"बताइए साहब?'' बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 24 फरवरी को आबकारी और पंजीकरण विभाग के सचिव पंकज कुमार से सवाल किया, ''क्या बिहार में शराब पीने वालों की संख्या कम हो गई है? अगर नहीं तो फिर इससे कमाई लक्ष्य के बराबर क्यों नहीं है? हम शराब की बिक्री को बढ़ावा नहीं देना चाहते, इसीलिए हमने उस पर ड्यूटी बढ़ाकर शराब महंगी कर दी. लेकिन विभाग टैक्स वसूली का लक्ष्य पूरा क्यों नहीं करता? मुझे बताइए कि मुश्किल क्या है.'' 1997 बैच के आइएएस अधिकारी पंकज अकेले नहीं हैं, जिनके विभाग का काम 9 माह बाद सरकार के कामकाज का हिसाब लेने के लिए बैठे नीतीश को कमजोर लगा.
नीतीश ने वाणिज्यिक कर सचिव ई.एल.एस.एन. बाला प्रसाद से सवाल किया कि राजस्व इतना कम क्यों जमा हुआ है? प्रसाद ने दलील दी कि इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन से 950 करोड़ रु. की जो अप्रत्याशित आमदनी होने वाली थी, वह कानूनी पचड़ों की वजह से राज्य के खजाने में नहीं पहुंची. नीतीश ने इस दलील को खारिज करते हुए पूछा, ''क्या हमने लक्ष्य तय करते समय इंडियन ऑयल से आने वाले 950 करोड़ रु.भी हिसाब में रखे थे? अगर नहीं तो फिर लक्ष्य में कमी की बात करते समय इसका जिक्र क्यों आया? अचानक होने वाले विंडफॉल (अप्रत्याशित लाभ) को पहले से तो योजना में नहीं जोड़ा जाता न.'' नीतीश की आवाज तेज नहीं थी, लेकिन तर्क अकाट्य थे. मई, 2014 में लोकसभा चुनाव में पार्टी की खस्ता हालत के बाद इस्तीफा देकर भले वे सत्ता से बाहर रहे पर विभागों का चिट्ठा उन्हें अधिकतर सचिवों से बेहतर याद है और वे सारे बहानों का सच पढ़ सकते हैं.
उस बैठक के कुछ घंटे बाद ही मुख्यमंत्री के सीधे नियंत्रण में बिहार के सामान्य प्रशासन विभाग ने जब मंगलवार को 22 सरकारी अफसरों के तबादले के आदेश जारी किए तो उनमें पंकज कुमार और बाला प्रसाद दोनों के नाम थे.
22 फरवरी को चौथी बार मुख्यमंत्री पद संभालने के बाद नीतीश बहुत जल्दी में हैं. अभी एक हफ्ता भी नहीं बीता है कि जी-जान से काम में जुट गए हैं. नई पारी शुरू करने के एक ही दिन बाद नीतीश ने प्रधान सचिवों और सचिवों सहित 22 आइएएस अधिकारियों का तबादला कर दिया और अपने करीबी माने जाने वाले अफसरों को जरूरी काम सौंप दिए. उन्होंने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए जिला अधिकारियों और पुलिस अधीक्षकों से बात की और चेतावनी दी कि अगर कानून और व्यवस्था के मामले में जरा-सी भी ढील हुई तो उन्हें बख्शा नहीं जाएगा. इससे पहले अक्सर नीतीश पर अफसरशाहों का पक्ष लेने की तोहमत लगती रही है पर इस बार लगता है कि वे ठान कर आए हैं कि अगर बाबुओं ने नतीजे नहीं दिए तो सजा भुगतेंगे. इस साल अक्तूबर-नवंबर में निर्धारित अगले विधानसभा चुनाव तक अभी नीतीश के पास सात माह से कुछ ज्यादा समय है पर उन्होंने अपने भरोसेमंद अफसरों को प्रोजेक्ट पूरे करने और ठोस नतीजे देने के लिए 15 जून तक का वक्त दिया है.
