कोई है, जो सुब्रह्मण्यम स्वामी से न डरता हो?

उन्हें पूरी दुनिया से गिला-शिकवा है. वे ऊपर से कितने भी बड़े ड्रामेबाज नजर आएं, लेकिन इस सबके पीछे है उनकी कुशाग्र बुद्धि.

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सुब्रह्मण्यम स्वामी सुब्रह्मण्यम स्वामी

सौगत दासगुप्ता

  • नई दिल्ली,
  • 05 जुलाई 2016,
  • अपडेटेड 2:55 PM IST

सुब्रह्मण्यम स्वामी को सार्वजनिक रूप से फटकार लगाने का अवसर मिलने पर भी प्रधानमंत्री ने विवेक से काम लिया. उन्होंने किसी का नाम लिए बिना रिपोर्टरों से कहा कि वे 'प्रचार के भूखे' लोगों को महत्व न दें. उन्होंने उन लोगों को संयम बरतने की चेतावनी दी जो खुद को 'पार्टी से बड़ा' समझते हैं. स्वामी जिस तरह से पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के पीछे हाथ धोकर पड़े रहे और जिसके चलते अंततः राजन को पद छोडऩा पड़ा, और फिर सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम की आलोचना करने में जुट गए, उससे मीडिया में उन्हें खूब जगह मिली थी.

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पीएम के फटकार का अंदाज
कुछ हलकों में जिसे 'झिड़की' या 'फटकार' बताया गया है, वह दरअसल पार्टी का अनुशासन तोड़ने की धृष्टता के लिए एक हल्का शब्द है. कांग्रेस ने इस पर उपहास के अंदाज में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए मोदी के जवाब को एक 'सलाह' बताया न कि 'कार्रवाई.'

क्यों भेजे गए राज्यसभा?
बीजेपी के सूत्रों ने इंडिया टुडे को बताया कि मोदी राज्यसभा में स्वामी को सीट देने के मामले में काफी हिचक रहे थे, कैबिनेट में जगह देने की तो बात ही दूर है, जबकि स्वामी 2014 में इसके लिए बेहद लालायित थे. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में कुछ प्रभावशाली लोगों ने मोदी से स्वामी के लिए सिफारिश की थी, लेकिन अब अपना चेहरा छिपाने की कोशिश कर रहे वही लोग इस बात से चिंंतित हैं कि स्वामी ने बहुत ज्यादा छूट ले ली थी.

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'विवादों में रहना स्वामी की आदत'
बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि स्वामी को राज्यसभा में लाने का फैसला सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था ताकि उन्हें काबू में रखा जा सके. अपना नाम गुप्त रखने का अनुरोध करते हुए उस नेता का कहना था, 'प्रधानमंत्री कितने सही साबित हुए. अगर स्वामी को कैबिनेट में लिया गया होता तो सरकार की शांति भंग हो गई होती.' बीजेपी के एक अन्य नेता ने अपने आरामदेह दफ्तर, जहां बड़ा-सा तिरंगा लहरा रहा था, के भीतर बैठे हुए कहा 'किसी भी मंत्रालय में वरिष्ठ पद या कैबिनेट रैंक देने का अब सवाल ही नहीं था.' लेकिन उनका कहना था उनकी राय में स्वामी यह सब किसी राजनैतिक महत्वाकांक्षा के कारण नहीं कर रहे थे. उन्होंने कहा, 'आपको समझना होगा कि डॉ. स्वामी अपनी आदत से मजबूर हैं. उन्हें विवाद खड़ा करने में आनंद आता है.'

क्या रहा है इतिहास?
वास्तव में स्वामी के साथ द्वेष का एक जटिल इतिहास रहा है. बीजेपी के सूत्र स्वीकार करते हैं कि उनका मौजूदा बैर केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली से है. ट्विटर पर, जहां उनके 28 लाख फॉलोवर हैं, स्वामी खास तरह की भाषा का इस्तेमाल करते हैं, जिसमें बात को घुमा-फिराकर कहते हैं, जो उनके फॉलोवरों को गुदगुदाती है. उदाहरण के लिए राहुल गांधी को 'बुद्धू' और 'बांबिनो' की उपाधि दी गई है, सोनिया गांधी को कुछ गूढ़ रूप में रावण की दादी ताड़का के नाम पर टीडीके नाम दिया गया है, अरविंद केजरीवाल का नाम श्री 420 रखा गया है, आम आदमी पार्टी के अनुयायियों को आपटार्ड्स, कांग्रेस को कोंगी से संबोधित किया जाता है.

