नदी परियोजनाः मिट्टी में मिल जाएगी नदी

हिमालय से लेकर पश्चिमी घाटों तक मोदी सरकार एक भव्य नदी जोड़ परियोजना को आगे बढ़ाने में जुटी है, जिससे मिलने वाले लाभ अब भी सवालों के घेरे में हैं.

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असित जॉली

  • नई दिल्ली,
  • 19 अप्रैल 2016,
  • अपडेटेड 12:02 PM IST

बाघों के लिए प्रसिद्ध पन्ना टाइगर रिजर्व के भीतर विंध्य श्रृंखला की प्राचीन बलुआ चट्टानों पर एक लाल रंग की लकीर दिखाई देती है, जिसे हाल ही में पेंट से खींचा गया है. यह रेखा मध्य प्रदेश की केन नदी पर प्रस्तावित 77 मीटर ऊंचे और 2.03 किमी लंबे धौदन बांध की चल रही नापजोख के बारे में बताती है. यह बांध उन 3,000 विशाल बांधों और स्टोरेज के ढांचों में से होगा, जिन्हें एक भव्य योजना के तहत नरेंद्र मोदी सरकार 37 बड़ी नदियों के कुदरती बहाव को आपस में जोडऩे के लिए बनाना चाहती है. इसका लक्ष्य भविष्य में देश की पानी की जरूरतों को पूरा करना है.

यह बेहद महत्वाकांक्षी परियोजना है, जिसे कुछ लोग 'धृष्टता' का भी नाम दे रहे हैं. इसे दुनिया की सबसे बड़ी सिंचाई परियोजना का नाम दिया जा रहा है, जिसके तहत सरकार नदी जोड़ परियोजना (आइएलआर) में 30 नदियों को आपस में जोड़ना चाहती है. आइएलआर के लिए 15,000 किमी लंबी नई नहरें भी खोदनी होंगी, जिसमें 174 घन किमी पानी का भंडारण किया जा सकेगा. यह पानी दिल्ली या मुंबई के आकार के 100 से ज्यादा महानगरों की पानी की सालाना जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त होगा. जल संसाधन विकास के लिए 1982 से चली आ रही राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (एनपीपी) के अंतर्गत 30 नदी जोड़ परियोजनाओं—जिनमें 14 नदियां हिमालयी और शेष 16 प्रायद्वीपीय हैं—का खाका तैयार करने वाली राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (एनडब्ल्यूडीए) पहले से ही इसके 'लाभों' की सूची तैयार किए बैठी है.

अंतिम उपाय
एनडब्ल्यूडीए के महानिदेशक 56 वर्षीय एस. मसूद हुसैन अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से प्रशिक्षित सिविल इंजीनियर हैं, जिनके पास बड़े बांधों को डिजाइन करने का तीन दशक लंबा अनुभव है. इनमें इंदिरा (नर्मदा) सागर बांध भी शामिल है. वे कहते हैं कि आइएलआर भारत की मौजूदा 42,200 मेगावाट जलविद्युत उत्पादन क्षमता (मध्यम और बड़ी परियोजनाओं से) को दोगुना कर देगी और इसमें अतिरिक्त 34 गीगावाट बढ़ा देगी. मसूद कहते हैं कि मॉनसून पर निर्भर साढ़े तीन करोड़ हेक्टेयर भूमि को सींचने के अलावा देश की सिंचाई क्षमता को 2050 तक 14 करोड़ हेक्टेयर से 17.5 करोड़ हेक्टेयर तक बढ़ाने के लिए आइएलआर ही इकलौता वास्तविक उपाय है. यह भी माना जा रहा है कि  तब आबादी 1.6 अरब को छू जाएगी.

नई दिल्ली स्थित साउथ एशिया नेटवर्क ऑफ डैम्स, रीवर्स ऐंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के 'अनाधिकारिक' अनुमानों के मुताबिक, यह परियोजना करीब 15 लाख लोगों को उनके आशियानों से विस्थापित कर देगी. ऐसा कम से कम 27.66 लाख हेक्टेयर भूमि के डूब जाने के कारण होगा, जिनकी जरूरत स्टोरेज ढांचों और नियोजित नहरों के नेटवर्क के लिए पड़ेगी. मामला सिर्फ मानवीय क्षति का ही नहीं है. इस परियोजना के तहत जो कुल क्षेत्रफल जा रहा है, उसमें 1,04,000 हेक्टेयर वन भूमि भी है, जिसमें अभयारण्य और प्राणी उद्यान आते हैं.

