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रूस में हुई शांति वार्ता में भारत को ना बुलाने को अफगानिस्तान ने बताया बड़ी गलती

aajtak.in
  • नई दिल्ली,
  • 25 मार्च 2021,
  • अपडेटेड 3:06 PM IST
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अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने सबको चौंकाते हुए अमेरिकी योजना के विपरीत एक नया शांति प्रस्ताव दिया है. अशरफ गनी ने कहा है कि अगर तालिबान सीजफायर का ऐलान करने और चुनाव में शामिल होने के लिए राजी हो जाता है तो वह चुनाव कराने और नई सरकार को सत्ता सौंपने के लिए तैयार हैं. अफगानिस्तान के विदेश मंत्री हनीफ अतमर ने कहा है कि उन्होंने इस प्रस्ताव को लेकर भारतीय नेतृत्व के साथ भी बातचीत की है. अफगानिस्तान के विदेश मंत्री ने अफगान शांति प्रक्रिया में भारत की भूमिका अहम बताई और कहा कि भारत को इससे दूर रखना बहुत बड़ी गलती है.

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'द हिंदू' से बातचीत में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री हनीफ अतमर ने कहा, "भारत हमेशा से अफगान लोगों की मदद करता रहा है और हमारा बहुत अच्छा दोस्त है. भारत अफगान सरकार के साथ हमेशा खड़ा रहा है, खासकर पिछले दो दशकों में शांति और स्थिरता के प्रयासों को लेकर. अफगानिस्तान के लोगों के लिए ये बहुत ही अहम बात है कि उनके पास एक ऐसा दोस्त है जो हमेशा उनके लिए मौजूद है. भारत ने ना केवल राजनीतिक तौर पर बल्कि आर्थिक रूप से भी अफगानिस्तान की खुलकर मदद की है. भारत ने हमेशा कहा है कि जो शांति प्रक्रिया अफगानों को स्वीकार्य होगी, वही उसे भी मान्य होगी. इसलिए हम भारत को फिर से शुक्रिया कहना चाहते हैं, भारत की तरफ से जिस तरह की समझदारी दिखाई जाती है, वो सराहनीय है."

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अफगानिस्तान में शांति प्रक्रिया से जुड़ी वार्ता में तालिबान, रूस, अमेरिका, ईरान, चीन और पाकिस्तान शामिल हैं लेकिन भारत को इससे दूर रखा गया है. हाल ही में, रूस की राजधानी मॉस्को में हुई शांति वार्ता में ये छह देश मौजूद रहे लेकिन भारत को इस बैठक का न्योता नहीं दिया गया. इंडियन एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट में ये भी कहा गया कि अफगानिस्तान में शांति के लिए तैयार किए जा रहे रोडमैप पर फैसला लेने के लिए रूस ने जिन देशों की भागीदारी का नाम सुझाया था, उसमें भारत का नाम नहीं था. भारत स्थित रूसी दूतावास ने बयान जारी कर इस खबर को गलत सूचनाओं पर आधारित करार दिया था.

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रूसी दूतावास ने अपने बयान में कहा था, "सभी वैश्विक और अफगानिस्तान सहित क्षेत्रीय मुद्दों पर भारत और रूस का संवाद हमेशा करीबी और दूरदर्शी रहा है. अफगानिस्तान समझौते की जटिलता के कारण, एक क्षेत्रीय सहमति और अमेरिका सहित अन्य भागीदारों के साथ समन्वय बनाना महत्वपूर्ण है. रूस ने हमेशा ये कहा है कि अफगानिस्तान में भारत की भूमिका अहम है और ऐसे में इस मामले में उसकी गहरी भागीदारी और संवाद होना स्वाभाविक है.'' हालांकि, इस बयान के जारी होने के अगले दिन रूस के विदेश मंत्रालय ने इस बात की पुष्टि कर दी थी कि मॉस्को में अफगानिस्तान के मुद्दे पर हो रही बैठक में भारत शामिल नहीं है.
 

