नेपाल में अमेरिका की इज्जत दांव पर लगी हुई है. चार साल पहले अमेरिका ने नेपाल के साथ एक समझौता किया था जिसके तहत उसे नेपाल के विकास के लिए 55 अरब रुपये स्थानीय सरकार को देना था. दुनिया के करीब 50 देशों में अमेरिका की ओर से चलाए जा रहे मिलेनियम चैलेंज प्रोग्राम के तहत नेपाल के पूर्वाधार विकास के लिए यह रकम मिलनी थी लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी की ओर से लगातार विरोध के कारण चार साल बाद भी इस समझौते से संबंधित विधेयक नेपाल की संसद से पारित नहीं हो सका है.
नेपाल सरकार और राजनीतिक दलों पर दबाब बनाने के लिए एमसीसी की उपाध्यक्ष फातिमा सुमार खुद काठमांडू पहुंचीं और प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा से लेकर सत्तारूढ़ गठबंधन के नेता प्रचंड, माधव कुमार नेपाल, बाबूराम भट्टराई से भी मुलाकात की. अमेरिकी टीम ने विपक्षी दल के नेता केपी शर्मा ओली और महंत ठाकुर से भी मुलाकात की लेकिन इन मुलाकातों और अमेरिकी दबाव का कोई खास असर देखने को नहीं मिला. एमसीसी को लेकर नेपाल के सत्ताधारी गठबंधन में ही विवाद है. गठबंधन का नेतृत्व कर रहे नेपाली कांग्रेस और प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा इस समझौते को संसद से पारित कराने के मूड में दिखते हैं जबकि सरकार को समर्थन दे रहे माओवादी, एकीकृत समाजवादी और जनता समाजवादी पार्टी के नेता इसके विरोध में हैं.
एमसीसी का सबसे अधिक विरोध प्रचंड की माओवादी और माधव नेपाल की एकीकृत समाजवादी पार्टी कर रही है. इनके कार्यकर्ता पिछले कई दिनों से सडकों पर लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. कभी अमेरिकी दूतावास का घेराव कर रहे हैं तो कभी नेपाल दौरे पर आई फातिमा को काले झंडे दिखा रहे हैं. गठबंधन के घटक दलों ने साफ कर दिया है कि इस समझौते में कुछ आवश्यक संशोधन नहीं किए जाने तक किसी हालत में इसे संसद से पास नहीं कराया जाएगा. हालांकि, अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि अब समझौते में किसी भी तरह के संशोधन की गुंजाइश नहीं है और बिना वजह इसे विवादित बनाया जा रहा है. फातिमा के नेपाल दौरे से ठीक पहले ही अमेरिका ने नेपाल को उसकी ओर से पूछे गए सभी सवालों के जवाब दे दिए थे और साथ ही आशंकाओं को लेकर लिखित जवाब भी अमेरिका की ओर से दे दिया गया था.
नेपाल में सैनिकों को प्रवेश कराना चाहता है अमेरिका?
दरअसल, नेपाल की कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं को लगता है कि एमसीसी समझौता अमेरिका की ओर से चीन को घेरने के लिए बनाई गई रणनीति है. उनका ये भी तर्क है कि चीन के राष्ट्रपति सी जिनपिंग के BRI को चुनौती देने के लिए MCC लाया गया है. नेपाली दलों ने यह भी आशंका जताई है कि MCC समझौता इंडो पैसिफिक रणनीति के तहत है और एमसीसी के माध्यम से अमेरिका नेपाल में अपने सैनिकों को प्रवेश कराना चाहता है ताकि चीन के लिए यह सरदर्द बने. नेपाल के राजनीतिक दलों की आशंका पर अमेरिका की ओर से पहले भी कई बार ये स्पष्ट किया जा चुका है और फातिमा के भ्रमण से पहले लिखित में भी कहा जा चुका है कि इसमें तनिक भी सच्चाई नहीं है.
क्या है एमसीसी समझौते में
एमसीसी समझौते में इस बात उल्लेख है कि नेपाल में बिजली का अधिक उत्पादन होने पर उसके लिए एकमात्र बाजार भारत ही हो सकता है. नेपाल अपनी बिजली भारत को बेच सके इसके लिए एमसीसी समझौते के तहत भारतीय सीमा तक ट्रांसमिशन लाइन बनाने की बात का उल्लेख है. नेपाल जल्द ही पांच हजार मेगावाट तक की बिजली का उत्पादन करने वाला देश बन जाएगा जिसके बाद वो करीब तीन हजार मेगावाट बिजली बेच सकता है. अगले एक दशक में नेपाल करीब 14 हजार मेगावाट बिजली उत्पादन क्षमता वाला देश बन जाएगा जिसके बाद वो भारत के अलावा बांग्लादेश को भी बिजली बेच सकता है लेकिन इसके लिए अल्ट्रा हाईवोल्टेज ट्रांसमिशन लाइन की आवश्यकता होगी जो एमसीसी समझौते के तहत अमेरिका ने बनाने का वादा किया है.