2006 में जब नीतीश ने मुख्यमंत्री की कुर्सी पर अपना पहला कार्यकाल शुरू ही किया था, तभी उन्होंने अपराध पर लगाम कसने के लिए मुकदमों की तेजी से सुनवाई का सिलसिला शुरू किया था. यह व्यवस्था कामयाब भी रही थी. 2006 से 2011 तक 56,000 से अधिक अपराधियों को सजा हुई थी. लेकिन शुरू में अपराध दर कम करने वाली यह व्यवस्था बाद में ढीली पड़ गई. इस बार नीतीश 2006-2007 के काम के धुनी अवतार में अधिक लगते हैं. वे 2013-2014 की उस छवि से काफी अलग हैं जब मुख्यमंत्री के कंधों पर सोशल इंजीनियरिंग की चिंताओं का बोझ जरूरत से ज्यादा नजर आता था. वे जानते हैं कि सोशल इंजीनियरिंग के मुकाबले सुशासन उन्हें कहीं ज्यादा वोट दिला सकता है.
ऐसा लगता है कि नीतीश ने अपने सबक सीख लिए हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति उनकी नापसंदगी के गायब होने का संकेत तब मिला जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठते ही नीतीश ने कहा, ''हमारी राजनैतिक गतिविधियां जारी रहेंगी. राजनैतिक मुद्दे राजनैतिक मंचों से उठेंगे. उनका असर प्रशासन पर नहीं पड़ेगा. बिहार के हित में मैं प्रधानमंत्री के साथ मिलकर काम करूंगा.'' जबकि नीतीश 2009 से मोदी से मिलने से बचते रहे हैं. जून 2013 में मोदी को बीजेपी प्रचार समिति प्रमुख की कमान सौंपे जाने पर बीजेपी से गठबंधन तोड़ दिया था. तब से वे मोदी के सबसे कटु आलोचकों में एक रहे हैं. जेडी(यू) के एक वरिष्ठ नेता ने माना, ''लगता है, नीतीश समझ गए हैं कि मोदी की जितनी ज्यादा आलोचना की जाएगी और धर्मनिरपेक्षता का बखान किया जाएगा, उतना ही ज्यादा बीजेपी के पक्ष में ध्रुवीकरण होगा.'' लगता है, नीतीश ने मांझी से भी टकराव मोल न लेने का फैसला किया है.
नीतीश को सड़क, शिक्षा, बिजली और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सुधरी हालत का श्रेय काफी हद तक दिया जाता है. इन सबसे उनका कद कई इंच बढ़ा है. लेकिन जून, 2013 में बीजेपी से नाता तोड़ने के बाद से जोश कुछ कम होता लगा और नीतीश खुद को लालू से अधिक धर्मनिरपेक्ष साबित करने की होड़ में व्यस्त होते गए. प्रशासन अपने लक्ष्य से भटक गया और मई 2014 में जब नीतीश ने मांझी को अपना उत्तराधिकारी बनाया तब तो हालत और बिगड़ गई. अपनी बदलती तस्वीर के लिए चर्चा में आए बिहार में एक बार फिर संकीर्ण जातिवादी राजनीति की फसल लहलहाने लगी. इस बार नीतीश हवा का रुख पलटना चाहते हैं और कुछ ठोस करना चाहते हैं.
वहीं बीजेपी मांझी को साथ लेकर सवर्णों का सतरंगी गठजोड़ करने के लिए पसीना बहा रही है. मांझी भी अपने संरक्षक जगन्नाथ मिश्र के साथ भविष्य की रणनीति बना रहे हैं. दोनों इस जुगत में हैं कि नीतीश को रोकने के लिए ब्राह्मणों और दलितों को मिलाकर ऐसा नया जातिगत गठजोड़ कैसे कायम किया जाए. लेकिन नए जज्बे से लैस नीतीश बदले नजर आ रहे हैं और अतीत से उलट विनम्रता के साथ जुट गए हैं.
अमिताभ श्रीवास्तव