17 वीं, 18वीं और 19वीं सदी का भारत... जो शायद हिंदोस्तान बन चुका था और यहां की तहजीब गंगा और जमुना के दोआब वाले उपजाऊ मैदानों से पहचानी जाने लगी थी. ये वो दौर था कि जब मुगलिया सल्तनत अब दिल्ली के आस-पास तक सिमट रहा था और सिर्फ बिजनेस करने के इरादे से आए अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी बनाकर सत्ता भी चलाने की कोशिशें शुरू कर चुके थे. खैर, ज्यादा वक्त नहीं लगा और इस कोशिश में अंग्रेज सफल रहे.
क्रांति के सुरों के बीच कैनवस के रंग
... तो ख्वातीन-ओ-हजरात, ये वो वक्त था कि एक तरफ मुल्क में इंकलाबी आवाज उभरने लगी थी तो इसके साथ ही कैनवस पर बिखर रहे थे, कुछ रंग. सफेद कागज पर फैल रहा था वॉटर कलर और भारतीय चित्रकला के ऐतिहासिक सफों में एक नई शैली-एक नई तरकीब का पन्ना जुड़ रहा था, जिसे आज हम कंपनी पेंटिंग्स, कंपनी कला, कंपनी शैली के नाम से जानते हैं. कला की भाषा में इसे कहीं-कहीं कंपानी कलम भी कहा जाता है. ये सभी एक ही हैं और एक ही शैली के नाम हैं.
दिल्ली आर्ट गैलरी में लगी है प्रदर्शनी
राजधानी दिल्ली के जनपथ में मौजूद दिल्ली आर्ट गैलरी (DAG) आजकल इस कंपनी कला की प्रदर्शनी का अड्डा बना हुई है, जहां 'ए ट्रेजरी ऑफ लाइफ: इंडियन कंपनी पेंटिंग्स, 1790–1835' को आप देख सकते हैं, इसकी बारीकी में 200 साल पहले के भारत को महसूस कर सकते हैं और समझ सकते हैं, जिंदगी के उस पहलू को जब अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है. यह प्रदर्शनी 18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में भारतीय कलाकारों द्वारा यूरोपीय संरक्षकों के लिए बनाई गई कलाकृतियों को समर्पित है. जनपथ के विंडसर प्लेस गैलरी में आयोजित यह प्रदर्शनी लगभग तीन महीने तक, 5 जुलाई तक चलेगी और यह सोमवार से शनिवार तक सुबह 11 बजे से शाम 7 बजे तक खुली रहेगी.
200 से अधिक कलाकृतियों का प्रदर्शन
'कंपनी पेंटिंग्स' पर केंद्रित इस प्रदर्शनी में गैलरी के अपने संग्रह से लगभग 200 कलाकृतियां प्रदर्शित हैं. इनमें 'एशियन फेयरी ब्लूबर्ड (इरेना पुएला)', 'ए ब्राउन स्क्विरल और ए ब्लैक स्क्विरल', 'जैकफ्रूट (आर्टोकार्पस हेटेरोफिलस)', 'चीनी का रोजा, आगरा', और 'पिलग्रिम्स एट ए रिवरबैंक' जैसी कृतियां शामिल हैं. यह प्रदर्शनी उन भारतीय कलाकारों को समर्पित है जिनमें से कई के नाम अज्ञात हैं और जिन्होंने अपनी कला को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी से जुड़े यूरोपीय कद्रदानों की मांग और उनकी आकंक्षा के अनुसार सामने रखा.
अनूठी शैली है कंपनी पेंटिंग
18वीं से 19वीं सदी के दौरान शुरू होने वाली 'कंपनी पेंटिंग' अपने आप में ही एक अलग और अनूठी शैली है. इस शैली में यूरोपीय, खासकर ब्रिटिश, प्रभाव और भारतीय कलाकारों की प्रतिभा का मिलाजुला असर दिखाई देता है. यूरोपियन कला प्रेमियों को पेंटिंग की भारतीय शैलियां उनके अपने अनुसार उनके अपने दर्शन में फिट नहीं होती थीं, लिहाजा उन्होंने इसमें कुछ पारंपरिक बदलाव किए. ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों के प्रभाव में भारतीयता में ही रची-बसी और यहीं विकसित हुई इस कला शैली का नाम 'कंपनी पेंटिंग' पड़ गया.