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दरअसल, रूस-चीन और पाकिस्तान की करीबी बढ़ी है और पाकिस्तान बिल्कुल नहीं चाहता है कि अफगानिस्तान शांति वार्ता में भारत की कोई भूमिका हो. रिपोर्ट्स में कहा गया था कि पाकिस्तान के ऐतराज की वजह से ही मॉस्को में हुई वार्ता में भारत को शामिल नहीं किया गया. अफगानिस्तान की विकास परियोजनाओं में भारत ने 2 अरब डॉलर से ज्यादा का निवेश किया है और तालिबान-पाकिस्तान का प्रभाव बढ़ने से भारत के हितों को नुकसान पहुंचने का भी डर है. अगर भारत अफगानिस्तान को लेकर हो रही शांति वार्ता में शामिल होता है तो उसे आतंकवाद, सुरक्षा और दूसरे हितों को प्रभावित करने वाले मुद्दों को लेकर अपनी शर्तें रखने का मौका मिलेगा.

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अफगानिस्तान के विदेश मंत्री अतमर ने कहा, मॉस्को में हुई शांति वार्ता में भारत को ना बुलाकर बहुत बड़ी गलती की गई है. हमने आयोजकों का स्पष्ट कर दिया था कि हमारे क्षेत्र में शांति और स्थिरता का कोई भी प्रयास भारत के बिना पूरा नहीं हो सकता है. इसलिए वार्ता में शामिल सभी देशों को रणनीतिक रूप से सोचना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि भारत के क्षेत्र में योगदान और सद्भाव को गंभीरता से आपसी सहयोग में तब्दील किया जाए.


 

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अफगानिस्तान के विदेश मंत्री ने 'द हिंदू' से बातचीत में कहा, मैं अपने सभी अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों से कहना चाहूंगा कि अफगान लोगों की ये दिली इच्छा है कि शांति प्रक्रिया और वार्ता में भारत की मजबूत मौजूदगी हो. अगर शांति समझौता संभव हुआ तो इसे लागू करने में किसकी भूमिका होगी? अफगानिस्तान के करीब सभी बड़े देशों में से भारत सबसे उदार रहा है और इसीलिए शांति प्रक्रिया में भारत जैसे उदार देश की भूमिका जरूर होनी चाहिए.

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अफगानिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा कि उनकी सरकार शांति प्रक्रिया के लिए पूरी तरह से प्रतिबद्ध है. उन्होंने कहा, हमने तालिबान को चुनाव कराने और इसमें शामिल होने का प्रस्ताव इसलिए दिया है ताकि हम उन्हें अपने लोगों के खिलाफ हिंसा से रोक सकें. अगर तालिबान चुनाव कराने के विचार को अपना समर्थन दे देता है तो राष्ट्रपति समय से पहले चुनाव कराने के लिए तैयार हैं. तालिबान इस चुनाव में हिस्सा ले और देश के लोग अपनी नई सरकार चुनें. ये एक चुने गए नेता की बहुत बड़ी कुर्बानी है जो सबसे पहले देश के लोगों के हितों को सबसे ऊपर रख रहा है.
 

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दोहा में तालिबान के साथ अमेरिका की वार्ता चल रही है और अभी तक सीजफायर पर अमल नहीं हो सका है तो क्या तालिबान चुनाव लड़ने पर राजी होगा? इस सवाल के जवाब में अफगानिस्तान के विदेश मंत्री ने कहा, "तालिबान पहले विदेशी फौजों की मौजूदगी की वजह से लड़ रहा था. अब अमेरिका और तालिबान के बीच समझौता हो गया है और अमेरिकी सेना की वापसी होने वाली है. अमेरिका ने तालिबान से वादा लिया है कि वह अपने साथ लड़ने वाले विदेशी लड़ाकों को भी बाहर निकाल देगा. पूरी दुनिया को उम्मीद है कि दोनों पक्ष अपने-अपने वादे निभाएंगे."

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उन्होंने कहा, तालिबान के लिए दूसरा मुद्दा था कि अफगानिस्तान के बाकी पक्षों के साथ राजनीतिक लड़ाई का समाधान हो. इसके लिए चुनाव कराया जाना जरूरी है. अफगान भी यही चाहते हैं. अब तालिबान की दोनों शर्तें पूरी हो रही हैं. अब ये उन पर है कि वे इस संघर्ष का शांतिपूर्ण समाधान चाहते हैं या फिर सत्ता हासिल करने के लिए हिंसा के रास्ते पर आगे बढ़ते हैं.

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