लोकसभा में पीएम मोदी वंदे मातरम् पर चर्चा कर रहे हैं. उन्होंने इस गीत के महत्व को रेखांकित किया और इसे भारत के सभी निवासियों के भीतर बसने वाली देशभक्ति की भावना बताया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सदन को संबोधित करते हुए कहा:“जिस मंत्र ने, जिस जयघोष ने देश के आजादी के आंदोलन को ऊर्जा और प्रेरणा दी थी, त्याग और तपस्या का मार्ग दिखाया था, उस वंदे मातरम् का पुण्य स्मरण करना इस सदन में हम सबका बहुत बड़ा सौभाग्य है.' इस दौरान उन्होंने यह भी बताया कि कब इस पर अंग्रेजों ने बैन लगाया और कैसे इसके बावजूद यह राष्ट्रीय भावना का प्रतीक बन गया.
जिस गीत ने हिला दिया था ब्रिटिश साम्राज्य
वंदे मातरम् गीत ने आजादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. कोई क्रांतिकारी देश के किसी कोने में वंदे मातरम बोलता था तो कलकत्ता से दिल्ली तक अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिल जाती थीं. बंगाल की क्रांतिकारी मातंगिनी हाजरा, गरम दल के सभी क्रांतिकारी और यहां तक कि नरम दल के नेता भी 'वंदे मातरम्' का उद्घोष सार्वजनिक तौर पर करते थे. अंग्रेज इससे घबराते थे, इसलिए उन्होंने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था.
पीआईबी के एक नोट से इसकी पुष्टि होती है कि अंग्रेजों ने साल 1906 के अप्रैल में नए बने पूर्वी बंगाल प्रांत के बारीसाल में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के दौरान, वंदे मातरम के सार्वजनिक नारे लगाने पर रोक लगा दी थी. वह वंदे मातरम् से इतना घबराए कि उन्होंने सम्मेलन पर ही रोक लगा दी. आदेश की अवहेलना करते हुए, प्रतिनिधियों ने नारा लगाना जारी रखा और उन्हें पुलिस के भारी दमन का सामना मकरना पड़ा. इस तरह सार्वजनिक तौर पर वंदे मातरम् पर बैन की बात पहली बार सामने आती है.
बंगाल का विभाजन, स्वदेशी आंदोलन और पांच-पांच रुपये का जुर्माना
1905 में बंगाल विभाजन के विरोध और स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत के दौरान वंदे मातरम् जनता की अवाज बन गया. उसी साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपने वाराणसी अधिवेशन में 'वंदे मातरम' गीत सभी आयोजनों, सभा और सम्मेलनों में गाया. 20 मई 1906 को बारीसाल ( अब बांग्लादेश में है) में वंद मातरम् जुलूस निकाला, जिसमें 10 हजार से ज्यादा सड़कों पर उतरे थे। इसमें हिंदू और मुस्लिम समेत सभी धर्म और जातियों के लोगों ने वंदे मातरम् के झंडे हाथ में लेकर सड़कों पर मार्च किया था.
रंगपुर के एक स्कूल में जब बच्चों ने यह गीत गाया तो अंग्रेजी सरकार ने 200 छात्रों पर 5-5 रुपये का जुर्माना सिर्फ इसलिए लगा दिया कि उन्होंने वंदे मातरम् कहा था. इसके बाद ब्रिटिश हुक्मरानों ने कई स्कूलों में वंदे मातरम् गाने पर पाबंदी लगा दी थी. इतना ही नहीं शैक्षणिक संस्थानों को मान्यता रद्द करने की धमकी तक दे दी थी. उस समय छात्रों ने कक्षाएं छोड़ दीं, जुलूस निकाले और पर यह गीत गाना नहीं छोड़ा. कई जगहों पर तो पुलिस ने छात्रों को पीटा और जेल में डाला दिया.
