महिलाओं के नसीब में अब भी नहीं समानता

तमाम सफलताओं के बाद भी भारतीय महिलाओं के लिए हिंसा और असमानता की चुनौतियां बनी हुई हैं. यह बात सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कही.

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aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 08 मार्च 2015,
  • अपडेटेड 9:40 AM IST

तमाम सफलताओं के बाद भी भारतीय महिलाओं के लिए हिंसा और असमानता की चुनौतियां बनी हुई हैं. यह बात सामाजिक कार्यकर्ताओं ने कही.

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2013 में महिलाओं के साथ हुए 3,09,546 अपराध दर्ज किए गए. इनमें से 33,707 दुष्कर्म और 5,188 अपहरण के मामले थे. महिलाओं से संबंधित मुद्दों पर काम करने वाले गैर सरकारी संगठन (एनजीओ) ब्रेकथ्रू की मुख्य कार्यकारी अधिकारी सोनाली खान ने कहा, 'घटते लिंगानुपात, दुष्कर्म और घरेलू हिंसा जैसे अनेक जुल्म भारतीय पितृसत्तात्मक समाज द्वारा महिलाओं पर ढाए जाते हैं.'

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उन्होंने कहा, 'देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कारोबारी प्रमुख पद पर महिलाएं पहुंच चुकी हैं, लेकिन जहां तक आम आदमी की बात है, तो स्थिति में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है.' उन्होंने कहा, 'महिलाएं दुष्कर्म, घरेलू हिंसा और भ्रूण हत्या की शिकार हैं.' उन्होंने कहा कि महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा उनके आगे बढ़ने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है.

लखनऊ की महिला अधिकारवादी सामाजिक कार्यकर्ता और वकील रेणु मिश्रा ने कहा, 'महिलाओं की स्थिति में बदलाव जरूर आया है, लेकिन यह बदलाव संविधान प्रदत्त अधिकारों के अनुरूप नहीं है.' उन्होंने कहा, 'भारतीय महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं. महिलाएं पहले से अधिक दिखाई पड़ने लगी हैं, लेकिन उन्हें समानता हासिल नहीं है.'

वर्ष 20011 की जनगणना के मुताबिक, 2001 में जहां प्रति 1,000 पुरुषों पर 927 महिलाएं थीं, वहीं 2011 में यह अनुपात प्रति 1,000 पुरुषों पर 918 महिलाओं का रह गया. जयपुर की संस्था सेंटर फॉर एडवोकेसी एंड रिसर्च की कार्यकर्ता राखी बधवार ने कहा, 'सबसे पहले घटते लिंगानुपात पर बात की जानी चाहिए. वे (लड़कियां) बचेंगी ही नहीं, तो बाकी मुद्दे तो बाद में आएंगे.'

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बंगलुरू की रहने वाली महिला अधिकारवादी कार्यकर्ता आशा रमेश ने कहा कि काफी नियम-कानून बनाए जा चुके हैं, लेकिन मुख्य गुनाहगार है लोगों की मानसिकता. रमेश ने कहा, 'सरकार बालिकाओं के लिए जो प्रोत्साहन दे रही है, वह मामूली है, उनसे मुख्य मुद्दे का समाधान नहीं होता.' रमेश ने कहा, 'आज महिलाएं पहले से अधिक मुखर हैं और उन्हें रोकने के लिए उनके साथ दुष्कर्म जैसी हिंसा को अंजाम दिया जाता है.'

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के मुताबिक भारत में करीब 58 फीसदी लड़कियों को चिकित्सा सहायता नहीं मिल पाती, लड़कों के मामले में यह अनुपात सिर्फ 31 फीसदी है. गांव से लेकर शहरों तक महिलाओं की मृत्यु दर पुरुषों से हमेशा अधिक होती है. पंजाब जैसे समृद्ध राज्य में 20 फीसदी लड़कियों में पोषण का स्तर सामान्य है, जबकि लड़कों में यह अनुपात 40 फीसदी है. इसी तरह से 35 फीसदी लड़कियां कुपोषण की शिकार हैं, जबकि लड़कों में यह अनुपात 20 फीसदी है.

सोनाली खान के मुताबिक, महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए उन्हें संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए. उन्होंने कहा, 'महिलाओं को संपत्ति और जमीन का अधिकार मिलना चाहिए. इससे उनका सशक्तीकरण होगा और वे निर्णय निर्माण प्रक्रिया में हिस्सेदारी निभा पाएंगी.'

इनपुट IANS से

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