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निशाने पर जेटली
स्वामी के फॉलोवरों का अनुमान है कि जेटली महाभारत के शकुनि हैं, जिनके कारण कुरुक्षेत्र का युद्ध हुआ था. स्वामी हालांकि 77 साल के हो चुके हैं, फिर भी वे ट्विटर पर बिल्कुल सहज हैं. वे पिछले सात वर्षों से ट्विटर पर लिखते आ रहे हैं, जिनमें उनका झगड़ालू स्वभाव अपमान करने और खुले तौर पर धमकी देने के रूप में दिखाई देता है. उदाहरण के लिए इस आलेख के लिखे जाने के दिन ट्विटर पर उनकी एक अजीब धमकी देखी जा सकती हैः 'अब वह एमएसएम चुप हो गया है और टीडीके के कहने पर मुझ पर लांछन लगाना बंद कर दिया है. मैं समझता हूं कि यह सुधारने का वक्त आ गया है."

इस ट्वीट में वह सब कुछ है जो उसके फॉलोवर चाहते हैं—मुख्यधारा का मीडिया, सोनिया गांधी, निंदा, सुधारने का वक्त. ट्विटर पर स्वामी एक आग लगाने वाले की तरह हैं, जो सब कुछ जलाकर राख कर देने के लिए तैयार है. जेटली को वित्त मंत्रालय के अधिकारी सुब्रह्मण्यम की आलोचना करके भड़काया गया, जिसके बाद जेटली ने संयम बरतते हुए अपनी प्रतिक्रिया दी. वित्त मंत्रालय के कुछ उच्च पदस्थ सूत्रों ने स्वामी के ट्वीटों को खारिज करते हुए ''प्रचार का स्टंट" बताया. इस बीच जेटली ने अपनी नाराजगी जताते हुए इसे ''एक अनुशासित सरकारी अधिकारी पर गलत और झूठा हमला" बताया. जेटली को पता होना चाहिए कि स्वामी का क्या इतिहास रहा है, वे यह सब करके करीब 50 वर्षों से खबरों में रहते आए हैं.

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चर्चा में रहते हैं विवाद
स्वामी का बैर नाटकीय और तमाशेबाजी वाला होता है. इसमें कोई शक नहीं कि वे बहस के स्तर को बहुत नीचे ले आते हैं. लेकिन यह भी सच है कि उनकी तीक्ष्ण बुद्धि से कोई इनकार नहीं कर सकता है. अपने इसी स्वभाव के अनुसार, यह उनका बैर भाव ही था, जिसके चलते उन्हें हार्वर्ड में अर्थशास्त्र में पीएचडी करने की स्वीकृति मिल गई. प्रसिद्ध पी.सी. महालानोबिस स्वामी के सांख्य शास्त्री पिता के पेशेवर प्रतिद्वंद्वी थे. उनकी प्रतिद्वंद्विता से नाराज स्वामी ने एक शोध पत्र लिखा, जिसने महालानोबिस के शोध पत्र को अमौलिक साबित कर दिया.

निजी करिश्मा भी चर्चा के काबिल
स्वामी का अपना निजी करिश्मा भी है. वे जितनी आसानी से किसी को दुश्मन बना सकते हैं, उतनी ही आसानी से दोस्त भी बना लेते हैं. परिवार के सदस्यों ने, जो अपनी पहचान गुप्त रखना चाहते हैं, बताया कि स्वामी की सार्वजनिक राय कुछ भी हो—एक लेख में उन्होंने मांग की कि 'मुसलमान गर्व के साथ कहें कि वे भले ही मुसलमान हैं, लेकिन उनके पूर्वज हिंदू हैं.'

