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गोधन बाबा, गिरिराज महाराज या गिरधारी श्रीकृष्ण... गोवर्धन के कितने स्वरूप

गोवर्धन पूजा कार्तिक शुक्ल प्रथमा को मनाया जाता है, जिसमें गोबर से पर्वताकार स्वरूप बनाए जाते हैं. यह पर्व श्रीकृष्ण की गिरधारी छवि से जुड़ा है, जो इंद्र के प्रकोप से ब्रजवासियों की रक्षा करते हैं. विभिन्न क्षेत्रों में पूजा की विधि भिन्न है, जैसे मथुरा में गोवर्धन पर्वत की प्रतिकृति बनाना.

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गोवर्धन गिरधारी के रूप में गोबर से बनाई गई श्रीकृष्ण की छवि
गोवर्धन गिरधारी के रूप में गोबर से बनाई गई श्रीकृष्ण की छवि

दिवाली यानी कार्तिक अमावस्या के अगले दिन कार्तिक शुक्ल प्रथमा के दिन मनाया जाता है गोवर्धन पूजा का त्योहार. इसेा परुआ, परवा और पड़वा भी कहा जाता है. माना जाता है कि इस दिन लेन-देन नहीं करना चाहिए और धन खर्च करने से भी बचना चाहिए. परवा के दिन धन खर्च करने से साल भर खर्च की स्थिति बनी ही रहती है. ये परवा के दिन की मान्यता है, लेकिन इस मान्यता को और भी खास बनाती है गोवर्धन पूजा की मान्यता, जिसमें गाय के ताजे गोबर के इस्तेमाल से गोवर्धन स्वरूप बनाए जाते हैं.

गोवर्धन पर्वत की पूजा का दिन
गोवर्धन पूजा में गोबर से बनाए जाने वाले स्वरूप भी अलग-अलग इलाकों में अलग-अलग तरीके के हैं. इन्हें कहीं साक्षात श्रीकृष्ण माना जाता है. कहीं गिरिराज कहकर पुकारा जाता है, जिसमें यह नाम श्रीकृष्ण का ही एक पर्याय लगता है, लेकिन सीधे तौर पर उनका नाम नहीं है. यह गोवर्धन पर्वत का नाम है. कहीं पर गोबर के बनाए गए स्वरूप को गोधन बाबा कहा जाता है. इनके बनाए जाने की संख्या भी अलग-अलग होती है.

श्रीकृष्ण की गिरधारी छवि से जुड़ा पर्व
गोवर्धन पूजा का पर्व श्रीकृष्ण की गिरधारी छवि से जुड़ा है, जो इंद्र के प्रकोप से ब्रजवासियों की रक्षा करते हैं. विभिन्न क्षेत्रों में पूजा की विधि भिन्न है, जैसे मथुरा में गोवर्धन पर्वत की प्रतिकृति बनाना. राजस्थान के नाथ संप्रदाय ने गिरधारी स्वरूप को लोकप्रिय बनाया. उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में पांच देवताओं के स्वरूप गोधन बाबा के रूप में बनाए जाते हैं. यह पूजा प्रकृति, परिवार और कृषि से जुड़ी मान्यताओं को दर्शाती है और मानवता के सह अस्तित्व का संदेश देती है.

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क्या है सबसे प्राचीन परंपरा?
गोवर्धन बनाने की सबसे प्राचीन परंपरा कुछ ऐसी है कि, बहुत सारे गोबर को एक जगह इकट्ठा करके उसे पर्वत का स्वरूप दे दिया जाता है. इसमें कलाकारी करते हुए आंखे, होंठ और नाक भी बनाई जाती है, जिससे पर्वताकार आकृति पर एक चेहरा उभार ले लेता है. इस चेहरे को ही देवता का स्वरूप माना जाता है, और फिर इस पर्वत को हरी पत्तीडार डंडियों, फूलों और अनाज की बालियों से सजाया जाता है. गोवर्धन का यह सबसे प्राचीन स्वरूप है, जो श्रीकृष्ण का ही सुझाया हुआ लगता है, क्योंकि उन्होंने गोवर्धन पर्वत, जंगल, पेड़-पौधों की पूजा के लिए कहा था. 

Govardhan Puja
गोबर से गोवर्धन पर्वत का स्वरूप बनाकर उसे हरे पत्तों वाली टहनी से सजाया जाता है. यह प्रकृति पूजा का पारंपरिक तरीका है. मथुरा से आगरा तक और राजस्थान में भी यह परंपरा नजर आती है.

गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाना
तो ब्रज की यह परंपरा जब सदियों के विकास में धीरे-धीरे पलायन के जरिए बाहर निकले तो अपनी प्राचीन स्मृति को बनाए रखने के लिए उसने समय के साथ ऐसा स्वरूप लिया. आज भी गोवर्धन पूजा के दिन मथुरा के आस-पास के ग्रामीण इलाकों में गोबर के गोवर्धन पर्वत स्वरूप की आकृतियों का निर्माण होते मिल जाता है. जिसमें मथुरा में स्थित गोवर्धन पर्वत की ही प्रतिकृति बनाई जाती है. 