इसके अलावा यह परियोजना बेहद महंगी होगी. इसकी लागत 2002-03 की कीमतों के आधार पर 5.6 लाख करोड़ रु. आंकी गई थी. केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्री उमा भारती इंडिया टुडे को बताती हैं, ''अब आइएलआर की लागत 11 लाख करोड़ रु. आएगी.'' इसमें भूमि अधिग्रहण, मुआवजा और पुनर्निर्माण वगैरह की लागत भी शामिल है. हुसैन के मुताबिक, प्रत्येक जोड़ के लिए आखिरी लागत का अनुमान तभी हो पाएगा जब हर मामले की ''विस्तृत परियोजना रिपोर्ट को तकनीकी और आर्थिक मंजूरी दे दी जाएगी.''

पुराना सपना
नदियों की धारा को मोड़ने का सपना कोई नया नहीं है. एक ब्रिटिश सैन्य इंजीनियर आर्थर थॉमस कॉटन ने 1858 में ही बड़ी नदियों के बीच नहर जोड़ का प्रस्ताव दिया था ताकि ईस्ट इंडिया कंपनी को बंदरगाहों की सुविधा हो सके और दक्षिण-पूर्वी प्रांतों में बार-बार पड़ने वाले सूखे से निपटा जा सके. तीन सरकारों में लगातार सिंचाई और बिजली मंत्री रह चुके कनूरी लक्ष्मण राव ने 1972 में 2,640 किमी लंबी एक महत्वाकांक्षी नहर का प्रस्ताव दिया था, जो पटना के करीब गंगा से मॉनसून में आने वाले बाढ़ के पानी को दक्षिण में कावेरी तक पहुंचा सके. दो साल बाद पेशेवर पायलट से जल प्रबंधन विशेषज्ञ बने दिनशॉ जे. दस्तूर ने हिमालय और पश्चिमी घाटों में लंबी दूरी से सिंचाई के लिए आपस में जुड़ी हुई नहरों (गारलैंड कनाल) के एक तंत्र की वकालत की थी.

देश में जल प्रबंधन से जुड़ी नौकरशाही पर लंबे समय तक नदियों को जोड़ने के भव्य विचार का प्रभाव बना रहा. दस्तूर के प्रस्ताव को आर्थिक रूप से अव्यवहारिक करार देकर खारिज किए जाने के एक दशक बाद जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्रालय के अधीन एक स्वायत्त सोसाइटी के तौर पर एनडब्ल्यूडीए की स्थापना की गई, जिसका काम 1980 के एनपीपी में आइएलआर के प्रस्तावों की समीक्षा करना था. एनडब्ल्यूडीए ने 14 मैदानी और 14 में से नौ हिमालयी नदियों के जोड़ की परियोजना पर अपनी रिपोर्ट पूरी कर ली है.

प्रायद्वीपीय भारत में 'प्राथमिकता' के आधार पर शुरुआती चार जोड़ों के लिए डीपीआर भी तैयार है. कई सरकारों ने कई साल तक एनडब्ल्यूडीए के प्रस्तावों की आश्चर्यजनक रूप से अनदेखी की है. यह स्थिति अक्तूबर, 2002 तक बनी रही, जब सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने इस पर कार्रवाई का निर्देश दिया. तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इसके बाद काफी तेजी से कार्यक्रम को गति देते हुए एक राष्ट्रीय कार्यबल का गठन कर डाला. हालांकि अब तक इस दिशा में कुछ खास नहीं हो सका है.

साकार होता सपना
यूपीए-1 और यूपीए-2 के राज में पूरे एक दशक तक उपेक्षित किए जाने के बाद अब एनडीए-2 के राज में आइएलआर कार्यक्रम की दूसरी जीत हुई है. यूपीए में पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश ने इस परियोजना को 'विनाशक' बताया था. दिल्ली की सत्ता में आने के एक महीने पहले ही मोदी ने इस कार्यक्रम पर अपनी मंशा जाहिर कर दी थी, जब बिहार में अप्रैल, 2014 में आयोजित एक चुनावी रैली के बाद उन्होंने ट्वीट किया, ''नदियों को जोडऩे का अटलजी का सपना ही हमारा भी सपना है. हमारे मेहनती किसानों को यह ताकत दे सकता है.''

