बिहार चुनाव तक कितनी असरदार रहेगी मोदी लहर?

जितना वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता संभालने के बाद बीता है, तकरीबन उतना ही वक्त बिहार में विधान सभा चुनाव में बाकी है. वक्त के इस अंतराल में एक-दो महीनों का फर्क भी हो सकता है.

Advertisement
नरेंद्र मोदी, अमित शाह, किरण बेदी नरेंद्र मोदी, अमित शाह, किरण बेदी

मृगांक शेखर

  • नई दिल्ली,
  • 17 फरवरी 2015,
  • अपडेटेड 1:51 PM IST

जितना वक्त प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता संभालने के बाद बीता है, तकरीबन उतना ही वक्त बिहार में विधान सभा चुनाव में बाकी है. वक्त के इस अंतराल में एक-दो महीनों का फर्क भी हो सकता है.
दिल्ली चुनाव में बीजेपी की हार की चीड़-फाड़ जारी है. अपने अपने तरीके से इसकी चर्चा हो रही है . आमतौर पर इन सब के केंद्र में बीजेपी की सीएम कैंडीडेट रहीं किरण बेदी होती हैं. खुद किरण बेदी ने भी इसकी अपने तरीके से विवेचना की है.

दिल्ली को भूलो, बिहार की सोचो
अपने ताजा ब्लॉग में किरण बेदी लिखती हैं, "मैं परीक्षा में फेल हो गई और मैं अपने फैसले की पूरी जिम्मेदारी लेती हूं. लेकिन मेरी अंतरात्मा फेल नहीं हुई है."

किरण बेदी शुरू से ही बीजेपी के पैतृक संगठन आरएसएस की कसौटी पर कसी जाती रही हैं. आरएसएस के मुखपत्र पांचजञ्य में एक लेख में पहले भी किरण बेदी को लेकर सवाल उठाए जा चुके हैं. अब तो संघ ने मान लिया है कि किरण बेदी को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया जाना बड़ी भूल थी. साथ ही, संघ की नजर में पार्टी कार्यकर्ताओं की अनदेखी भी बीजेपी की हार की बड़ी वजह रही.

फिर भी सवाल घूमते फिरते मोदी के इर्द-गिर्द पहुंच कर चक्कर काटने लगता है. लोक सभा के बाद हुए विधानसभा चुनावों में जीतती आई बीजेपी को इतना जोर का झटका क्यों लगा? आखिर मोदी ने दिल्ली चुनावों में प्रचार में कोई कसर बाकी तो रखी नहीं थी. दिल्ली के नतीजों के तत्काल बाद बीजेपी आलाकमान अमित शाह ने तो कार्यकर्ताओं को बीती बातें भूलकर आगे की सुध लेने की सलाह भी दी थी.

चर्चा तो ये भी है कि आरएसएस ने बिहार चुनाव में प्रचार के लिए मोर्चा भी संभाल लिया है. इस सिलसिले में संघ पदाधिकारियों और बीजेपी नेताओं से मीटिंग अहम मीटिंग भी हो चुकी है.

संघ की फाइनल रिपोर्ट
दिल्ली में हार को लेकर मुखपत्र के जरिए संघ ने पूछा है, 'बीजेपी क्यों हारी? क्या बेदी को सीएम कैंडिडेट बनाना सही था? अगर हर्षवर्द्धन या दिल्ली बीजेपी के दूसरे नेताओं के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया होता तो परिणाम दूसरे होते?'
सवाल और भी हैं. मसलन - क्या बीजेपी नरेंद्र मोदी सरकार की उपलब्धियों को जनता के बीच पहुंचाने में नाकाम रही? क्या पार्टी पूरी तरह मोदी लहर पर निर्भर थी? क्या पार्टी संगठन में एकता, योजना और कार्यकर्ताओं की भावनाओं का सम्मान न होने की वजहों से हारी?

इनमें सलाह भरा एक सवाल भी है, 'बीजेपी नेताओं को इस बात का जवाब खोजना होगा कि उनके पास संघ की विचारधारा और पार्टी कार्यकर्ताओं की प्रतिबद्धता के अलावा और क्या पूंजी है?' चर्चा है कि बिहार में दिल्ली ने दोहराए इसलिए संघ प्रचार की कमान अपने हाथ में लेने की भी सोच रहा है.

दिल्ली की शिकस्त पर फोकस किरण बेदी का ब्लॉग उनकी तमाम उपलब्धियों से भरा तो है ही अंत बेहद इमोशनल है. किरण लिखती हैं, 'आखिर में, जिन लोगों ने मुझमें विश्वास व्यक्त किया उन सबको धन्यवाद देना चाहूंगी. और साथ ही उनको भी जिन्होंने मुझे हरसंभव अपशब्द से संबोधित किया. मुझे राहत होती है कि मेरे मां-बाप यह सब देखने के लिए जिंदा नहीं हैं.' किरण बेदी के निशाने पर कौन कौन है? इसमें यही बात समझने वाली है.

मोदी लहर, कब तक?
क्या बिहार चुनावों तक मोदी लहर उतनी ही असरदार रह पाएगी? विश्व हिंदू परिषद ने शायद इस बात को बेहतर तरीके से समझा है. तभी तो 'लव जिहाद' और 'घर वापसी' जैसे विवादित मुद्दों पर जहरीले बयानों के लिए मशहूर वीएचपी ने इस मामले में अलग स्टैंड लिया है. वीएचपी नेता सुरेंद्र जैन की सलाह है कि विवादित बयान देकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को परेशान करने से हिंदू संगठनों को बाज आना चाहिए. जैन की राय में मोदी जी देश की सरकार चला रहे हैं और ऐसे में उन्हें डिस्टर्ब करना ठीक नहीं होगा. जैन पूछते हैं कि आखिर मोदी जी ने ऐसा कौन सा कदम उठाया है जो देश या हिंदुत्व के खिलाफ जाता हो.
यानी मोदी जी को काम करने का मौका दिया जाना चाहिए. मोदी सरकार काम नहीं करेगी तो लोगों को बताने के लिए बचेगा क्या? और जब सरकार कोई काम ही नहीं कर पाएगी तो लहर किस बात की?

वर्ल्ड कप सीजन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की स्थिति भी क्रिकेट टीम के कप्तान जैसी हो गई है. जीते तो वाह वाह, हारे तो हाय हाय. मोदी ने लोक सभा में बीजेपी को सोच से परे बहुमत दिलाई. महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भी सरकार बनवा दी. जम्मू और कश्मीर में भी सत्ता के समीकरण सेट किए जाने की कोशिश हो ही रही है.

वैसे भी पिछले 12 साल में मोदी एक ही चुनाव तो हारे हैं. और असम के स्थानीय निकाय चुनावों में भी तो बीजेपी जीती ही है - फिर कोई कैसे पूछ सकता है कि मोदी लहर थम गई है. कामयाबी और नाकामी अमूमन देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करती है. अब मोदी जी दिल्ली में एंटी इंकम्बेंसी फैक्टर कहां से लाते?

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement