भारत ने पहली बार 18 मई, 1974 को परमाणु परीक्षण किया था. तब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं. दुनिया भर में अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस, ब्रिटेन, भारत, पाकिस्तान को परमाणु शक्ति संपन्न देश माना जाता है. दो और ऐसे देश हैं जिन्हें अनाधिकारिक रूप से परमाणु शक्ति संपन्न देश माना जाता है.
वे हैं- इजरायल और उत्तर कोरिया. उत्तर कोरिया को लेकर कुछ भी कहना मुश्किल है क्योंकि वहां से सही सूचना निकालना बहुत मुश्किल है. लेकिन इजरायल को लेकर कई तथ्य हैं जो बताते हैं कि उसने 60 के दशक में ही खुद को परमाणु शक्ति संपन्न बना लिया था.
पिछले महीने इजरायल ने 12 वर्षों में चौथी बार गाजा पट्टी पर बमबारी की. अमेरिका ने इजरायल को 73.5 करोड डॉलर के हथियारों की बिक्री को मंजूरी दी. इससे खफा कई अमेरिका सांसदों ने अमेरिकी सरकार के कदम की आलोचना की और कई डेमोक्रेट सासंदों ने मिसाइलों की बिक्री को रोकने के लिए प्रस्ताव पेश किए.
इजरायल की सैन्य शक्ति को बनाए रखना अमेरिका की मध्य-पूर्व नीति का एक मुख्य हिस्सा है. यह अमेरिकी फंडिंग और इजरायल के बढ़ते घरेलू हथियार उद्योग से हासिल किया गया है. लेकिन इससे पहले बीच-बीच में यह आशंका जताई जाती रही है कि इजरायल ने परमाणु बम बना लिए हैं.
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दरअसल, रेगिस्तान के नीचे मध्य-पूर्व के एक देश द्वारा परमाणु बम बनाने की कहानी चलती रहती है. बताया जाता है कि यह बम सहयोगी देशों की तकनीक और सामग्री से तैयार किया गया है. यह भी कहा जाता है कि एजेंटों द्वारा चुराई गई सामग्री से यह परमाणु बम तैयार किया गया है. इस कहानी को ईरान के परमाणु कार्यक्रम से जोड़कर देखा जाता है. लेकिन न अमेरिका और न ब्रिटेन के खुफिया विभाग यह मानने को तैयार हैं कि ईरान परमाणु बम बना रहा है. ईरान की परमाणु परियोजना अंतरराष्ट्रीय निगरानी में है.
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हालांकि, रेगिस्तान में छिपे बम की अजीब कहानी एक सच्ची कहानी है. इस कहानी को मध्य-पूर्व के एक अन्य देश इजरायल से भी जोड़कर देखा जाता है. कहा जाता है कि इजरायल भूमिगत परमाणु शस्त्रागार बनाने में कामयाब रहा. अनुमान है कि यह भारत और पाकिस्तान के बराबर है. कहा जाता है कि इजरायल ने करीब आधी सदी पहले ही इसका परीक्षण कर लिया था.
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तकनीक विज्ञानी मोर्दचाई वानुनु ने 1986 में इस बारे में कुछ तथ्य उजागर किए थे. इस तथ्य के बावजूद कि इजरायल परमाणु कार्यक्रम को लेकर काम कर रहा है, इजरायली अधिकारियों ने कभी इसकी न पुष्टि की और न ही खंडन किया.
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द गार्डियन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, इजरायली संसद के पूर्व स्पीकर अवराम बर्ग ने दिसंबर 2013 में बताया था कि इजरायल के पास परमाणु और जैविक हथियार दोनों हैं. उन्होंने इसे आधिकारिक तौर पर घोषित न किए जाने को 'बचकाना और पुरानी नीति' बताई थी. इस पर दक्षिणपंथी गुट ने आपत्ति जताई थी और पुलिस जांच की मांग की थी.
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पश्चिमी देश मध्य-पूर्व के देशों में परमाणु कार्यक्रम को नजरअंदाज करने की नीति अपनाते रहे हैं और इस पर चर्चा करने से कतराते हैं. 2009 में वॉशिंगटन की एक अनुभवी रिपोर्टर हेलेन थॉमस ने उस दौरान राष्ट्रपति बराक ओबामा से पूछा कि क्या वह मध्य-पूर्व के किसी देश के परमाणु हथियारों के बारे में जानते हैं तो उन्होंने यह कहते हुए बात टाल दी थी कि वह किसी तरह की 'अटकलें' नहीं लगाना चाहते हैं.
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ब्रिटेन की सरकारों ने आम तौर पर इस मसले को लेकर साफ रुख अपनाया है. नवंबर 2013 में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में इजरायल के परमाणु हथियारों के बारे में पूछे जाने पर बैरोनेस वारसी ने स्पष्ट जवाब दिया था.
मंत्री ने कहा था, "इजरायल ने परमाणु हथियार कार्यक्रम की घोषणा नहीं की है. परमाणु से संबंधित कई मुद्दों पर हमारी इजरायल सरकार के साथ नियमित चर्चा होती है. इजरायल की सरकार पर हमें कोई संदेह नहीं है. हम इजरायल को परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) का हिस्सा बनने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं."
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बीच-बीच में यह सामने आता रहा है कि कैसे इजरायल ने तस्करी और चोरी की तकनीक से परमाणु हथियार तैयार किए हैं. ईरान के विपरीत इजरायल ने कभी भी 1968 के एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किए.
जिन देशों ने गुप्त रूप से इजरायल को परमाणु हथियार बनाने के लिए सामग्री और विशेषज्ञता बेची, या जिन्होंने इसकी चोरी से आंखें मूंद लीं, वो अब परमाणु प्रसार के खिलाफ हैं: अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, ब्रिटेन और यहां तक कि नॉर्वे भी.
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इजरायल के कई एजेंटों पर परमाणु सामग्री और अत्याधुनिक तकनीक चुराने के आरोप लगते रहे हैं. इजरायल के जासूस मिचलान पर फिल्म बन चुकी है जिस पर परमाणु सामग्री चुराने के आरोप हैं.
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वर्ष 2013 में सामने आए अमेरिका और ब्रिटेन के डिक्लासीफाइड दस्तावेजों से पता चलता है कि इजरायल ने 1963 या 1964 में अर्जेंटीना से 100 टन परमाणु सामग्री खरीदी थी जिसका इस्तेमाल हथियार बनाने में किया जाता है. बताया जाता है कि 1970 के दशक में इजरायल को दक्षिण अफ्रीका से भी 600 टन परमाणु सामग्री मिली थी. इजरायल के परमाणु रिएक्टर को ड्यूटेरियम ऑक्साइड की आवश्यकता थी, जिसके लिए उसने नॉर्वे और ब्रिटेन का रुख किया. 1959 में इजरायल 20 टन ड्यूटेरियम ऑक्साइड खरीदने में सफल रहा. इसे लेकर नार्वे और ब्रिटेन का संदेह था कि इजरायल इसका इस्तेमाल परमाणु हथियार बनाने में करेगा लेकिन दोनों देशों ने इसकी अनदेखी की.
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यह भी माना जाता है कि फ्रांस के योगदान के बिना इजरायल की परमाणु-हथियार परियोजना कभी भी धरातल पर नहीं उतर सकती थी. यह भी मजेदार बात है कि जिस देश ने ईरान को लेकर सबसे कड़ा रुख अपनाया, उसने इजरायल के परमाणु हथियार कार्यक्रम की नींव रखने में मदद की. इजरायल को फ्रांसीसी-यहूदी वैज्ञानिकों की सहानुभूति से भी मदद मिली. इजरायलियों ने एक रिएक्टर होने की बात स्वीकार की, लेकिन जोर देकर कहा कि यह पूरी तरह से शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए था.
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जैसे-जैसे इजरायल के हथियार कार्यक्रम के अधिक से अधिक सबूत सामने आए, अमेरिका की भूमिका इस रूप में सामने आई कि वो अपने साथी के बारे में कुछ नहीं जानता है. 1968 में CIA के निदेशक रिचर्ड हेल्म्स ने राष्ट्रपति जॉनसन को बताया कि इजरायल वास्तव में परमाणु हथियार बनाने में कामयाब रहा है और इसकी वायु सेना ने उन्हें गिराने का अभ्यास करने के लिए उड़ानें भरी हैं.
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इसके बाद व्हाइट हाउस ने इस पर कुछ भी नहीं कहने का फैसला किया और तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और इजरायल के पीएम गोल्डा मीर के बीच 1969 की बैठक में निर्णय को औपचारिक रूप दिया गया.
इस पर अमेरिकी राष्ट्रपति ने इजरायल पर एनपीटी पर हस्ताक्षर करने के लिए दबाव नहीं बनाने पर सहमति व्यक्त की, जबकि इजरायल के प्रधानमंत्री ने सहमति व्यक्त की थी कि उनका देश मध्य-पूर्व में परमाणु हथियारों वाला पहले देश के रूप में खुद को पेश नहीं करेगा.
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