कल्पना से इतर हकीकत के रंग
कंपनी पेंटिंग की विषय-वस्तु, अक्सर काल्पनिक न होकर दस्तावेजी होती थी. ऐसे में भारतीय कलाकारों को पारंपरिक शैली से हटकर अधिक यथार्थवादी नजरिया भी अपनाना पड़ा. यूरोपीय लोग भारतीय जीवन के दृश्यों, त्योहारों, विभिन्न जातियों और व्यवसायों, साथ ही भारत के स्थापत्य, पेड़-पौधों और जानवरों को दर्शाने वाली पेंटिंग्स का ऑर्डर देते थे. ज्यादातर चित्र कागज पर बनाए जाते थे, लेकिन मुगल स्मारकों, मुगल शासकों और उनकी पत्नियों के चित्रों को हाथी दांत की छोटी पट्टिकाओं पर पेंट करने का भी रचलन था. पश्चिमी शैली के इस बढ़ते प्रभाव ने उत्तर भारत में लखनऊ, मुर्शिदाबाद और दिल्ली जैसे केंद्रों और दक्षिण भारत में मैसूर और तंजावुर जैसे स्थानों पर स्थानीय चित्रकला शैलियों के बाद के चरणों के साथ समन्वय स्थापित किया.
कंपनी पेंटिंग न केवल कला का एक हाइब्रिड रूप थी, बल्कि यह उस दौर की सांस्कृतिक और सामाजिक गतिशीलता का भी दस्तावेज है. यह शैली भारतीय और यूरोपीय सौंदर्यबोध के बीच एक सेतु के रूप में उभरी, जो आज भी कला प्रेमियों के लिए आकर्षण का केंद्र है.
भारतीय कला में बड़े बदलाव लाने वाला स्टेप है कंपनी पेंटिंग
कंपनी पेंटिंग्स को लेकर DAG के वरिष्ठ उपाध्यक्ष और क्यूरेटर गाइल्स टिलोटसन कहते हैं कि, "कंपनी पेंटिंग्स को फिर से खोजने की यात्रा थोड़ी धीमी रही है. ये कृतियां न तो पारंपरिक दरबारी चित्रों के रूप में थीं और न ही आधुनिक कला के रूप में, इसलिए इन्हें अक्सर नजरअंदाज किया गया. यह भारतीय कला का सबसे प्रभावी और इसमें बड़ा बदलाव लाने वाला स्टेप रहा है. उदाहरण के लिए, भारतीय चित्रों में वनस्पतियां हमेशा बैकग्राउंड में रही हैं, लेकिन यहां वनस्पतियां ही विषय बन गईं. मुगल कलाकार लोगों को चित्रित करते थे, लेकिन व्यक्तियों को उनके व्यवसाय के आधार पर नहीं दर्शाते थे, यह उन पर पश्चिमी प्रभाव था. यह एक आदर्श बदलाव था, जो आधुनिकता की ओर बढ़ा."
तीन सीरीज में बंटी है कलाकृतियां
कलाकृतियों को तीन अलग-अलग सिरीज में बांटा गया है. प्राकृतिक इतिहास, वास्तुकला, और भारतीय रीति-रिवाज और संस्कृति. इनमें वनस्पतियों और जीवों की वैज्ञानिक रूप से सटीक कलाकृतियां, भारतीय और यूरोपीय तकनीकों के मिश्रण से बने ऐतिहासिक स्मारकों के चित्र, और कारीगरों, व्यापारियों, धार्मिक व्यक्तियों और मूर्तियों के चित्र शामिल हैं, जो रोजमर्रा के भारतीय जीवन को सामने रखते हैं. इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि कैनवस पर समानांतर ही एक दूसरी दुनिया चल रही है. यह किसी पैरलल वर्ल्ड या मल्टीवर्स जैसा अहसास कराती है.
भौगोलिक विविधता भी आती है नजर
एक बात और कि इस प्रदर्शनी में भौगोलिक विविधता भी नजर आती है. प्राकृतिक इतिहास के चित्र खास तौर पर कोलकाता और मुर्शिदाबाद में बनाए गए, जबकि वास्तुशिल्प के चित्र ज्यादातर दिल्ली, आगरा, और कुछ मुर्शिदाबाद और दक्षिण भारत से हैं. भारतीय रीति-रिवाजों और अलग-अलग कार्य करने वाले लोगों के चित्र विशेष रूप से दक्षिण भारत में बनाए गए हैं.
गुमनाम कलाकारों के बीच कई 'नामी हस्ताक्षर' भी मौजूद
यहां कई कलाकार गुमनाम हैं, वहीं सीता राम, सेवक राम, और चुन्नी लाल जैसे प्रसिद्ध कंपनी पेंटर्स की पेंटिंग भी शामिल हैं. 'ए ट्रेजरी ऑफ लाइफ' ने कंपनी पेंटिंग्स को भारत की कलात्मक यात्रा के एक जरूरी हिस्से के तौर फिर से सामने रखा है और उसे जीवंत करने की कोशिश की है.