प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शुक्रवार को गोवा के श्री संस्थान गोकर्ण पर्तगाली जीवोत्तम मठ पहुंचे. पीएम मोदी यहां मठ के 550वें वर्ष के उत्सव ‘सार्ध पंचशतामनोत्सव’ के अवसर पर दर्शन के लिए पहुंचे. यह मठ दक्षिण गोवा के कैनाकोना में स्थित है. यहां पर उन्होंने प्रभु श्री राम की 77 फीट ऊंची कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया.
श्री संस्थान गोकर्ण पर्तगाली जीवोत्तम मठ, पहला गौड़ सारस्वत ब्राह्मण वैष्णव मठ है. यह द्वैत संप्रदाय का अनुसरण करता है, जिसकी स्थापना जगद्गुरु माधवाचार्य ने 13वीं शताब्दी में की थी. इस मठ का मुख्यालय कुशावती नदी के तट पर, दक्षिण गोवा के एक छोटे से कस्बे पर्तगाली में स्थित है.
क्या है मठ का इतिहास
इस मठ का इतिहास स्थापना से लेकर स्थानांतरण के बीच की तमाम घटनाओं से भरा हुआ है. इसका ऐतिहासिक विवरण बड़ा ही रोचक है और लगभग 1510 ईस्वी से शुरू हो जाता है. सबसे पहले बात करते हैं गोकर्ण तीर्थ के महत्व पर.
कर्नाटक को गोकर्ण तीर्थ और गोवा के गोकर्ण मठ में अंतर
गोवा के पर्तगाली कस्बे में मौजूद गोकर्ण मठ कुशावती नदी के तट पर मौजूद है. कुशावती नदी का महत्व गंगा के समान ही है और इसके किनारे पाई जाने वाली लंबी नोकदार कुशा घास इसे पवित्र बनाती है. सनातन में कुश घास का बहुत महत्व है और इस घास का स्पर्श पितृ को मुक्ति प्रदान करता है. हालांकि यहां से दूर कर्नाटक की सीमा में ही गोकर्ण तीर्थ दक्षिण की काशी कहलाता है और इसे भी अविमुक्त क्षेत्र कहते हैं. इसलिए काशी से दूर यह क्षेत्र दक्षिण के लिए पितृ मुक्ति का स्थल बन जाता है.
गोकर्ण तीर्थ क्षेत्र में ही अघनाशिनी नदी बहती है, जो पवित्र मानी जाती है. शिवजी के एक स्वरूप का प्राकट्य गाय के कान से हुआ इसलिए इस तीर्थ का नाम गोकर्ण पड़ा. एक कथा ऐसी भी है कि गाय के कान में वेदमंत्र कहे गए और गाय ने ओम का उच्चारण किया. इससे सभी आत्माओं को मुक्ति मिली और यह स्थान गोकर्ण कहलाया.
यहां यह स्पष्ट कर देना जरूरी हो जाता है गोवा स्थित श्री संस्थान गोकर्ण पर्तगाली जीवोत्तम मठ और कर्नाटक में मौजूद गोकर्ण तीर्थ दोनों ही अलग-अलग हैं. लेकिन समानता इतनी है कि पवित्र स्थल और पवित्र नदियों के तट पर होने के कारण दोनों ही अविमुक्त क्षेत्र या मुक्ति तीर्थ के तौर जाने जाते हैं.
अब आते हैं, श्री जीवोत्तम तीर्थ की मठ परंपरा पर...
श्री जीवोत्तम तीर्थ मठ के तीसरे स्वामी, हिमाचल की यात्रा के लिए निकले थे. वह गोकर्ण क्षेत्र का दर्शन करते हुए भटकल स्थित वडेरा मठ पहुंचे. पहले वडेरा मठ के अधिकार में कोटितीर्थ के पास एक आवास था. इस दौरान वह उडुपी के अष्टमठों में से एक सोड़े मठ, (जिसे श्री सोडे वदिराज मठ के नाम से भी जाना जाता है) पहुंचे और वहां निवास किया.