केंद्र का यह आत्मविश्वास फरवरी, 2012 में आए एक-दूसरे फैसले से भी बढ़ा, जिसमें तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस.एच. कपाड़िया और अब राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) के अध्यक्ष स्वतंत्र कुमार की, सुप्रीम कोर्ट की एक खंडपीठ ने कहा कि यह कार्यक्रम 'राष्ट्रहित में है.' उन्होंने नदियों को जोडऩे के लिए एक विशेष कमेटी बनाने का भी आदेश दिया था.

इसके बाद मोदी सरकार ने पूरी तत्परता के साथ 23 सितंबर, 2014 को जल संसाधन, नदी विकास और गंगा सफाई मंत्रालय के अंतर्गत एक विशेष समिति का गठन कर डाला. अप्रैल, 2015 में एक स्वतंत्र कार्यबल भी मंत्रालय के मुख्य परामर्शदाता बी.एन. नवलावाला की अध्यक्षता में गठित कर दिया गया, जिसका काम परियोजनाओं में तेजी लाने के लिए उनकी पहचान करना और इससे संकोच कर रहे कई राज्यों को राजी करना था. मोदी के प्रधानमंत्री बनने के 22 महीने बाद आज पहली परियोजना निर्माण के चरण तक पहुंच चुकी है—एक लिंक नहर, जो मध्य प्रदेश के (पन्ना टाइगर रिजर्व के भीतर स्थित) धौदन के पास केन नदी से सालाना 107.4 करोड़ घन मीटर पानी निकालकर यूपी में 221 किमी दक्षिण में स्थित बेतवा नदी तक पहुंचाएगी.

प्राथमिकता के स्तर पर पहचाने गए पांच लिंक में से इस पहले केन-बेतवा लिंक को लेकर काफी जल्दबाजी है. भारती इसे 'मॉडल परियोजना' कहती हैं, जिसमें परियोजना लागत 15,000 करोड़ रु. का एक-तिहाई यानी 6,323 करोड़ रु. पर्यावरण प्रबंधन और पुनर्वास के लिए नियोजित है. हुसैन इसके फायदों की बात करते हुए कहते हैं कि इससे ''मध्य प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़ और पन्ना से लेकर उत्तर प्रदेश के महोबा, झांसी और बांदा में कुल 6.35 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई संभव होगी, दोनों राज्यों में 13.42 लाख लोगों को पीने का पानी मिलेगा और दो पनबिजली घरों से 78 मेगावाट की बिजली पैदा होगी.'' सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है, बशर्ते ऐसा संभव हो पाता.

बुरा विज्ञान, अच्छा विज्ञान
अपनी जिंदगी का बड़ा हिस्सा बड़े बांधों की समर्थक लॉबी से लड़ते हुए बिता चुके एसएएनडीआरपी के समन्वयक 53 वर्षीय हिमांशु ठक्कर 27 फरवरी, 2012 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को 'न्यायिक अतिक्रमण' का नाम देते हैं. केन-बेतवा परियोजना पर बात करते हुए ठक्कर आइएलआर कार्यक्रम के मूल तर्क पर ही सवाल खड़ा करते हैं. वे कहते हैं, ''सरकार जो करना चाह रही है, उसे सही ठहराने के लिए कोई वैज्ञानिक साक्ष्य मौजूद नहीं हैं.'' वे कहते हैं कि 'अतिरिक्त जल' और 'जलाभाव' वाली नदी घाटियों के बारे में एनडब्ल्यूडीए का सरलीकरण 'भ्रामक और संदिग्ध वैज्ञानिक आंकड़ों' पर आधारित है.