कांग्रेस में पहली बार कब गाया गया 'वंदे मातरम्'
हालांकि वंदे मातरम् को पहली बार सामूहिक तौर पर कांग्रेस के 1896 के अधिवेशन में गाया गया था, जिसे गाने वाले खुद रवींद्र नाथ टैगोर थे. हालांकि, स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आई तो वन्दे मातरम् के स्थान पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे व गाए गए गीत जन गण मन को वरीयता दी गई. इसकी वजह यह बताई जाती है कि वंदे मातरम् के बाद के चार पैराग्राफ मातृभूमि की देवी दुर्गा की स्तुति के रूप में हैं.
जिससे यह सिर्फ शाक्त परंपरा प्रधान एक गीत में बदल जाता है. गीत की यह एक खूबी तो है, लेकिन फिर वह हिमालय से सागर तट तक फैले पूरी भारतीय भावना को समेटने में कमजोर साबित होता है और सिर्फ बंगाल तक सीमित रह जाता है. इस गीत में जिन प्रतीकों और जिन दृश्यों का ज़िक्र है वे सब बंगाल की धरती से ही संबंधित हैं.
देश की सामूहिक भावना से क्यों नहीं जुड़ पाता 'वंदे मातरम्'
इसके अलावा यह भी कहा गया कि यह देश में मुसलमानों और उनके अलावा अन्य पंथों को मानने वालों से भी अलग हो जाता है. जो इस एक जैसी भावना से नहीं जुड़ पाते हैं. इन आपत्तियों के मद्देनजर साल 1937 में कांग्रेस ने इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पद सिर्फ हिन्दू देवी-देवताओं तक सीमित रह जाते हैं. इसलिये फैसला लिया गया कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप में प्रयुक्त किया जाएगा.
बीबीसी की एक रिपोर्ट में दर्ज है कि, 'जब आज़ाद भारत का नया संविधान लिखा जा रहा था तब वंदे मातरम् को न राष्ट्रगान के रूप में अपनाया गया और न ही उसे राष्ट्रगीत का दर्जा मिला. लेकिन, संविधान सभा के अध्यक्ष और भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने 24 जनवरी 1950 को घोषणा की कि वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया जा रहा है.'
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य
'शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है. बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसे जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले. मैं आशा करता हूं कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा. (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, 24-1-1950)
एक और तथ्य
एक तथ्य यह भी है राष्ट्रगीत का दर्जा बंग दर्शन में प्रकाशित दो पैराग्राफ वाले पहले लिखे गए वंदे मातरम् गीत को मिला था. आनंद मठ उपन्यास में शामिल वंदे मातरम् को नहीं. हालांकि इस तथ्य को मजबूती इसलिए भी नहीं मिल पाती क्योंकि वंदे मातरम् की रचना एक ही गीत है.
1954 में बनी आनंद मठ पर फिल्म
साल 1954 में आनंद मठ उपन्यास पर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनी थी. प्रख्यात अभिनेता पृथ्वीराज कपूर इसमें मुख्य भूमिका में नजर आए थे. फिल्म संन्यासी विद्रोह, अंग्रेजों के अत्याचार और बंगाल की भूमि से निकली क्रांति को सामने रखती है और इस फिल्म में भी वंदे मातरम् गीत को शामिल किया गया था.
टूटे टुकड़े जो गुमनामी के बावजूद रहे जिंदा
वंदे मातरम् को दो पैराग्राफ के रूप में राष्ट्रगीत के तौर पर शामिल किया गया, और बाकी अन्य चार पैराग्राफ जो देवी दुर्गा के स्वरूप में भारत माता की स्तुति किया करते थे उन्हें भुला दिया गया. लेकिन यहां देशभर में संचालित सरस्वती शिशु मंदिर स्कूलों का जिक्र करना जरूरी हो जाता है, जिन्होंने इस गीत को अपने मूल स्वरूप में जीवित रखा है. शिशु मंदिर परंपरा के सभी स्कूलों में छुट्टी की घंटी बजते ही विद्यार्थी घर को नहीं भाग निकलते हैं, बल्कि वे एक साथ एक मैदान में इकट्ठा होते हैं और यहां एक साथ गाया जाता है 'वंदे मातरम्' जिसमें इसके सभी पैराग्राफ शामिल होते हैं. इस तरह यह गीत आज भी अपने संपूर्ण स्वरूप में जीवित है.