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गिरधारी स्वरूप... जहां श्रीकृष्ण ने पर्वत को थाम रखा है

गोवर्धन पूजा का गिरधारी स्वरूप सीधे तौर पर श्रीकृष्ण से जुड़ा हुआ है. बल्कि यह उसी पौराणिक घटना की स्मृति है, जब श्रीकृष्ण ने इंद्र के प्रकोप से ब्रज वासियों को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत को उठा लिया था. गोवर्धन के गिरधारी स्वरूप में गोबर से उनकी प्रतिकृति बनाई जाती है, जिसमें श्रीकृष्ण की पर्वत उठाए हुए और वंशी बजाते हुए अद्भुत छवि नजर आती है. 

राजस्थान के उदयपुर से निकले नाथ संप्रदाय की पूजा पद्धति ने श्रीकृष्ण की इस छवि को बहुत प्रचारित किया है. नाथ संप्रदाय के ईष्ट गिरधारी जी महाराज ही हैं, जिन्हें गिरिराज भी कहा जाता है. गोवर्धन पर्वत को भी गिरिराज कहा जाता है और श्रीकृष्ण को गोवर्धन पर्वत बहुत प्यारे हैं तो इसलिए उन्हें भी गिरिराज कहा जाता है. नाथ संप्रदाय के भक्ति पदों में इसका खूब जिक्र हुआ है.

एक लोकभजन की बानगी देखिए, जिसमें श्रीकृष्ण को गिरिराज कहते हुए उन्हें गिरिराज धारण करने वाला भी कहा जा रहा है 

गिरिराज धरण मैं तेरी शरण, मेरे सब संताप मिटा देना,
नैय्या मेरी मंझधार पड़ी , मेरा बेड़ा पार लगा देना...

करमों पर ध्यान लगाओगे, मेरे दोष ना तुम गिन पाओगे,
मैं जैसा भी हूं तेरा हूं ,वैसा ही मुझे अपना लेना,
गिरिराज धरण मैं तेरी शरण मेरे सब संताप मिटा देना...

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श्रीकृष्ण को क्यों प्यारे हैं गोवर्धन पर्वत?

एक लोककथा में ऐसा जिक्र आता है कि गोवर्धन पर्वत त्रेतायुग की शुरुआत से ही भगवान का भक्त था. हनुमानजी उसे पुल बनाने के लिए सागर तट पर ला रहे थे. गोवर्धन भी खुश था कि वह अपने प्रभु से मिल सकेगा, लेकिन जब तक वह मथुरा के आकाश में पहुंचे तब तक पुल बनाया जा चुका था. हनुमान जी गोवर्धन को मथुरा की सीमा पर रखकर जाने लगे, तब गोवर्धन निराश हो गया. 

उसकी निराशा देखकर हनुमान जी ने उसे प्रभु से मिलने का आश्वासन दिया. तब श्रीराम ने गोवर्धन को वरदान दिया कि. मेरे अगले अवतार में मैं गोवर्धन पर्वत के ही नाम से जाना जाऊंगा. गोवर्धन मेरे बाल स्वरूप के लिए खेल का मैदान बनेगा. मेरी लीला में सहभागी होगा. मैं हर दिन उसके पास उससे मिलने जाऊंगा. 
श्रीराम ने अपने इस वरदान का मान श्रीकृष्ण अवतार में रखा और गोवर्धन पर्वत के गिरिराज नाम से आज भी पहचाने जाते हैं.
 
इसलिए गोवर्धन पूजा के दिन श्रीकृष्ण की गिरधारी स्वरूप की छवि गोबर से बनाई जाती है. उन्हें खीलों से सजाया जाता है. समय के साथ इसमें बदलाव भी आए हैं और गिरधारी स्वरूप को रंगोली की ही तरह रंगों से सजाकर बनाया जाने लगा है.

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श्रीकृष्ण और बलराम की छवि और गोवर्धन पूजा

गोवर्धन पूजा के दिन गोवर्धन स्वरूप में श्रीकृष्ण और बलराम की छवि भी बनाई जाती है. गुजरात की गोवर्धन परंपरा में ऐसा देखने को मिलता है, जहां श्रीकृष्ण द्वारिकाधीष रूप में पूजे जाते हैं तो वहीं बलराम संरक्षक देवता हैं. श्रीकृ्ष्ण के हाथ में गोवर्धन धारण करते दिखाया जाता है और बलराम के हाथ में एक छड़ी होती है. यह छड़ी धर्मदंड का स्वरूप मानी जाती है. जमीन पर गोबर से श्रीकृष्ण और बलराम की संयुक्त छवि बनाई जाती है, जिसमें इसे बनाने में महाराष्ट्र की वारली चित्रकला का भी एक रूप दिखाई देता है.

