विएना
20 अक्तूबर, 1952
''अनिता की सेहत ठीक है और उसकी पढ़ाई अच्छी चल रही है. वह लंबी हो रही है और तगड़ी भी, हालांकि अब तक मोटी नहीं कही जा सकती. अभी उसे स्कूल में अंग्रेजी सिखाई जा रही है जिसमें उसका काफी मन लगता है.''
यह खत नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्नी एमिली शेंकल ने विश्व युद्ध से उबरे ऑस्ट्रिया से लिखा था. उनकी एकाकी जिंदगी में बची कुछ उम्मीदों में एक उनकी बेटी थी. चिट्ठी सुदूर कोलकाता में नेताजी के भतीजे शिशिर कुमार बोस के नाम भेजी गई थी, पर वहां पहुंचने से पहले ही इसे पढ़ा जा चुका था. यह पहला खत नहीं था जिसे पढ़ा गया था. उनके पढ़ने से पहले ही खुफिया ब्यूरो (आइबी) के कई अफसरों ने चुपचाप चिट्ठी की प्रतियां बनाकर उसे बोस परिवार से जुड़ी सीक्रेट फाइलों में नत्थी कर दिया था.
आधी सदी से ज्यादा समय तक इसकी और ऐसे तमाम पत्रों की प्रतियां कोलकाता स्थित राज्य आइबी मुख्यालय के दराजों में बंद पड़ी थीं. हाल ही में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इससे गोपनीयता का मुलम्मा हटा लिया और इन्हें दिल्ली के राष्ट्रीय अभिलेखागार में रखा गया है. ये फाइलें आजाद भारत के दागदार सरकारी राज से परदा उठाती हैं. वह यह है कि 1948 से 1968 के बीच दो दशकों तक सरकार ने बोस परिवार के सदस्यों की गहन जासूसी की थी. सरकारी जासूस उस स्वतंत्रता सेनानी के परिजनों के पत्र पढ़ते और दर्ज करते रहे जो 25 वर्ष तक नेहरू का राजनैतिक सहकर्मी रहा था. आइबी के जासूस इस परिवार के सदस्यों का उनकी घरेलू और विदेश यात्राओं के दौरान लगातार पीछा करते रहे और उनसे मिलने वालों और उनकी बातों के महीन से महीन विवरणों को रिकॉर्ड करते रहे. यह निगरानी बिल्कुल उसी तर्ज पर थी जैसा आज किसी वांछित आतंकवादी के परिवार पर रखी जाती है-बेहद सघन, व्यवस्थित और सतर्कता भरी. इन खुलासों ने बोस परिवार को हैरत में डाल दिया है. नेताजी के भतीजे के बेटे चंद्र कुमार बोस सवाल उठाते हैं, ''निगरानी उन पर रखी जाती है जिन्होंने कोई अपराध किया हो या जिनके आतंकी तार जुड़े हों. नेताजी और उनके परिवार ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, फिर उन पर निगरानी रखने की क्या जरूरत थी?''
सुभाष चंद्र बोस की इकलौती पुत्री अनिता बोस-फॉफ जर्मनी में अर्थशास्त्री हैं. वे भी इन खुलासों से सकते में हैं. वे कहती हैं, ''मेरे चाचा (शरत चंद्र बोस) पचास के दशक तक राजनैतिक रूप से सक्रिय थे और कांग्रेसी तत्कालीन नेतृत्व के विरोध में थे, लेकिन जो बात मुझे चौंकाती है वह यह कि मेरे चचेरे भाई-बहन भी जासूसी के दायरे में थे जबकि सुरक्षा की दृष्टि से इसका कोई मतलब नहीं बनता था.''
नेताजी ने जापान में भारतीय युद्धबंदियों को साथ लेकर आजाद हिंद फौज (आइएनए) बनाई थी जिसके सहारे उन्होंने आजाद भारत की अस्थाई सरकार का गठन किया. आइएनए ने अंग्रेजी राज वाले इस उपमहाद्वीप की सरहदों पर 1943 पर कब्जा जमाया और इसकी टुकड़ियों ने पहली बार भारत की धरती पर तिरंगा फहराया था. इसके तुरंत बाद 1944 में जापानी सेना की हार ने आइएनए को लौटने को मजबूर कर डाला. माना जाता है कि अलाइड सैन्य बलों के सामने जापान के घुटने टेकने के तीन दिन बाद 18 अगस्त, 1945 को 48 वर्षीय नेताजी की मौत ताइवान में एक विमान हादसे में हो गई थी.
