भारत की खासियत ये है कि जिस तरीके से यहां पर कुछ 100 किलोमीटर चलने पर आबोहवा बदल जाती है, मिट्टी की रंगत बदल जाती है और खान-पान बदल जाता है, ठीक वैसे ही बदल जाते हैं त्योहार और संस्कृति. हालांकि हर त्योहार और हर संस्कृति के पीछे का मर्म एक ही होता है, वह है अच्छाई और सच्चाई की जीत, अंधेरे का खात्मा, बुराई का विनाश और हर ओर प्रकाश...
अब जैसे अभी कुछ ही दिन पहले हम सब दिवाली मना चुके हैं, लक्ष्मी-गणेश की पूजा कर चुके हैं और धन-संपदा की कामना करने के साथ दीप जलाकर प्रकाश का पर्व मनाया है, लेकिन मैदान से ऊपर की ओर बढ़कर उत्तराखंड के पर्वतों में दिवाली की अलग ही मान्यता है.
क्या है इगास बुग्याल?
पहाड़ों में दिवाली कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाई जाती है. इसे बूढ़ी दिवाली कहते हैं. वहीं पहाड़ों में इसे इगास बग्वाल के नाम से जाना जाता है. इगास का अर्थ है ग्यारह, या एकादशी. इस तरह इगास बग्वाल, कार्तिक एकादशी का अर्थ लिए हुए है. उत्तराखंड की त्योहार परंपरा बद्रीनाथ से जुड़ी हुई है और जब एकादशी की तिथि को भगवान विष्णु जागते हैं और संसार का कार्यभार एक बार फिर से अपने हाथ में लेते हैं तब देव प्रबोधिनी एकादशी मनाई जाती है. इसी परंपरा से जुड़ा हुआ है इगास बग्वाल त्योहार. इसे पहड़ों में बूढ़ी दिवाली के अलावा हरिबोधिनी एकादशी के नाम से भी जाना जाता है.
क्या है परंपरा, कैसे मनाते हैं दिवाली
इस दिन सुबह से ढोल और दमाऊं (एक पारंपरिक वाद्य) की आवाज गूंजने लगती है, जिसे देवता को जगाने का माध्यम बताया जाता है. वहीं घरों में अहिरसे और पूए व्यंजन के तौर पर बनाए जाते हैं. इनका भोग देवताओं को लगता है और फिर महिला-पुरुष अपनी पहाड़ी पारंपरिक वेश-भूषा में तैयार होते हैं. इन तैयारियों में शाम घिर जाती है और फिर सजता है रोशनी का पर्व बूढ़ी दिवाली. जब चीड़ की मशालें जलाकर युवा एक मैदानी भाग में जुटते हैं और नृत्य करते हैं वहीं, घरों में, चौक-चबारों में और हर कोने-कोने में दीपक जलाए जाते हैं. देवताओं के स्थानों को भी दीप मालिकाओं से प्रकाशित किया जाता है.
श्रीराम से कैसे जुड़ जाता है इगास बुग्याल
यह उत्सव त्रेतायुग और श्रीराम के नाम से भी जुड़ता दिखाई देता है. माना जाता है कि जब श्रीराम रावण का वध करके 14 वर्षों बाद अयोध्या लौटे तो इस खुशी में अयोध्या वासियों ने चारों तरफ दीप ही दीप जलाकर कार्तिक अमावस्या की अंधेरी रात को भी उजाले में बदल दिया. साकेत धाम में मनाया गया यह उत्सव धीरे-धीरे अन्य इलाकों में भी फैल गया, लेकिन उस समय पहाड़ जो कि मैदानों और तटीय इलाकों से बेहद अलग और दूर थे और वहां तक किसी सूचना का जल्दी पहुंचना आसान नहीं था तो ऐसे में पहाड़ी लोगों को ये पता लगने में 11 दिन लग गए कि श्रीराम अयोध्या लौट आए हैं.
समूह में एकजुट होकर मनाया जाता है त्योहार
जब पहाड़ के क्षेत्र में ये पता चला की श्रीराम आ गए हैं तब उन्होंने भी खुशी में दीप जलाए और पूरे पहाड़ को रोशन कर दिया. हालांकि जिस दिन उन्होंने दिवाली मनाई थी, वह देवोत्थान एकादशी का दिन था जो कि पहाड़ में पहले ही एक उत्सव के तौर पर प्रसिद्ध था. इसलिए इस दिन की खुशी दोगुनी हो गई और पहाड़ी इसे आज भी बूढ़ी दिवाली के तौर पर मनाते हैं. इस दिन घरों के द्वार पर ऐपन बनाए जाते हैं, मंदिरों के गर्भगृह और प्रांगण को भी ऐपन से सजाया जाता है और ऐपन के कोनों पर दीप रखे जाते हैं. यह त्योहार राज्य की सांस्कृतिक विरासत को दर्शाता है, जो साझा परंपराओं और उत्सवों के माध्यम से समुदायों को एकजुट करता है.