वैष्णव परंपरा से जुड़ी 'माधवा साखा' वेबसाइट पर दर्ज इतिहास के अनुसार, इसके बाद यहां स्वामी विठोबा की गंडकी नदी से प्राप्त शिला की प्रतिमा स्थापित की गई और इसका नाम ‘भुविजय रामचंद्र’ रखा गया. इसी के साथ गोकर्ण में मठ की एक नई शाखा स्थापित हुई. उस समय जब न रेल थीं और न बसें, आम लोग जो काशी यात्रा नहीं कर सकते थे, वे पितृ-कर्म और क्षेत्र-दर्शन के लिए दक्षिण काशी कहलाने वाले गोकर्ण ही जाते थे. जैसे-जैसे मठ की ख्याति बढ़ी, श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ती गई. पुरानी जगह कम पड़ने लगी, इसलिए अधिक विस्तृत भूमि लेकर एक नया, विशाल मठ निर्माण किया गया.
सारस्वत ब्राह्मण परंपरा का मठ
श्री पलिमारु मठ के श्री जगतभूषण तीर्थरु के शिष्य, श्री रामचंद्र तीर्थरु एक बार बद्रीनाथ की तीर्थयात्रा पर गए. यात्रा के दौरान उनकी तबीयत बहुत खराब हो गई. इस दौरान उन्होंने मठ की गुरु परंपरा को टूटने से बचाने के लिए अपने साथ आए एक योग्य सारस्वत ब्रह्मचारी शिष्य को चुना और बद्रीनाथ में ही उसे दीक्षा देकर श्री नारायण तीर्थरु नाम देकर उत्तराधिकारी बनाया.
श्री नारायण तीर्थरु ने गुरु के आदेशानुसार यात्रा जारी रखी. वे अनेक धार्मिक और ऐतिहासिक स्थलों पर गए, तप किया और तत्त्ववाद दर्शन का उपदेश देते रहे. इस दौरान काशी नरेश की भेंटस्वरूप उन्होंने काशी में मठ का नया भवन भी स्थापित किया. इस बीच, श्री रामचंद्र तीर्थरु स्वास्थ्य लाभ पाकर उडुपी लौट आए.जब श्री नारायण तीर्थरु वहां पहुंचे, तो अपने गुरु को स्वस्थ देखकर बहुत प्रसन्न हुए.
तभी कुछ द्रविड़ ब्राह्मण भक्तों ने श्री रामचंद्र तीर्थरु से आग्रह किया कि वे श्री नारायण तीर्थरु को दिए गए उत्तराधिकार अधिकार को वापस लेकर किसी और शिष्य को उत्तराधिकारी बनाएं.
परिस्थितियों को देखते हुए, श्री रामचंद्र तीर्थरु ने एक अन्य योग्य शिष्य श्री विद्यानिधि तीर्थरु को पलिमारु मठ का उत्तराधिकारी नियुक्त किया, साथ ही उन्होंने एक नया मठ स्थापित कर श्री नारायण तीर्थरु को उसका पहला पीठाधीश बनाया. उन्होंने उन्हें सारस्वत ब्राह्मण समुदाय को संगठित करने और तत्त्ववाद के साथ श्री मध्वाचार्य के सिद्धांतों का प्रचार करने का निर्देश दिया.
इसके बाद श्री नारायण तीर्थरु भटकल (कनारा जिला) आए और यहां एक मठ की स्थापना की. यही आगे चलकर गोकर्ण मठ कहलाया. बाद में जब श्रीजीवोत्तम तीर्थरु मठ के पीठाधीश बने, तो यह मठ जीवोत्तम मठ के नाम से भी प्रसिद्ध हुआ.
भटकल का व्यापारिक इतिहास
भटकल पश्चिमी तट का एक प्रमुख बंदरगाह था, जहां विजयनगर काल से ही विदेशों से माल आयात होता था और चावल, चीनी तथा मसालों जैसी वस्तुएं निर्यात की जाती थीं. ब्रिटिश, पुर्तगाली और डच व्यापारी यहाँ सक्रिय थे. पुर्तगालियों ने भटकल में अपनी बस्ती स्थापित की थी और गोवा के तट तक वे स्थानीय राजाओं से चावल और चीनी के रूप में कर (रॉयल्टी) वसूलते थे.