बोस परिवार इन खुलासों पर बहुत नाराज है और उसकी मांग है कि केंद्र सरकार बीते 60 वर्षों से अपने कब्जे में रखी नेताजी से जुड़ी टॉप अतिगोपनीय फाइलों को तेजी से सार्वजनिक करने का काम करे. उनका मानना है कि ये दस्तावेजी रहस्योद्घाटन सिर्फ एक हल्की-सी झलक हैं. करीब एक दशक से आरटीआइ कार्यकर्ता और शोधार्थी यह मानते रहे हैं कि अब तक गोपनीय रखी गई फाइलों का ग-र इस चमत्कारिक इंकलाबी शख्सियत की गुमशुदगी पर कुछ रोशनी डालने का काम कर सकता है. सरकार लगातार उनके काम में रुकावट डालती रही है.
राजनाथ सिंह जब बीजेपी के अध्यक्ष थे, तब पिछले साल उन्होंने कटक में कहा था, ''समूचा देश यह जानने को बेचैन है कि नेताजी की मौत कैसे और किन परिस्थितियों में हुई.'' पिछले साल उनकी सालगिरह पर बोलते हुए उन्होंने वादा किया था कि अगर उनकी सरकार सत्ता में आ गई तो नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक कर दिया जाएगा. आज वे सरकार में हैं लेकिन उसकी प्रतिक्रिया भी यूपीए जैसी ही है. पिछले 2 फरवरी को प्रधानमंत्री कार्यालय ने आरटीआइ कार्यकर्ता सुभाषचंद्र अग्रवाल को बताया कि पीएमओ के पास मौजूद नेताजी की फाइलों का उद्घाटन ''दूसरे देशों के साथ रिश्तों को पूर्वाग्रहग्रस्त तरीके से प्रभावित कर सकता है.'' पीएमओ ने बिल्कुल ऐसा ही जवाब ''मिशन नेताजी'' को दिया है. यह कुछ कार्यकर्ताओं का एक ऐसा दबाव समूह है जो 2006 से लगातार इन फाइलों को सार्वजनिक किए जाने की लड़ाई लड़़ रहा है.
बोस परिवार की जासूसी
अंग्रेजी राज में सीआइडी 1930 के दशक से ही कोलकाता-1 स्थित बोस परिवार के दो मकानों की निगरानी कर रही थी- 1, वुडबर्न पार्क का मकान था और दूसरा था 38@2, एल्गिन रोड. यही वह समय था जब शरत चंद्र और उनके छोटे भाई सुभाष चंद्र बोस बंगाल में स्वतंत्रता आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे थे. परिवार को सीआइडी के साए की आदत पड़ चुकी थी. इसका पता इस घटना से चलता है कि एक बार सीआइडी के एक अफसर ने शरत चंद्र को भेजे गए पत्र को बीच में ही जब्त करके उसकी प्रति बना ली थी लेकिन गलती से एक प्रति उन्हें भेज दी. जब वह अपनी गलती को स्वीकारने बोस परिवार के पास आया तो बड़े भाई ने उससे कहा कि कुछ दिन बाद आकर उसे ले जाए. नेताजी को 1941 में नजरबंद किया गया था. वे पुलिस को चकमा देकर एल्गिन रोड वाले मकान से निकल गए और नाजी शासन वाले जर्मनी में जाकर रुके. अंग्रेजों ने उन्हें इसके बाद फासीवादी ताकतों का सहयोगी करार देते हुए उनके परिजनों पर निगरानी बढ़ा दी. जैसा कि सार्वजनिक किए गए दस्तावेज दिखाते हैं, आजाद भारत की सरकार भी इस परिवार पर उतनी ही मुस्तैदी से निगरानी रखती रही थी.