संबंधों की विविधता
उनके निजी संबंध भारत की विविधता का दर्शन कराते हैं. उदाहरण के लिए स्वामी की पत्नी पारसी हैं, उनके दामाद मुस्लिम हैं. जैसा कि स्वामी खुद कई इंटरव्यू में कह चुके हैं कि रिश्ते में उनकी एक बहन ईसाई हैं और रिश्ते में एक भाई यहूदी हैं. हालांकि ये बातें उनके सार्वजनिक रूप से लिए गए रुख को हल्का नहीं करती हैं, लेकिन उन्हें अजीब तो बनाती ही हैं. इन बातों को देखकर लगता है कि वे अपने राजनैतिक फायदे के लिए ऐसा रुख अख्तियार करते हैं, न कि अपनी सोच के कारण. आखिरकार कोई व्यक्ति इतनी गंभीरता से ऐसी बात भला कैसे कह सकता हैः 'अब डैन ब्राउन के दा विंची कोड के प्रकाशन और ओपस देई संगठन के बारे में इसके खुलासों के बाद हिंदुओं को विदेशी ईसाई मिशनरियों को लेकर सावधान हो जाना चाहिए.' यह वाक्य 'हिंदूज अंडर सीजः द वे आउट से लिया गया है. यह हर-आनंद पब्लिकेशंस द्वारा 10 साल पहले स्वामी की लिखी एक किताब का हाल में किया गया पुनप्रकाशन है.'

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स्वामी अहंकारी और तमाशेबाज: अय्यर
कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर, जो स्वामी को दशकों से जानते हैं, ने फोन पर कहा कि 'स्वामी पूरी तरह अहंकारी और तमाशेबाज हैं.' अय्यर कहते हैं कि स्वामी कभी उनके दोस्त हुआ करते थे. अय्यर 1978-1982 में जब कराची में महावाणिज्य दूत थे तो स्वामी उनसे मिलने आए थे. अय्यर कहते हैं, 'मैं उन्हें प्रेस क्लब ले गया और उनके साथ मंच पर बैठ गया और वे इंदिरा गांधी को बुरा-भला कह रहे थे. यह देखकर वहां के अखबार भारत के लोकतंत्र से बहुत प्रभावित हुए थे.' इंदिरा गांधी उनकी पुरानी दुश्मन थीं. एक बार उन्होंने स्वामी को ''अव्यावहारिक विचारों वाला सांता क्लॉज" कहा था. अमर्त्य सेन के कहने पर दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ़ाने के लिए स्वामी 1969 में हार्वर्ड से लौटे थे. लेकिन, स्वामी की साली कूमी कपूर ने अपनी पुस्तक द इमरजेंसीः ए पर्सनल हिस्ट्री (जिसकी भूमिका अरुण जेटली ने लिखी थी) में लिखा कि ''स्वामी के विचार बहुत ज्यादा बाजारमुखी और वामपंथियों के लिए सत्ता-विरोधी थे. उन दिनों वामपंथियों का दबदबा हुआ करता था." कपूर, जिन्होंने इस आलेख के लिए अपनी प्रतिक्रिया देने से विनम्रता पूर्वक इनकार कर दिया, ने लिखा कि उनके ''राष्ट्रवादी विचार जनसंघ को बहुत पसंद आए, जिसने उन्हें 1974 में राज्यसभा के लिए नामांकित कर दिया."