1510 से स्थानीय मुस्लिम व्यापारियों और पुर्तगाली जहाजरों के बीच व्यापारिक विवाद होने लगे. 1516 में हुए एक झगड़े में स्थानीय व्यापारियों ने 24 पुर्तगालियों की हत्या कर दी और लगभग 10,000 पाउंड मूल्य का माल लूट लिया.
1518 में जब भटकल के अधिकारी ने पुर्तगालियों को कर (कप्पा) देने से इनकार किया, तो पुर्तगाली तीन जहाज़ों के साथ आए और भटकल आने-जाने वाले व्यापारिक जहाज़ों को रोक लिया. बाद में हुए समझौते के बाद अधिकारी ने पूर्व की तरह कर देना शुरू किया, और यह सिलसिला अगले 20 वर्षों तक चलता रहा.
1542 में जब भटकल की रानी ने कर देने से इनकार कर दिया, तब गोवा के गवर्नर मराथिम अफोंसो डिसूज़ा ने दो जहाज़ों और 1400 सैनिकों के साथ भटकल पर हमला कर बंदरगाह पर कब्ज़ा कर लिया. पुर्तगालियों ने नगर में घुसकर घरों और दुकानों में आग लगा दी तथा बहुत से निर्दोष लोगों की हत्या कर दी. इस अत्याचार से स्थानीय जनसमुदाय में भय और असुरक्षा फैली.
मठ का मुख्यालय गोकर्ण स्थानांतरित
पुर्तगाली व्यापारियों द्वारा भटकल में की गई अराजकता, लूटपाट और निर्दोषों की हत्या को देखते हुए, श्री जीवोत्तम तीर्थ स्वामीजी ने शांत और पवित्र गोकर्ण को केंद्रीय मठ बनाने का निर्णय लिया. भटकल स्थित मठ को गोकर्ण स्थानांतरित कर दिया गया, ताकि वहाँ आने वाले भक्तों और शिष्यों को सुरक्षित और शांत वातावरण मिल सके.
जगद्गुरु माधवाचार्य का द्वैत दर्शन
13वीं शताब्दी में जगद्गुरु माधवाचार्य ने द्वैत दर्शन की स्थापना की थी और यह मठ इसी दर्शन और सिद्धांत का पालन करता है. इसके अनुसार ईश्वर (विष्णु) और व्यक्तिगत आत्माएं (जीव) अलग और शाश्वत रूप से भिन्न हैं. यह दर्शन तीन मुख्य भेदों पर जोर देता है, ईश्वर और आत्मा, ईश्वर और जगत, तथा सभी आत्माओं और भौतिक वस्तुओं के बीच का भेद. यह अद्वैत वेदांत के विपरीत है, जो इन सबको एक मानता है.
द्वैत दर्शन कहता है कि ईश्वर यानी विष्णु स्वरूप एक स्वतंत्र और परम सत्ता है, जबकि आत्माएं उससे अलग और ईश्वर पर निर्भर हैं. ईश्वर, ब्रह्मांड और उसकी सभी वस्तुओं से भिन्न है. आत्मा और भौतिक जगत भी एक दूसरे से भिन्न हैं. माधवाचार्य ने वास्तविकता के पंच विभाजन पर जोर दिया, जिसमें ईश्वर, आत्मा, भौतिक वस्तुएं, समय और पदार्थ शामिल हैं.
उन्होंने 'माया' के सिद्धांत को खारिज कर दिया, जो मानता था कि भौतिक दुनिया भ्रामक है. माधवाचार्य के अनुसार, भले ही चीजें बदलती रहती हैं, फिर भी वे वास्तविक हैं.
उनके अनुसार, मोक्ष या मुक्ति केवल भगवान विष्णु की कृपा से ही प्राप्त की जा सकती है. उनका दर्शन पूरी तरह से आस्तिक है, जिसमें ज्ञान, कर्म और भक्ति पर जोर दिया गया.