देश में सत्ताधारी दल अमूमन राजनैतिक विरोधियों और यहां तक कि खुद उनके अपने परिजनों पर निगाह रखने के लिए आइबी का इस्तेमाल करते रहे हैं. आइबी के पूर्व प्रमुख एम.के. धर ने 2005 में आई अपनी पुस्तक ओपन सीक्रेट्स में बताया था कि प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी और उनके परिवार पर निगाह रखने का आदेश आइबी को दिया था क्योंकि उन्हें इस परिवार की राजनैतिक महत्वाकांक्षा पर संदेह था. नेताजी के दो भतीजों शिशिर कुमार बोस और अमिय नाथ बोस पर जिन दिनों निगरानी रखी जा रही थी, उस समय उनका सियासी वजन ज्यादा नहीं था. दस्तावेजों के मुताबिक आइबी ने जब उन पर अपनी निगरानी ढीली कर दी थी, उसके कई साल बाद उन्होंने चुनाव लड़ा. अमिय नाथ ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक के टिकट पर आरामबाग से 1968 में सांसद चुने गए जबकि शिशिर बोस कांग्रेस के टिकट पर 1987 में पश्चिम बंगाल की विधानसभा में विधायक चुने गए थे.
ऐसा लगता है कि आइबी को इस बात में ज्यादा दिलचस्पी थी कि बोस परिवार क्या करता है और किससे मिलता है. सार्वजनिक हो चुके सिलसिलेवार हस्तलिखित संदेश दिखाते हैं कि आइबी के एजेंट आइबी मुख्यालय ''सिक्योरिटी कंट्रोल'' को फोन करके परिवार की हरकतों के बारे में जानकारी देते थे, हालांकि पारिवारिक पत्रों के माध्यम से ही आइबी को यह पता चल पाता था कि परिवार क्या सोच रहा है. इस पत्राचार में नेताजी का जिक्र खूब होता था. जाहिर है, परिवार और किस बारे में बात करेगा? ये पत्र मोटे तौर पर सामान्य पारिवारिक मसलों के बारे में होते थे. नेताजी की पत्नी अपने खतों में परिवार के आर्थिक संकट, बेटी के पालन-पोषण और विएना वाले मकान की मरम्मत का जिक्र करती थीं. कोलकाता से बोस परिवार खर्चा चलाने के लिए उन्हें पैसा भेजता था. आइबी ने इन पत्रों में उन हिस्सों को रेखांकित किया है जिनमें एमिली शेंकल के मुलाकातियों के नाम हैं. यह दिखाता है कि आइबी को आखिर किस चीज में दिलचस्पी थी. ऐसे ही 1953 में लिखे पत्र पर आइबी की टिप्पणी एमिली को ''श्री सुभाष चंद्र बोस की कथित पत्नी'' करार देती है.
नेताजी भवन संग्रहालय बन चुके 38@2 एल्गिन रोड स्थित मकान में सार्वजनिक हुए दस्तावेजों को पलटते हुए मरहूम शिशिर कुमार बोस की 85 वर्षीया पत्नी कृष्णा बोस की प्रतिक्रिया थी, ''भारी रहस्यमय और चौंकाने वाली बात है! आखिर वे हमारा पीछा क्यों करना चाह रहे थे?'' वे तृणमूल कांग्रेस से तीन बार लोकसभा सांसद रह चुकी हैं. वे इस बात पर हंसती हैं कि यह जासूसी कितनी असरदार रही होगी क्योंकि परिवार को इसका कोई अंदाजा नहीं था. वे कहती हैं, ''मेरे पति कहते थे कि अस्पताल जाते समय या ट्राम पर चढ़ते वक्त उन्हें महसूस होता था कि उनका पीछा हो रहा है...पर यह अंग्रेजों के दौर की बात थी.''
जासूसी से जुड़े इन रहस्योद्घाटनों को देखकर एक अंदाजा लगता है कि दुनिया की सबसे पुरानी खुफिया एजेंसियों में एक आइबी कैसे काम किया करती थी. जो चिट्ठियां जब्त की जाती थीं, उनकी निगरानी का केंद्र तकरीबन पूरी तरह एल्गिन रोड डाकघर हुआ करता था जहां बिना किसी संदेह के बोस परिवार अपनी चिट्ठियां डालता था. परिवार के सदस्यों ने 1956 में गठित शाहनवाज आयोग पर अपना संदेह जताया था. चाचा को मान्यता न देने से उपजी निराशा का भी इजहार किया था. इस बारे में 1955 में शिशिर बोस ने नेताजी की पत्नी को लिखा था, ''अगर आज आप भारत में होतीं, तो आपको यह एहसास होता कि भारत की आजादी की लड़ाई में सिर्फ दो लोगों का महत्व था-गांधी और नेहरू. बाकी सब महत्वहीन थे.''