ठक्कर मानते हैं कि एनडब्ल्यूडीए के किए गए कई जल संतुलन अध्ययनों में (137 घाटियों और उपघाटियों के लिए) 'जान-बूझकर हेर-फेर' की गई है, जबकि 1982 के बाद से एजेंसी के किए गए ज्यादातर अध्ययनों की रिपोर्टें  ''अपडेट नहीं हैं क्योंकि तब से लेकर अब तक इन तमाम नदी घाटियों में जल उपयोग के बदलते हुए चलन ने पानी की उपलब्धता को कम कर दिया है.'' ठक्कर इस ओर भी इशारा करते हैं कि एनडब्ल्यूडीए ने ''किसी नदी घाटी को अतिरिक्त या अभाव वाली घोषित करने से पहले जान-बूझकर जल संसाधन प्रबंधन के सभी विकल्पों के परीक्षण को नजरअंदाज किया है.'' वे कहते हैं कि जिन जल संतुलन अध्ययनों के आधार पर केन को अतिरिक्त और बेतवा को अभावग्रस्त बताया जा रहा है, वे पूर्वाग्रहपूर्ण हैं. ''दोनों नदियों की हालत तकरीबन एक-सी है.''

जमीन पर भी किसी 'अतिरिक्त पानी के साक्ष्य मामूली हैं. जिस जगह 77 मीटर ऊंचा धौदन बांध बनाया जाना है, वहां से नदी के प्रवाह की दिशा में ढाई किमी दूर स्थित एक पुराना बंधा गंगऊ पिछले अक्तूबर में ही तकरीबन सूखा हुआ था और अपने भंडारण स्तर से काफी नीचे था. पन्ना टाइगर रिजर्व के भीतर स्थित नौ गांवों की ही तरह धौदन में भी रहने वाले लोग आदिवासी समुदाय के हैं, जिनके पास न बिजली, न पानी और न ही संचार की कोई सुविधा है. अपनी जरूरतें वे पुराने दूषित कुओं से पूरी करते हैं.
एक और खराब मॉनसून रहने के कारण केन नदी वैसे ही सूखी हुई है और वह भी उनसे बहुत दूर है. पन्ना जिले में हालत और भी बुरी है.पास में ही स्थित मशहूर मंदिर खजुराहो में सुरक्षाकर्मी मोहनलाल गौतम केन से बेतवा में पानी भेजे जाने की योजना पर अचरज जताते हुए कहते हैं, ''बेतवा में पानी ज्यादा है!'' इसके बाद हालांकि वे तुरंत ही अपने को दुरुस्त करते हुए कहते हैं, ''साहब, यह सरकार का काम है, कुछ भी हो सकता है.''

सागौन के घने जंगलों के बाहर की जमीन पूरी तरह सूखी हुई है. टाइगर रिजर्व के पास केन रीवर लॉज चलाने वाले 52 वर्षीय श्यामेंद्र सिंह इस इलाके में सूखे की पुष्टि करते हैं. वे बताते हैं कि बड़े पैमाने पर सूखे से प्रभावित किसान और खेतिहर मजदूर अब पलायन की तैयारी कर रहे हैं. केन घाटी के इलाके में एक के बाद एक बाढ़ और सूखे वाला मॉनसून आता रहा है. जल कार्यकर्ता 'केन और बेतवा घाटियों में लगातार बदलते बाढ़ और सूखे' की बात करते रहे हैं, जो केन में अतिरिक्त पानी होने के एनडब्ल्यूडीए के दावों के लिए एक चुनौती है.

हुसैन कहते हैं कि ये सारी आलोचनाएं ''बिना वैज्ञानिक आधार के केवल शंकाओं, भय और पूर्वाग्रहों पर आधारित हैं.'' दक्षिणी दिल्ली स्थित एनडब्ल्यूडीए के दक्रतर में अपने चैंबर में बैठे हुसैन बड़े बांधों का समर्थन करते हुए कहते हैं, ''भारत में विकास पर बहस पक्षपातपूर्ण रही है. आंदोलनकारी निहित स्वार्थों के लिए परियोजनाओं का विरोध करते हैं और प्रेस उनकी बात को तूल देता है.'' वे इस बात पर जोर देते हैं कि ''भारत को और बड़े बांधों की जरूरत है, यह एक सचाई है.''