इन सभी ट्रांसमिशन लाइन का संबंध भारत से है और भारत की सहमति के बाद ही इस समझौते का कोई अर्थ है इसलिए अमेरिका ने पहले ही समझौते में यह कह दिया था कि भारत की मंजूरी और सहमति के बाद ही नेपाल में इस प्रोजेक्ट को आगे बढाया जाएगा. नेपाली कम्युनिस्ट नेताओं को यहीं से बात खटकनी शुरू हो गई थी. उनका तर्क था कि जब समझौता नेपाल और अमेरिका के बीच में हुआ था तो फिर इसमें भारत की सहमति की क्या आवश्यकता.
चीन क्यों हुआ समझौते से बेचैन
चीन के लिए भी अमेरिका और नेपाल को बीच का यह समझौता सरदर्द बन गया था. चीन नहीं चाहता कि नेपाल उसके चंगुल से छुट कर किसी और देश के करीब जाए. एमसीसी के तहत यदि प्रसारण लाइन बन गया और भारत को अपनी बिजली बेचने लगा तो एक अनुमान है कि नेपाल को इससे सलाना एक हजार करोड़ रुपये से अधिक की आमदनी होगी. इससे भारत के साथ न सिर्फ व्यापार घाटा कम होगा बल्कि आर्थिक रूप से नेपाल अपने पैर पर भी खड़ा हो सकता है और चीन नहीं चाहता कि नेपाल आत्मनिर्भर बने. ऐसा इसलिए क्योंकि यदि नेपाल आत्मनिर्भर हो जाएगा तो वो BRI के जरिए नेपाल को अपने ऋण जाल में कैसे फंसाएगा. इसी कारण से चीन यहां के कम्युनिस्ट नेताओं के जरिए इसका विरोध करवा रहा है. चीन ये समझ रहा है कि नेपाल की देउबा सरकार इस समय वैशाखी पर टिकी है. जैसे ही देउवा ने मनमानी करनी चाही वैसे ही उनकी सरकार चली जाएगी.
प्रचंड से उपेंद्र तक, सभी बोल रहे चीन की भाषा
सत्ताधारी गठबंधन के नेता प्रचंड से लेकर माधव नेपाल, बाबूराम भट्टराई से लेकर उपेंद्र यादव तक, सभी चीन की भाषा बोल रहे हैं. फातिमा के नेपाल आने से ठीक पहले ही चीन के राजदूत ने इन सभी नेताओं से मुलाकात की थी और उनसे किसी भी हालत में एमसीसी पारित नहीं होने देने की बात कही थी. प्रधानमंत्री देउबा कहीं विपक्षी दलों के साथ मिलकर गठबंधन ही ना तोड़ दें और एमसीसी पास करा दें, इस आशंका के कारण ही फातिमा के दौरे से पहले चीन के दबाव में ही संसद सत्र आधी रात को अचानक खत्म कर अगले दिन सुबह राजनीतिक दल विभाजन संबंधी अध्यादेश लाया गया जिसके निशाने पर केपी शर्मा ओली की पार्टी थी. एमसीसी के समर्थन में रहे केपी ओली की पार्टी में विभाजन कराया गया ताकि उनके साथ मिलकर देउवा कहीं इसे पास ना कर दें. ऐसे ही एमसीसी के समर्थन में रहे महंत ठाकुर गुट के 14 सांसदों को बाबूराम भट्टराई और उपेंद्र यादव ने उनकी ही पार्टी से निकाल बाहर कर दिया था.