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आपातकाल में रहे सुर्खियों में
आपातकाल (1975-77) के दौरान स्वामी शरण लेने के लिए अमेरिका चले गए थे. लेकिन वहां भागने से पहले उन्होंने कई बार गुजरात की यात्रा की थी, जहां कपूर के अनुसार, आरएसएस ''अक्सर उन्हें स्टेशन से लेने के लिए एक युवा प्रचारक को भेजा करता था...वे प्रचारक नरेंद्र मोदी थे." आपातकाल के समय स्वामी के साहस के किस्सों ने उन्हें आरएसएस प्रचारकों का हीरो बना दिया था. इन किस्सों में बिना बताए अमेरिका से सीधे संसद पहुंचना और चुपचाप गायब हो जाने से पहले दुख जाहिर करना कि ''लोकतंत्र मर चुका है" शामिल है. वे इंदिरा गांधी को खुलेआम चिढ़ा रहे थे और आरएसएस इस बात के लिए उन्हें बहुत पसंद करता था. गांधी परिवार के प्रति स्वामी की नफरत आज भी जारी है, जिसके कारण आरएसएस के लिए वे प्रिय बने हुए हैं. आपातकाल खत्म होने के बाद स्वामी उत्तर-पूर्व मुंबई से लोकसभा के लिए चुने गए थे और वे 1977 से 1984 तक लोकसभा के सदस्य रहे. उस समय उनके लिए किसी महत्वपूर्ण पद पर जाने का यह अच्छा अवसर होना चाहिए था. लेकिन स्वामी ने एक अन्य उभरते स्टार राजनेता अटल बिहारी वाजपेयी को अपना शत्रु बना लिया था. बाद में स्वामी ने दावा किया कि मोरारजी देसाई उन्हें कैबिनेट में जगह देना चाहते थे, वे शायद उन्हें वित्त राज्यमंत्री बनाना चाहते थे, लेकिन उस समय के विदेश मंत्री वाजपेयी ने अड़ंगा लगा दिया. बीस साल बाद एक आत्मकथा में, जो एक तमिल साप्ताहिक पत्रिका में किस्तों में छपी थी, स्वामी ने वाजपेयी को घोर पियक्कड़ बताया था. स्वामी का कहना है कि वाजपेयी 1998 में जब दूसरी बार प्रधानमंत्री बने तो उन्हें वित्त मंत्री बनाने की बात से मुकर गए. प्रत्यक्ष रूप से जब उन्हें पता चला कि उनके गठबंधन को जयललिता का समर्थन मिल गया है तो वे अपनी जुबान से पलट गए. स्वामी ने सोनिया गांधी और जयललिता को एक चाय पार्टी में साथ लाकर, जिसके बाद जयललिता ने वाजपेयी सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया था और सरकार गिर गई थी, अपना बदला चुका लिया. यह वही सोनिया हैं जिन्हें स्वामी फूटी आंख भी नहीं देखना चाहते हैं और यह वही जयललिता हैं जिनके खिलाफ स्वामी ने भ्रष्टाचार का मुकदमा दायर किया था और उनकी गिरफ्तारी हुई थी. स्वामी का करियर इस बात का सबूत है कि राजनीति में दोस्ती और दुश्मनी में भेद नहीं किया जा सकता है. स्वामी 1990 से 1991 तक चंद्रशेखर की अल्पावधि की सरकार में चार महीने के लिए केंद्रीय वाणिज्य और कानून मंत्री रहे थे. अय्यर कहते हैं कि उन्होंने ''राजीव गांधी से अच्छे संबंध बना लिए थे" और इसीलिए ''गांधी परिवार में वे एकमात्र व्यक्ति हैं, जिन्हें स्वामी गाली नहीं देते हैं." अय्यर के मुताबिक, यह इस बात का सबूत है कि ''स्वामी कितने अस्थिर व्यक्ति हैं और उनके बचकाने व्यक्तित्व में बहुत तेज दिमाग डाल दिया गया है."

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हिंदु राष्ट्र के समर्थक के रूप में ध्यान खींचा
स्वामी ने पिछले आधे दशक में हिंदू राष्ट्र के घोर समर्थक और भ्रष्ट लोगों के दुश्मन के तौर पर फिर से लोगों का ध्यान अपनी तरफ खींचा है. सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका के कारण 2012 में ए. राजा को जेल जाना पड़ा था. ए. राजा 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के समय दूरसंचार मंत्री थे और उस घोटाले के कारण सरकार को भारी नुक्सान उठाना पड़ा था. सीएजी के अनुमान के मुताबिक, यह नुक्सान करीब 170,000 करोड़ रु. का था. मुकदमेबाजी में दिलचस्पी और सोनिया तथा राहुल को बचाव की मुद्रा में लाने की उनकी योग्यता ने उन्हें आरएसएस के लिए अपरिहार्य बना दिया है. संघ से उनके रिश्ते अब भले ही अच्छे हैं, लेकिन 2000 में स्वामी ने पाक्षिक पत्रिका फोर्टनाइट में एक लेख लिखा था, जिसमें ''आरएसएस में बढ़ते फासीवाद" की चेतावनी दी गई थी. उन्होंने लिखा, अच्छी खबर यह है कि ''यह चाल विफल हो सकती है...मदर इंडिया की शक्तियां इसे कामयाब नहीं होने देंगी."