आंकड़े इस बात का समर्थन करते दिखते हैं. खाद्य और कृषि संगठन की 2015 में आई जल विकास और प्रबंधन इकाई की रिपोर्ट प्रति व्यक्ति जल भंडारण (बड़े और छोटे बांधों से) के मामले में भारत को मेक्सिको, चीन और दक्षिण अफ्रीका से नीचे रखती है. कुल 250 बीसीएम (अरब घन मीटर) की सालाना भंडारण क्षमता के साथ भारत में एक औसत भारतीय की सालाना केवल 225 घन मीटर पानी तक पहुंच होती है. रूस में यही आंकड़ा 6,130 घन मीटर और ऑस्ट्रेलिया में 4,733 घन मीटर है, जिसकी तुलना में भारत बहुत पीछे है. यहां तक कि चीन (1,111 घन मीटर) और दक्षिण अफ्रीका (753 घन मीटर) भी भारत से बहुत आगे हैं. सभी संसाधनों से प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता भारत में 1,545 घन मीटर है जो 'संकट' के स्तर के काफी करीब है. यहां 22 करोड़ से ज्यादा भारतीय 1,000 घन मीटर से कम पानी में काम चलाते हैं, जो कि न्यूनतम स्तर है.

आइएलआर परियोजना का समर्थन करने वाले कहते हैं कि ''यही इकलौता उपाय है.'' वे 2050 में भारत की अनुमानित 1.6 अरब आबादी की ओर इशारा करते हैं. हुसैन कहते हैं, ''हमें अनाज की पैदावार को मौजूदा 26.5 करोड़ टन से बढ़ाकर 45 करोड़ टन करने की जरूरत है और यह आइएलआर जैसे गैरपारंपरिक तरीकों के बगैर असंभव है.''

भयानक दृष्टि भ्रम
सवाल है कि मोदी सरकार जिस सपने के पीछे भाग रही है, कहीं वह खतरनाक तो नहीं है. एक मिसाल लें: बड़ी और मझोली सिंचाई परियोजनाएं या बड़े बांध 1.6 करोड़ हेक्टेयर जमीन को पानी देते हैं, जो कुल सिंचित क्षेत्रफल (6.6-6.8 करोड़ हेक्टेयर) का एक-चौथाई है. ठक्कर कहते हैं, ''इन परियोजनाओं से अब तक अधिकतम हासिल कवरेज 1991-92 में (1.77 करोड़ हेक्टेयर) रहा है.'' वे अक्सर भुला दिए जाने वाले इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि भारत की मौजूदा सिंचाई संबंधी 60 फीसदी से ज्यादा जरूरतें भूजल और छोटी सिंचाई परियोजनाओं से पूरी हो रही है. हर साल यह रुझान बढ़ रहा है.

इतना ही नहीं, नवंबर 2000 में विश्व बांध आयोग की प्रकाशित एक रिपोर्ट ने बताया कि भारत में बमुश्किल 10-12 फीसदी अनाज की पैदावार बड़े बांधों के सहारे होती है. ठक्कर बताते हैं कि भूजल को नहर सिंचाई के मुकाबले 70 फीसदी ज्यादा उत्पादक माना जाता है और यही भारत की असली जीवनरेखा है जिसे परंपरागत रीचार्ज प्रणालियों और उपयोग नियमन के माध्यम से पोषित और संरक्षित करना होगा. वे कहते हैं कि आइएलआर अगर लागू हो गया तो यह उसी संसाधन को खतरे में डाल देगा, जिस पर भारत की खाद्य सुरक्षा टिकी हुई है.

पूर्व जल संसाधन सचिव और आइएलआर के धुर विरोधी दिवंगत रामास्वामी अय्यर ने इस कार्यक्रम को 'तकनीकी दुस्साहस' कहते हुए खारिज कर दिया था. उनका यह कथन काफी मशहूर हुआ था कि ''नदी कोई पाइपों का बंडल नहीं होती कि उसे अपनी मर्जी से काटा, मोड़ा और फिर जोड़ा जा सके.'' ठक्कर कहते हैं कि यह कार्यक्रम भूजल शुद्धिकरण को खतरे में डाल देगा ''क्योंकि बांध से बाधित होने के कारण नदियों की धाराएं अपनी क्षमता खो देंगी.''

