज में इसका सकारात्मक असर पडऩा चाहिए. पढ़ाई में तकनीक और शिक्षण में उपयोगी उपकरणों का इस्तेमाल इतना व्यापक होता जा रहा है कि छात्रों और अध्यापकों को इसमें साथ-साथ भूमिका निभानी पड़ेगी. लेकिन क्या तकनीक कक्षा से अध्यापकों को विदा कर देगी? शिक्षाशास्त्रियों को यकीन नहीं है कि ये तकनीकी उपकरण शिक्षक की जगह ले सकेंगे. एनआइआइटी में प्रोफेसर सुगता मित्रा कहते हैं, ‘‘ये उपकरण पढ़ाई की प्रणाली के लिए खतरा नहीं हैं. बदलते दौर के हिसाब से इनकी मदद से पढ़ाई आसान हो जाती है, बस.’’