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बंगाल में 'दा' और 'बाबू' का क्या मतलब होता है? PM मोदी के बंकिम दा मोमेंट से छिड़ी बहस

संसद में वंदे मातरम् पर चर्चा के दौरान, प्रधानमंत्री मोदी ने बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को 'बंकिम दा' कहकर संबोधित किया था. उन्होंने जब लगातार तीन-चार बार ऐसा ही किया तो टीएमसी के सांसद ने इस पर आपत्ति जता दी. ऐसे में जानते हैं कि जब दा और बाबू का मतलब बंगाल में क्या होता है?

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बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को दा कहने के बाद बाबू और दादा के इस्तेमाल को लेकर छिड़ी बहस (Photo -PTI)
बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को दा कहने के बाद बाबू और दादा के इस्तेमाल को लेकर छिड़ी बहस (Photo -PTI)

संसद में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रगीत 'वंदे मातरम' की रचना करने वाले बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय को 'बंकिम दा' कहकर संबोधित किया तो टीएमसी सांसद सौगत रॉय ने तुरंत प्रधानमंत्री मोदी की टिप्पणी पर आपत्ति जताते हुए उनसे 'बंकिम बाबू' का प्रयोग करने का आग्रह किया. ऐसे में जानते हैं इन शब्दों का मतलब क्या होता है  और कब इसका इस्तेमाल किया जाता है.

बंगाल में दा और बाबू दोनों का इस्तेमाल सम्मान देने के लिए किया जाता है. लेकिन इसके मायने अलग-अलग होते हैं. इसलिए यह समझना जरूरी है कि किस शख्स के लिए हमें दादा का इस्तेमाल करना है और किस शख्स के लिए हमें बाबू शब्द का प्रयोग करना है.

बंगाली में 'दा' और 'बाबू' का क्या अर्थ होता है?
 बंगाली में बोलचाल में 'दा' या 'दादा' का अर्थ बड़ा भाई होता है. इसका प्रयोग आमतौर पर अनौपचारिक रूप से किसी बड़े व्यक्ति को मित्रवत तरीके से संबोधित करने के लिए किया जाता है. यानी किसी को बड़े भाई की तरह अगर सम्मान देना है तो 'दा' का इस्तेमाल किया जाता है. 

वहीं 'बाबू' शब्द का प्रयोग अधिक औपचारिक होता है. यह आमतौर पर शिक्षित या सम्मानित लोगों, जैसे डॉक्टरों या पेशेवरों के लिए प्रत्यय के रूप में प्रयोग किया जाता है. कुछ लोगों का मानना है कि पितातुल्य लोगों के लिए भी बाबू का इस्तेमाल किया जाता है. 

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हालांकि, इसे 19वीं शताब्दी के आरंभ में बंगाल में प्रचलित 'बाबू संस्कृति' से भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए. उस समय, शिक्षित और धनी लोगों का एक विशेष वर्ग, जो विलासिता में लिप्त रहना पसंद करता था, वे बाबू कहलाते थे.

क्यों महान और बड़े लोगों के लिए 'दा' इस्तेमाल नहीं होता
भाषाविज्ञानी और विद्वान पबित्रा सरकार ने कहा कि बंगाली लोग आमतौर पर बंकिम चंद्र जैसे महान व्यक्तित्वों और सांस्कृतिक प्रतीकों को 'दा' या 'दादा' प्रत्यय से संबोधित करने से बचते हैं. इस तरह की आत्मीयता थोड़ी अपमानजनक है. चाहे वह बंकिम चंद्र हों, विद्यासागर हों या रवींद्रनाथ, हम आमतौर पर उन्हें केवल नाम से ही संबोधित करते हैं.

संदर्भ स्पष्ट करते हुए सरकार ने आगे बताया कि दादा का अर्थ है कोई बड़ा और करीबी व्यक्ति. हर संस्कृति अलग होती है. शांतिनिकेतन में कुछ लोग शिक्षकों को दादा कहते हैं. वहीं महान व्यक्तित्वों और स्वतंत्रता सेनानियों को दादा कहना अपमानजनक माना जाता है.

बर्दवान विश्वविद्यालय में बंगाली की प्रोफेसर संगीता सान्याल ने बताया कि समकालीन 'दादा संस्कृति' को 19वीं सदी की 'बाबू संस्कृति' के साथ नहीं मिलाया जा सकता है.

उन्होंने कहा कि आज दादा संस्कृति अधिक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है. 19वीं शताब्दी में बंगाल में बाबू संस्कृति एक विशिष्ट सांस्कृतिक घटना के रूप में उभरी, लेकिन महान व्यक्तित्वों की बात करते समय इन्हें आपस में नहीं मिलाया जा सकता. इसलिए, वह बाबू बंकिम बाबू के समान नहीं है.

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बंकिम चंद्र ने खुद की थी 'बाबू संस्कृति' की आलोचना 
उन्होंने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि बंकिम चंद्र ने स्वयं अपनी रचनाओं में बाबू वर्ग की आलोचना की थी और ऐसी संस्कृति के काले पक्ष पर निबंध लिखे थे. प्रोफेसर ने इस बात पर ज़ोर दिया कि 'दादा' मूलतः एक बोलचाल का शब्द है, जिसका प्रयोग आस-पड़ोस के लोगों को अनौपचारिक रूप से संबोधित करने के लिए किया जाता है. 

उन्होंने बताया कि किसी बहुत बड़े या सम्मानित व्यक्ति के लिए हम 'दादा' शब्द का प्रयोग नहीं करते. मैंने कुछ विश्वविद्यालयों में देखा है जहां प्रोफेसरों को 'दादा' कहकर संबोधित किया जाता है, जो मुझे पसंद नहीं है. 

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रिपोर्ट - अरिंदम गुप्ता
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