1950 के दशक में परिवार के सभी पत्रों की प्रतियां बनाई जाती थीं और कुछ को दिल्ली स्थित मुख्यालय में बैठे आइबी के दो अहम अफसरों से साझा किया जाता था-एक एम.एल. हूजा थे जो 1968 में आइबी के मुखिया बने और दूसरे रामेश्वरनाथ काव थे, जिन्होंने 1968 में रिसर्च ऐंड ऐनालिसिस विंग (रॉ) की स्थापना की. इन सबके पीछे जो इकलौता शख्स था, उसका नाम भोला नाथ मलिक था. यह शख्स नेहरू की सरकार में आंतरिक सुरक्षा का मुखिया था जो 1948 से 1964 के बीच लगातार 16 साल तक आइबी का प्रमुख रहा.
यह जासूसी राजनैतिक रूप से संवेदनशील थी, इसमें कोई दो राय नहीं है. फाइलों पर ''टॉप सीक्रेट'' और ''वेरी सीक्रेट'' की मुहर तय कर देती थी कि इन फाइलों तक कुछ मुट्ठी भर अफसरों की ही पहुंच होगी. ये फाइलें कोलकाता की प्रिटोरिया स्ट्रीट स्थित आइबी के राज्य मुख्यालय में स्टील की बनी दराजों में रखी जाती थीं, जो बोस के घर से कुछ ही दूरी पर है.
नेताजी से जुड़े रहस्यों पर लिखी किताब इंडियाज बिगेस्ट कवर-अप के लेखक और कार्यकर्ता अनुज धर कहते हैं, ''जब बंगाल का भद्रलोक छोटे-मोट अपराधों को सुलझाने वाले कपोल-कल्पित शख्स ब्योमकेश बख्शी पर निहाल था, उस समय आइबी के जासूस ऐसे कारनामों में मुब्तिला थे जिनके सामने सीआइए और केजीबी को पानी भरना पड़ जाता.''
आइबी की जासूसी कोलकाता तक सीमित नहीं थी. मद्रास में सीआइडी की विशेष शाखा की 1958 की एक रिपोर्ट शिशिर बोस की आवाजाही का पता देती है जब वे नेताजी रिसर्च ब्यूरो बना रहे थे. 1963 में जब्त एक पत्राचार अमिय नाथ का है तो नेताजी के पुराने सहयोगी एसीएन नांबियार के लिए था जो उस समय स्विट्जरलैंड में भारतीय राजनयिक थे. इसमें विडंबना यह है कि दिल्ली में आइबी के जो आला अफसर इस पत्राचार को पढ़ रहे थे, उनमें एक शख्स नांबियार का भतीजा ए.सी. माधवन नांबियार था.
परिवार की जासूसी क्यों
नेताजी ने अपने भतीजे अमिय नाथ को 1939 में भेजे पत्र में लिखा था, ''मेरा किसी ने भी उतना नुक्सान नहीं किया जितना जवाहरलाल नेहरू ने किया.'' महात्मा गांधी की राजनैतिक विरासत के दोनों दावेदार थे. संपूर्ण आजादी को लेकर बोस के आग्रह से गांधी को दिक्कत थी, लिहाजा उन्होंने बोस की जगह नेहरू को अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी चुना.
इसके बाद बोस अलग हो गए. नेहरू को इस बात से दिक्कत थी कि बोस नाजी जर्मनी और फासिस्ट इटली के प्रशंसक थे. नेताजी ने आखिरकार कांग्रेस के अध्यक्ष पद से 1939 में इस्तीफा दे दिया. इतिहासकार रूद्रांगशु मुखर्जी की 2014 में आई किताब नेहरू ऐंड बोसरू पैरेलल लाइन्स कहती है, ''बोस मानते थे कि वे और जवाहरलाल मिलकर इतिहास बना सकते थे लेकिन जवाहरलाल को गांधी के बगैर अपनी नियति नहीं दिखती थी जबकि गांधी के पास सुभाष के लिए कोई जगह नहीं थी.''