आइएलआर के आलोचक कहते हैं कि यह कार्यक्रम पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ है जो कुदरती नदियों, जलीय और मैदानी जैव-विविधता को तबाह कर देगा और भंडारण के लिए बनने वाले जलाशयों से निकलने वाली मीथेन गैस और लवणता में इजाफा करेगा. इस मुद्दे पर काम करने वाले कार्यकर्ता कहते हैं, ''जल्दबाजी में सरकार लिंक के पर्यावरणीय प्रभावों को नजरअंदाज कर रही है. कुल 30 आइएलआर परियोजनाओं से होने वाले नुक्सान की भरपाई नहीं हो सकेगी.''

यह नुक्सान आधा भी नहीं है. योजना आयोग के 2009 से 2014 के बीच सदस्य रहे 59 वर्षीय मिहिर शाह इस साक्ष्य की ओर इशारा करते हैं कि ''आइएलआर कार्यक्रम मॉनसून चक्र को बहुत गहरे प्रभावित करेगा.'' नदियों का प्रवाह बंगाल की खाड़ी में समुद्र की सतह के तापमान को ज्यादा रखने में मदद करता है, जो कम दबाव के क्षेत्रों के निर्माण और तीव्र मॉनसून के लिए निर्णायक होता है. शाह कहते हैं कि समुद्र में जा रहे नदी के पानी को कम करने से ''उपमहाद्वीप में जलवायु और बारिश के लिहाज से लंबे समय में गंभीर परिणाम देखने को मिल सकते हैं.''

दिलचस्प है कि खुद बीजेपी के भीतर ऐसे लोग हैं जो इस परियोजना से सहमत नहीं हैं. महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी पहले खुद पर्यावरण मंत्री रह चुकी हैं और पिछले साल 4 दिसंबर को जलवायु परिवर्तन में भारत की भूमिका और ग्लोबल वार्मिंग पर बोलते हुए उन्होंने टीवी पर खुले तौर पर नदी जोड़ परियोजना की आलोचना की थी. मोदी की कैबिनेट में मंत्री बनने से पहले मई, 2014 में उन्होंने कहा था कि दो नदियों का जोड़ा जाना ''बेहद खतरनाक'' है.

इसके अलावा महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस भी इस कार्यक्रम को लेकर संदेह में हैं. पिछली 21 जुलाई को विधानसभा की एक बहस में मुख्यमंत्री ने सीधे तौर पर कहा था कि देश के 40 फीसदी बड़े बांध राज्य में हैं. इसके बावजूद राज्य का 82 फीसदी हिस्सा बारिश पर निर्भर है.

कई राज्यों ने आइएलआर परियोजना का विरोध करते हुए एनडब्ल्यूडीए के जल संतुलन आकलन पर सवाल खड़े किए हैं. ओडिशा ने महत्वाकांक्षी महानदी-गोदावरी लिंक परियोजना का प्रस्ताव केंद्र से जून, 2015 में भेजे जाने के थोड़े दिनों बाद ही ठुकरा दिया था. मणिभद्र में बड़े बांध के कारण पैदा होने वाली डूब को लेकर जाहिर चिंताओं पर प्रतिक्रिया देते हुए नवलावाला कार्यबल एक वैकल्पिक रणनीति का दस्तावेज तैयार कर रहा है.

इस कार्यक्रम में कोई भी ढिलाई न करते हुए भारती अगले छह साल में शुरुआती तीन परियोजनाएं पूरा करने का वादा कर रही हैं. केन-बेतवा के पहले चरण का काम शुरू करने की तारीख मार्च 2016 तक दो बार ही बढ़ाई जा चुकी है. हुसैन ने 12 अप्रैल को इंडिया टुडे को बताया कि राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड और जल संसाधन मंत्रालय की पर्यावरण आकलन समिति की मंजूरी के बाद नई तारीख तय की जाएगी.

मार्च 2012 में सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण ने कहा था, ''नदी जोड़ का विचार अपनी भव्यता के कारण अच्छा लगता है, लेकिन यही कारण है कि यह एक भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं रह जाता, जो सभी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने की जिम्मेदारी से ध्यान भटका देगा.'' क्या वास्तव में यह बहुत बड़ा भ्रम है?

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