'मुझे फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि मैं ग़लत कुछ नहीं कर रहा हूं' यह तर्क कई बार सुनने को मिलता है जब लोग मोबाइल और डेटा प्राइवेसी की बात करते हैं. कई लोग ये भी कहते हुए पाए जाते हैं कि Privacy is a myth. लेकिन क्या वाकई यह सोच सही है? आइए समझते हैं कि आपकी हर बातचीत तकनीक के जरिये ट्रैक की जा सकती है और इसका मतलब सिर्फ़ ऐड्स ही दिखाना नहीं होता है.
भारत में डेटा प्राइवेसी को लेकर अवेयरनेस की भारी कमी है. अक्सर लोग किसी को भी आधार डिटेल्स देने से भी नहीं हिचकते हैं, जबकि ये आधार डेटा प्राइवेसी के हिसाब से काफी महत्वपूर्ण है. आधार के साथ आपकी कुछ और जानकारी साइबर क्रिमिनल्स को मिल जाए तो आपका अकाउंट खाली कर सकते हैं. हर दिन ऐसी खबरें आती रहती हैं.
क्यों बढ़ रहे हैं डिजिटल अरेस्ट जैसे स्कैम्स?
इन दिनों भारत में साइबर क्राइम क्यों बढ़ रहे हैं? क्यों लोगों को कोई भी साइबर क्रिमिनल आसानी से डिजिटली अरेस्ट कर ले रहे हैं? इसकी वजह ये है कि लगातार कई सालों से लोग अपना डेटा आसानी से किसी को भी दे रहे हैं.
साइबर क्रिमिनल्स की प्लानिंग काफी स्लो होती है, यानी सालों साल तक किसी डेटा सेट पर काम करते हैं और उसके बाद उसेे एक्स्प्लॉइट करते हैं. यानी अगर आपका डेटा 5 साल पहले कहीं लीक हुआ था तो मुमकिन है आपके साथ आज या अगले साल स्कैम हो सकता है. क्योंकि आपका डेटा कभी भी किसी साइबर क्रिमिनल के हाथ लग सकता है.
फोन खुद ही कैसे बन रहा खतरा? आपकी बातचीत, आपका डेटा
आप किसी प्रोडक्ट या जगह का ज़िक्र अपने दोस्तों से करते हैं. थोड़ी ही देर में आप सोशल मीडिया पर उस प्रोडक्ट या जगह से जुड़े विज्ञापन देखते हैं. इसे टार्गेटेड ऐड्स कहा जाता है. लेकिन क्या यह सिर्फ़ ऐड तक सीमित है? बड़ी कंपनियां, जैसे गूगल और ऐमेजॉन, पहले ही मान चुकी हैं कि वे बातचीत सुनती हैं कभी-कभी अपने कर्मचारियों के जरिये. यानी कोई आपकी बातें सुन ही रहा है.
अनयूज्ड ऐप्स हैं खतरनाक
आपके फोन में दर्जनों ऐप्स ऐसे होते हैं जिन्हें आपने महीनों तक यूज नहीं किया है, लेकिन वो आपका डेटा डेली ऐक्सेस कर रहे हैं. आम तौर पर लोग किसी काम के लिए कोई ऐप डाउनलोड करते हैं और उसे हटाना भूल जाते हैं भले ही उसे वो डेली यूज ना कर रहे हों. क्योंकि जैसे ही आप ऐप इंस्टॉल करते हैं वो आपसे हमेशा के लिए डेटा ऐक्सेस ले लेते हैं.
डिजिटल ट्रैकिंग का मकसद सिर्फ़ विज्ञापन नहीं
ऐप्स को दी गई माइक्रोफ़ोन, कैमरा और लोकेशन की परमिशन आपके डेटा को स्टोर और प्रोसेस करती है. कई ऐप्स आपकी ज़रूरत से ज़्यादा परमिशन मांगते हैं. जैसे:
गूगल पर पहले मुकदमा हो चुका है, जहां उन्होंने माना कि वे स्पीच रिकॉग्निशन को सुधारने के लिए बातचीत रिकॉर्ड करते हैं. हालांकि, छोटे ऐप्स पर कोई खास जवाबदेही नहीं है, और इनके सर्वर कहां हैं, यह तक नहीं पता होता.
आपका डेटा कैसे हो सकता है खतरनाक?
फिनांशियल फ्रॉड होने की चांसेस काफी बढ़ जाएंगे. क्योंकि आपका तमाम डेटा किसी के पास सेव है.
आपकी प्राइवेसी में कोई आसानी से सेंध लगा सकता है.
बल्क डेटा की खरीद फरोख्त
डार्क वेब पर यूजर डेटा काफी महंगा बिकता है. कीमत इस बार तय होती है कि डेटा कितना सेंसिटिव है. यहां एक यूजर का डेटा नहीं, बल्कि लाखों यूजर्स का डेटा खरीदा और बेचा जाता है. साइबर क्रिमिनल्स इस डेटा को महंगे में खरीदते हैं और फिर धीरे धीरे करके लोगों के साथ स्कैम करते हैं.
कौन बेचता है आपका डेटा?
बात जहां से शुरू हुई थी कि आप आंख मूंद कर किसी ऐप को तमाम परमिशन दे देते हैं. कई बार ऐप पब्लिशर्स खुद ही यूजर डेटा कलेक्ट करके बेच देते हैं. या फिर कभी उस कंपनी का डेटा लीक हुआ तो क्रिमिनल्स ही डेटा बेच देते हैं.
कैसे बचें?
किसी भी ऐसे पब्लिशर का ऐप यूज ना करें जो ट्रस्टेड नहीं है. जो ऐप डाउनलोड करना चाहते हैं उसे गूगल करके रिव्यू जरूर पढ़ लें.
कई ऐसे भी टूल्स हैं जो आपको ये बताते हैं कि कौन सा ऐप काफी टाइम से अनयूज्ड है. कुछ ऐसे भी टूल्स होते हैं जो आपकी जानकारी इंटरनेट से हटाने का काम करते हैं. किसी भी ऐप के डेटाबेस से आपका डेटा हटवा सकते हैं. हालांकि ये फ्री नहीं होते हैं और ये काफी पैसा भी चार्ज करते हैं.
अगर आपके साथ भी ऐसा हुआ है तो आप हमें कॉमेंट में जरूर बताएं.
मुन्ज़िर अहमद