मोबाइल स्क्रीन पर उंगलियां चलती हैं, एक सवाल टाइप होता है और कुछ सेकंड में जवाब सामने होता है. आज AI हमारी ज़िंदगी का इतना नॉर्मल हिस्सा बन चुका है कि हम रुककर यह सोचते भी नहीं कि इसके पीछे क्या चल रहा है.
लेकिन जिस AI को हम स्मार्ट, फास्ट और फ्यूचर मान रहे हैं, वही AI चुपचाप धरती का पानी पी रहा है और वो भी इतनी मात्रा में कि अब खतरे की घंटी बजने लगी है. लगातार ये बहस चल रही है कि इसे रोका कैसे जाए और क्या-क्या विकल्प हैं.
हालिया रिसर्च में सामने आया है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस सिस्टम्स की सालाना पानी की खपत अब उस पानी से ज़्यादा हो सकती है, जितना पूरी दुनिया में एक साल में बोतलबंद पानी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यह आंकड़ा सुनने में भले ही अजीब लगे, लेकिन टेक इंडस्ट्री के अंदर यह सच्चाई धीरे-धीरे साफ़ हो रही है.
इंसानों से ज्यादा पानी AI पी रहा है?
AI कोई हवा में चलने वाला जादू नहीं है. इसके पीछे हैं बड़े-बड़े डेटा सेंटर्स. ऐसी जगहें जहां हजारों सर्वर दिन-रात चलते रहते हैं. जब ये सर्वर काम करते हैं, तो गर्म होते हैं. इस गर्मी को कंट्रोल करने के लिए पानी का इस्तेमाल होता है. यही पानी असल में AI का असली ईंधन है, जिसके बारे में आम यूज़र को कभी बताया नहीं जाता.
रिसर्च बताती है कि 2025 तक AI से जुड़े सिस्टम 300 से 700 अरब लीटर तक पानी साल भर में खपा सकते हैं. कंपेयर करें तो यह मात्रा पूरी दुनिया में बिकने वाले बोतलबंद पानी से भी ज़्यादा बैठती है. यानी जिस पानी को लोग खरीद-खरीद कर पीते हैं, उससे ज़्यादा पानी AI की मशीनें खामोशी से इस्तेमाल कर रही हैं.
पानी के साथ बिजली भी...
मामला सिर्फ पानी तक लिमिटेड नहीं है. इन डेटा सेंटर्स को चलाने के लिए भारी मात्रा में बिजली चाहिए, और बिजली का मतलब है ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन. अनुमान है कि आने वाले समय में AI से पैदा होने वाला कार्बन फुटप्रिंट कई बड़े शहरों के सालाना प्रदूषण के बराबर हो सकता है. लेकिन इस पर अब तक खुलकर बात नहीं हुई, क्योंकि ज़्यादातर बड़ी टेक कंपनियां अपने डेटा सेंटर्स की असली पानी और बिजली खपत सार्वजनिक नहीं करतीं.
दिलचस्प बात यह है कि एक-एक AI सवाल भले ही छोटा लगे, लेकिन उसका असर जुड़ता जाता है. जब करोड़ों लोग रोज़ाना AI टूल्स का इस्तेमाल करते हैं, तो पानी की यह छोटी-छोटी खपत मिलकर अरबों लीटर तक पहुंच जाती है. यही वजह है कि एक्सपर्ट्स अब चेतावनी देने लगे हैं कि अगर AI की यह रफ्तार बिना किसी प्लानिंग के चलती रही, तो पानी की कमी और गहराएगी.
आज दुनिया पहले ही जल संकट से जूझ रही है. कई शहरों में पानी की सप्लाई सीमित है, गांवों में भूजल स्तर गिर रहा है और जलवायु परिवर्तन हालात और बिगाड़ रहा है. ऐसे में AI का यह बढ़ता पानी-खर्च एक नया और बड़ा सवाल खड़ा करता है. एक्सपर्ट्स का मानना है कि इस टेक्नोलॉजी की कीमत आने वाली पीढ़ियों के पानी से चुका रहे हैं.
AI को रोकना संभव नहीं है, और न ही ज़रूरी. लेकिन अब यह साफ़ हो चुका है कि सिर्फ स्मार्ट फीचर्स और तेज़ जवाब ही काफी नहीं हैं. सवाल यह भी है कि AI कितना पानी ले रहा है, कहां से ले रहा है और इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा. कई AI कंपनियां विक्लपों पर भी काम कर रही हैं कि कैसे पानी और बिजली की खपत को कम किया जा सके.
मुन्ज़िर अहमद