इसके बावजूद अपने से आठ साल वरिष्ठ नेहरू को लेकर नेताजी के मन में कोई दुर्भावना नहीं थी. वे उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और यहां तक कि उन्होंने आइएनए की एक रेजिमेंट को ही नेहरू के नाम पर रख दिया था. नेहरू को जब बोस की मौत की खबर 1945 में मिली तो वे सार्वजनिक रूप से रोये थे.
फिर सवाल उठता है कि आखिर नेहरू सरकार ने बोस परिवार की इतनी कड़ी निगहबानी क्यों करवाई? यह सवाल इसलिए भी खास है क्योंकि नेहरू को जासूसी जैसे काम से बहुत नफरत थी. आइबी के पूर्व मुखिया बी.एन. मलिक 1971 में आई अपनी किताब माइ इयर्स विद नेहरू में लिखते हैं कि प्रधानमंत्री ''को इस काम (जासूसी) से इतनी चिढ़ थी कि वे हमें दूसरे देशों के उन खुफिया संगठनों के खिलाफ भी काम करने की अनुमति नहीं देते जो भारत में अपने दूतावास की आड़ में काम करते थे.''
यह जासूसी कुल 20 साल तक चली जिसमें 16 साल तक नेहरू प्रधानमंत्री थे. बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता और लेखक एम.जे. अकबर कहते हैं, ''सीधे नेहरू को रिपोर्ट करने वाली आइबी की ओर से बोस परिवार की इतने लंबे समय तक जासूसी की सिर्फ एक वाजिब वजह जान पड़ती है. सरकार आश्वस्त नहीं थी कि बोस की मौत हो चुकी है और उसे लगता था कि अगर वे जिंदा हैं तो किसी न किसी रूप में कोलकाता स्थित अपने परिवार के साथ संपर्क में होंगे. आखिर कांग्रेस को इस बारे में संदेह करने की जरूरत ही क्या थी? बोस इकलौते करिश्माई नेता थे जो कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को एकजुट कर सकते थे और 1957 के चुनावों में गंभीर चुनौती खड़ी कर सकते थे. यह कहना बेहतर होगा कि अगर बोस जिंदा होते तो जिस गठबंधन ने कांग्रेस को 1977 में हराया, उसने 1962 के चुनाव में या फिर 15 साल पहले ही कांग्रेस को ध्वस्त कर दिया होता.''
बोस परिवार की गतिविधियों में नेहरू की दिलचस्पी को दर्शाने वाला सिर्फ एक दस्तावेजी साक्ष्य मौजूद है. यह 26 नवंबर, 1957 को प्रधानमंत्री की ओर से विदेश सचिव सुबिमल दत्त को लिखी गोपनीय चिट्ठी है जिसमें नेहरू ने लिखा है, ''मैंने जापान से निकलने के ठीक पहले सुना कि श्री शरत चंद्र बोस के पुत्र श्री अमिय बोस टोक्यो पहुंचे थे. मैं जब भारत में था तब उन्होंने पहले ही मुझे बताया था कि वे वहां जा रहे हैं. मैं चाहता हूं कि आप टोक्यो में हमारे राजदूत को लिखें और यह पता लगाएं कि श्री अमिय बोस ने टोक्यो में क्या किया. क्या वे हमारे दूतावास गए थे? क्या वे रेंकोजी मंदिर गए थे?'' राजदूत का जवाब नकारात्मक रहा था.
अमिय बोस ने 1949 में शिशिर बोस को एक पत्र लिखा था. उस वक्त शिशिर बोस लंदन में मेडिकल के छात्र थे. पत्र में यह पता लगाने को कहा गया था कि क्या कोई जर्मन जनरल दोबारा पश्चिमी जर्मनी में सक्रिय है, खासकर हिटलर का पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ जनरल फ्रांज हाल्दर.
कृष्णा बोस कहती हैं, ''स्पष्ट तौर पर यहां सरकार की सनक दिखाई देती है. मेरे पति नेताजी रिसर्च फाउंडेशन स्थापित करने के लिए सामग्री इकट्ठा कर रहे थे. इस फाउंडेशन को सिर्फ पत्र व्यवहार से ही खड़ा किया गया था.'' आइबी हालांकि कुछ और ही मानती थी. आइबी का 1968 का एक ''टॉप सीक्रेट'' नोट अमिय बोस के बारे में कहता है, ''यह व्यक्ति अब आइएनए के पुराने लोगों के साथ मिलकर आजाद हिंद दल के गठन में कथित तौर पर बहुत दिलचस्पी ले रहा है. खबर है कि इसने राज्य और केंद्र में कुछ प्रमुख लोगों को प्रभावित करने में कामयाबी हासिल कर ली है...''