वारली चित्रकला सरल रेखाओं और बिंदुओं के गठजोड़ से बनने वाली कला है, जिसमें मात्र बिंदु और रेखाओं से मानव आकृति तैयार की जाती है. श्रीकृष्ण और बलराम को बनाने में भी इसी कला की टेक्निक का इस्तेमाल किया जाता है. गोबर के गोल आकार से चेहरा, चौड़े पाथ से शरीर और पतली रेखाओं से हाथ-पैर बनाए जाते हैं. 

Govardhan Puja
ऐसे भी बनते हैं गोवर्धन, गोबर से बनाई गई मानव आकृति, इन्हें श्रीकृष्ण के स्वरूप में उकेरा जाता है

पांच भाइयों के स्वरूप में गोवर्धन यानी गोधन बाबा
उत्तर प्रदेश के कुछ ग्रामीण इलाकों (कानपुर देहात से लेकर पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्से) में गोवर्धन पूजा पूरी तरह संयुक्त परिवार की संकल्पना को साकार करती हैं. यहां गोवर्धन के स्वरूप में पांच देवता बिठाए जाते हैं, जिन्हें संयुक्त रूप से गोधन बाबा कहते हैं. गोधन बाबा बिठाने की यह परंपरा विशुद्ध रूप से खेती-किसानी और परिवार के संगठन से जुड़ी है. 

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गोबर से एक चौहद्दी (चारदिवारी) बनाई जाती है. उसके भीतर पांच देवता जो आपस में भाई ही हैं, उन्हें स्थापित किया जाता है. सभी पंच देवताओं के गोबर के गोले से ही बनाया जाता है. इनके शरीर का निर्माण एक के ऊपर एक गोबर के पांच गोले रखकर होते हैं. इस तरह पांच-पांच गोलों से इनके शरीर बनते हैं. फिर छठवें स्तर के तौर पर चुरखी-चुटिया बनाई जाता है और कास के फूलों का ताज पहनाया जाता है, जो कास के फूलों से लदी सींक ही होती है. 

हनुमानजी भी गोधन परंपरा में हैं शामिल
कहीं-कहीं तो इन्हें सीधे रामकथा से जोड़ा जाता है. जहां मानते हैं कि राम जी अयोध्या लौट आए थे तो सब भाइयों ने मिल बैठकर खूब राजी खुशी से एक दूसरे का हालचाल लिया साथ भोजन किया और स्नेह से रहने लगे. इसमें चार तो राम परिवार के भाई हैं, पांचवें हनुमानजी हैं, जिन्हें श्रीराम ने भाई से भी बढ़कर मान दिया था. इसलिए हनुमान जी भी साथ ही बैठाए जाते हैं. 
मान्यता है कि हनुमान जी ही रामजी के आने का संदेश लेकर आए थे इसलिए हनुमान जी का गोधन दिवाली की ही रात को जब दिए जल रहे होते हैं तो चुपके से बना दिया जाता है. इस तरह गोधन के पांच भाइयों में हनुमान जी सबसे पहले आते हैं. बीच में सबसे बड़े भाई रामजी बनाए जाते हैं, जिनका गोधन औरों से बड़ा बनता है. 

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ये हैं गोधन बाबा... जिन्हें पांच भाइयों (हनुमान जी समेत श्रीराम के परिवार के रूप में) उकेरा जाता है. चौहद्दी ही उनका महल है और इसके भीतर उनका पूरा राज-समाज और परिवार बसा हुआ है. 

अगल-बगल छोटे भाई बनाए जाते हैं. इनके सामने उसी चौहद्दी में सास-ससुर, ननद -भाभी, नौकर-चाकर, पशुधन, गाय-गोरू, अनाज रखने का बखार, रसोई के सामान, सिल-जांता, ओखली, चक्की, कुआं, नवजात बच्चे और उनका झूला, हल-बैल, दरबान और रक्षक कुत्ते भी बनाए जाते हैं. श्रीराम के इस दरबार में सांप-बिच्छू, गोजर-केंचुआ को भी पूरे सम्मान के साथ जगह दी जाती है जो प्रकृति के सह अस्तित्व का प्रतीक है. 

प्रकृति और मानवता के जुड़ाव का पर्व है गोवर्धन
गोवर्धन पूजा सिर्फ एक पूजा की परंपरा नहीं है, यह मानव इतिहास की सबसे बड़ी धरोहर है. यह हमें मिट्टी से जुड़ना सिखाती है और बताती है कि धरती और आकाश के बीच सिर्फ हम ही हम नहीं है, इसमें मौजूद हैं न जाने कितने अनगिनत जीव-जंतु और उनकी संस्कृतियां भी, जिन्हें हम नहीं जानते और नहीं समझते हैं, इसलिए सबके साथ ही हमारा विकास संभव है और यही मानवता का मूल मंत्र है.

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