सीधे आरोपों पर उतर आते हैं
स्वामी के समर्थक—खासकर वे पत्रकार, जिन्हें वे करीब रखते हैं, उदाहरण के लिए जिन्होंने 2जी में या पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के बेटे कार्ति चिदंबरम के खिलाफ हवाला मामले में उनके साथ काम किया था—कहते हैं कि वे ''सीधी बात करने वाले" व्यक्ति हैं और ''उनका कोई स्वार्थ नहीं है." लेकिन रिकॉर्ड बताते हैं कि ऐसा नहीं है. बीजेपी के एक सूत्र के मुताबिक, जेटली के कारण ही स्वामी को 2014 में दिल्ली से लोकसभा का टिकट नहीं मिल पाया था. यह कहानी सही हो या गलत, स्वामी को शायद इस पर यकीन है. इसलिए वे वित्त मंत्री के पीछे पड़ गए हैं. इसके अलावा जेटली के पास वह मंत्रालय है, जो स्वामी हमेशा से अपने लिए चाहते थे. जेटली पर सीधा निशाना लगाने से बचते हुए स्वामी अपने ट्विटर के हथियार का सहारा लेना ज्यादा पसंद करते हैं. भारतीय अधिकारियों के बारे में उनकी टिप्पणी कि वे पश्चिमी कपड़ों में वेटर लगते हैं, मास्टरपीस थी और जेटली के अहं को चोट पहुंचाने और उन्हें हास्यास्पद बनाने वाली थी, जिसके बाद जेटली को प्रधानमंत्री और बीजेपी अध्यक्ष से शिकायत करनी पड़ी.

बड़े पदों पर बैठे लोगों को लिया निशाने पर
कोई भी विश्लेषक यही निष्कर्ष निकालेगा कि राजन को हटाने के लिए स्वामी को इस्तेमाल किया गया था. अपनी इस सफलता से उत्साहित होकर स्वामी ने अपनी बंदूक की नली सुब्रह्मण्यम की तरफ घुमा दी. उन्होंने ट्विटर पर गरजते हुए कहा, ''उन्हें बर्खास्त करो." और उसके आगे कुल पांच विस्मयबोधक चिन्ह लगा दिए. बाद में किए गए एक चतुराई भरे ट्वीट में उन्होंने ''वाशिंगटन डीसी के अरविंद सुब्रह्मण्यम का जिक्र किया." अपने दुश्मन की ''भारतीयता" पर कलंक लगाना स्वामी का पसंदीदा शगल है. तीन साल पहले उन्होंने दिल्ली हाइकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके हिंदू अखबार के तत्कालीन संपादक सिद्धार्थ वरदराजन को हटाने की मांग की थी, क्योंकि वे अमेरिकी नागरिक थे. स्वामी का कहना था कि किसी भारतीय अखबार के संपादक को सिर्फ भारत का निवासी ही नहीं, बल्कि भारत का नागरिक भी होना चाहिए. फोन पर बात करते हुए वरदराजन, जो समाचार वेबसाइट द वायर के संस्थापक हैं, ने कहा कि ''बीजेपी के लिए स्वामी को चुनौती देना बहुत कठिन है. ऐसा करने में बीजेपी को अपने उन धुरराष्ट्रवादी समर्थकों का ही विरोध झेलना पड़ सकता है, जिनके लिए स्वामी खरी-खरी बोलने वाले हीरो हैं."

पार्टी के लिए क्या है उपयोगिता?
बीजेपी के एक नेता का कहना है कि पार्टी स्वामी को ''उनकी उत्पाती योग्यता" और विरोधियों की नाक में दम करने की उनकी क्षमता के कारण बर्दाश्त कर रही है. ऐसा लगता है कि स्वामी के सार्वजनिक बयान भले ही कुछ लोगों को गुदगुदाते हों लेकिन उनसे पार्टी के भीतर मतभेद जाहिर हो जाते हैं. स्वामी की योग्यता को देखते हुए उनकी यह वर्तमान दशा सचमुच दुखद है.

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