रॉ के पूर्व विशेष सचिव वी. बालचंद्रन का मानना है कि बोस परिवार पर उसके कम्युनिस्ट रुझानों के चलते निगाह रखी जा रही थी. वे गाइ लिडेल की डायरियों की ओर इशारा करते हैं, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एमआइ5 के काउंटर-एस्पायोनेज विंग का मुखिया था. ये डायरियां 2012 में प्रकाशित हुई थीं जिसमें ब्रिटिश आंतरिक सुरक्षा सेवाओं के साथ आइबी के नाभिनाल रिश्तों का जिक्र था.
एमआइ5 की प्राथमिकता में कम्युनिस्टों पर नजर रखना था. यही विरासत आइबी को भी प्राप्त हुई. मार्च 1947 में भारत के अपने दौरे पर लिडेल का दावा था कि उसने अंग्रेजी राज के खात्मे के बाद नई दिल्ली में एमआइ5 के एक सिक्योरिटी लायजन अफसर को रखवाने के लिए नेहरू से मंजूरी हासिल कर ली थी. बालचंद्रन कहते हैं, ''कम्युनिस्टों का पीछा करने की आइबी की सनक 1975 तक जारी रही जब तक कि इंदिरा गांधी ने विराम नहीं लगा दिया.''
रहस्यों का खजाना
भारत की आजादी की लड़ाई के योद्धाओं की फेहरिस्त में नेताजी का नाम कुछ देर से जोड़ा गया. संसद में उनकी तस्वीर का अनावरण 1978 में हुआ. ऐसा शायद इसलिए क्योंकि ऐसा करना अहिंसक स्वतंत्रता आंदोलन के गांधीवादी आख्यान को आघात पहुंचाता था. इसके अलावा इतिहास की किताबों ने आइएनए के उन 2000 से ज्यादा सिपाहियों की भी सुध नहीं ली जो बर्मा और उत्तर-पूर्व में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ते हुए शहीद हुए.
पिछले वर्षों में बोस की साहसगाथा ने न सिर्फ रहस्य कथाओं को जन्म दिया बल्कि लिट्टे के पूर्व प्रमुख प्रभाकरण जैसे तमाम प्रशंसकों को भी अपनी ओर खींचा. माना जाता है कि बोस भागकर चीन और सोवियत संघ चले गए थे, जहां से भारत लौटने के बाद वे उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में ''बाबा'' बनकर रहे और उनकी मृत्यु 1985 में हुई. बोस के जिंदा रहते उनके भागने की ये कहानियां गढ़ी गई थीः अफगानिस्तान जाने के लिए बोस ने पठान का वेश धरा, रूस में यात्रा करने के लिए वे इतालवी कारोबारी बन गए, और हिंद महासागर के बीचोबीच जर्मनी की पनडुब्बी से जापान की पनडुब्बी में आ गए. सरकार ने नेताजी की फाइलों को सार्वजनिक करने से इनकार नहीं किया होता तो इन तमाम कथाओं पर कब का विराम लग गया होता.
वजाहत हबीबुल्ला कहते हैं, ''यह तथ्य अपने आप में बोस के रहस्य को और गहरा देता है कि जिन फाइलों को 1960 और 1970 के दशक में सार्वजनिक किया जाना चाहिए था वैसा अब तक नहीं किया गया है.'' भारत के पहले मुख्य सूचना आयुक्त के तौर पर अपने पांच साल के कार्यकाल में हबीबुल्ला के पास नेताजी की फाइलों को सामने लाने के तमाम आवेदन आए जिन्हें सरकार ने ठुकरा दिया.