दोराहे पर हैं शेर बहादुर देउबा
नेपाल के प्रधानमंत्री देउबा इस समय दोराहे पर हैं. एक तरफ अमेरिका के साथ किया गया समझौता है तो दूसरी तरफ सत्ता के चले जाने का डर. अगर अमेरिका के दबाव में आकर वे समझौते को संसद में पेश करते हैं तो गठबंधन टूटने, सत्ता जाने का डर है. यदि वो अमेरिकी समझौते को आगे नहीं बढाते हैं तो देश को बड़ा नुकसान हो सकता है और भविष्य में विदेशी सहायता, विदेशी निवेश पर इसका सीधा असर देखने को मिलेगा. हालांकि देउबा को नेपाल में अमेरिका का सबसे करीबी नेता माना जाता है लेकिन इस बार कई लोगों को यह आशंका है कि चीन के दबाव के आगे देउबा अपनी सरकार को दांव पर नहीं लगाने वाले. वे बाहर तो दिखा रहे हैं कि उनकी सरकार एमसीसी संसद से पारित कराना चाहती है लेकिन अपने ही घटक दलों के विरोध का हवाला देकर उसको रोकना भी चाह रहे हैं.
गठबंधन में नहीं हो पाया है मंत्रिमंडल का बंटवारा
शेरबहादुर देउबा की सरकार को दो महीने से अधिक हो गया है लेकिन अब तक न तो वे सरकार का विस्तार कर पाए हैं और ना ही गठबंधन के घटक दलों के बीच मंत्रालयों का बंटवारा ही कर पाए हैं. चीन के इशारे पर गठबंधन के दबाव में देउबा ने बिना किसी ठोस प्रमाण के दार्चुला के मसले पर भारत को प्रोटेस्ट नोट जरूर भेज दिया. इतना ही नहीं, राहत कार्यों के लिए उत्तराखंड की सीमा में उड़ने वाले वायुसेना के हेलीकॉप्टर के नेपाली सीमा में प्रवेश का बेवजह आरोप लगाते हुए भी विरोध दर्ज कराया दिया. इसको बैलेंस करने के लिए चीन की सीमा से जुड़ा विवाद उठाया तो प्रचंड ने गठबंधन तोड़ने की धमकी दे डाली.
चीन के चक्रव्यूह में फंसे शेर बहादुर
नेपाली कांग्रेस के नेता शेर बहादुर देउबा चीन के चक्रव्यूह में फंस गए हैं. सत्ता के लोभ में उन्होंने चीन परस्त कट्टरपंथी कम्युनिस्ट पार्टियों से गठबंधन तो कर लिया है लेकिन एमसीसी के मसले पर न तो गठबंधन के घटक दल ना ही संसद के स्पीकर ही समर्थन में हैं. नेपाली संसद के स्पीकर माओवादी पार्टी के नेता अग्नि सापकोटा को जैसे ही पता चला कि सरकार ने संसद का यह सत्र एमसीसी पारित करने लिए बुलाया है, वैसे ही उन्होंने इसका विरोध करते हुए कहा कि राजनीतिक सहमति नहीं बनने तक एमसीसी को सदन में पेश नहीं किया जाएगा. वैसे तो आम तौर पर यह चलन है कि सदन की बैठक से पहले एजेंडा तय करने के लिए स्पीकर की तरफ से कार्य व्यवस्था परामर्श समिति की बैठक बुलाई जाती है लेकिन इस समय संसद सत्र को शुरू हुए एक हफ्ते से अधिक हो गया लेकिन स्पीकर अपने मन से ही बिना किसी राजनीतिक दल या सरकार के परामर्श के ही सदन का एजेंडा प्रकाशित कर दे रहे जिससे साफ होता है कि स्पीकर भी सरकार के विरोध में ही है.
एमसीसी पास कराना है तो त्यागना होगा मोह
शेर बहादुर देउबा यदि वाकई एमसीसी पारित कराना चाहते हैं तो उन्हें चीन परस्त पार्टियों से गठबंधन कर सत्ता का मोह त्यागना होगा और विपक्षी दलों के साथ मिलकर आगे बढ़ना होगा. नेपाली कांग्रेस देश की एक लोकतांत्रिक विचारधारा वाली पार्टी मानी जाती थी लेकिन सत्ता पाने की लालसा में उस लोकतांत्रिक विचारधारा वाली पार्टी ने चीन परस्त कट्टर वामपंथी दलों से गठबंधन कर लिया. विपक्षी पार्टी केपी शर्मा ओली की नेकपा एमाले और महंत ठाकुर की लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी ने संकेत दिए हैं कि यदि देउबा ईमानदारी के साथ एमसीसी पारित कराना चाहते हैं तो उन्हें वर्तमान स्पीकर को महाभियोग लाकर हटाना होगा. नए स्पीकर का चयन कर एमसीसी को सदन में पेश करना होगा तो वे समर्थन करने के लिए तैयार हैं. देखना ये होगा कि क्या शेर बहादुर देउबा इतनी हिम्मत जुटा पाते हैं या चीन के चक्रव्यूह में फंस कर रह जाते हैं.
सुजीत झा