नेहरू के बाद आई सभी सरकारों ने नेताओं, शोधकर्ताओं और पत्रकारों से एक ही बात कही है कि नेताजी से जुड़ी 150 से ज्यादा फाइलों की सामग्री इतनी संवेदनशील है कि उन्हें सामने लाने से कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा हो सकती है, खासकर पश्चिम बंगाल में ऐसा हो सकता है. इससे भी बुरा यह कि ऐसा करने से ''मित्रवत देशों के साथ भारत के रिश्ते खराब हो जाएंगे.'' मोदी सरकार ने 2014 में कानून व्यवस्था का बहाना तो नहीं बनाया लेकिन आधिकारिक लाइन वही कायम रही. तृणमूल कांग्रेस के सांसद सुखेंदु शेखर रॉय के एक सवाल पर में गृह राज्यमंत्री हरिभाई पार्थिभाई चौधरी ने 17 दिसंबर, 2014 को राज्यसभा में दिए लिखित जवाब में कहा, ''गोपनीयता हटाना दूसरे देशों से भारत के रिश्तों के लिहाज से ठीक नहीं है.'' पीएमओ में बंद नेताजी से जुड़ी पांच फाइलें इतनी गोपनीय हैं कि सूचना के अधिकार के तहत उनके नाम तक नहीं बताए गए.
सवाल उठता है कि पीएमओ में तालाबंद इन फाइलों में ऐसा कौन-सा भीषण सरकारी राज छिपा है? रॉय के शब्दों में कहें तो ये ऐसे राज हैं जिनके चलते राजनाथ सिंह सचाई के समर्थक से एक ऐसे शख्स में तब्दील हो गए जो ''लोकसभा में चुपचाप बैठकर सिर हिलाते रहे जब मैंने इन्हें सार्वजनिक करने की मांग की.''
रॉय पूछते हैं, ''विमान हादसे में हुई नेताजी की मौत का दोष दूसरे देशों पर कैसे मढ़ा जा सकता है. जाहिर है, कुछ और वजह हैं जिन्हें बीजेपी और कांग्रेस छिपाना चाहती हैं.''
तीन प्रधानमंत्रियों ने अब तक इस सचाई को सामने लाने के लिए जांच आयोगों का गठन किया है-1956 में नेहरू, 1970 में इंदिरा गांधी और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी. इनमें से दो-1956 की शाहनवाज कमेटी और 1974 में खोसला आयोग ने निष्कर्ष दिया कि नेताजी की मौत विमान हादसे में हुई. इनके निष्कर्षों को तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने 1978 में खारिज किया था. जस्टिस (एम.के.) मुखर्जी आयोग ने कहा कि नेताजी ने अपनी मौत की झूठी कहानी बनाई और सोवियत संघ भाग गए थे. इसे 2006 में यूपीए सरकार ने खारिज किया.
इन जांचों ने अक्सर अटकलबाजियों को हवा देने का काम किया है. बीजेपी के नेता सुब्रह्मण्यम स्वामी 1970 में खोसला आयोग के समक्ष श्यामलाल जैन की गवाही का हवाला देते हैं जो नेहरू के स्टेनोग्राफर थे. जैन ने कबूला था कि उन्होंने एक पत्र टंकित किया था जो नेहरू ने 1945 में स्टालिन को भेजा था जिसमें वे बोस को बंधक बनाए जाने की बात स्वीकारते हैं.
स्वामी का दावा है, ''विमान हादसा फरेब था. नेताजी ने सोवियत संघ में शरण ली थी जहां वे कैद कर लिए गए थे. बाद में स्तालिन ने उन्हें मार दिया.'' बोस की बेटी अनिता समेत उनका समूचा परिवार चाहता है कि केंद्र और राज्य सरकारों के पास मौजूद सभी रिपोर्टों को गोपनीयता के दायरे से मुक्त किया जाए. चंद्र कुमार कहते हैं, ''पीएमओ, विदेश मंत्रालय, आइबी, सीबीआइ और इतिहासकारों के प्रतिनिधियों की खास अन्वेषण टीम बनाकर उन दस्तावेजों पर शोध होना चाहिए और सुभाष चंद्र की कहानी जनता के सामने लाई जानी चाहिए.'' अगर मौजूदा रहस्योद्घाटन वाकई किसी काम के हैं, तो इनके आधार पर नेताजी की फाइलों की पड़ताल भारत के सबसे पुराने सियासी रहस्य पर से परदा उठाने का काम कर सकती है.
संदीप उन्नीथन