तिग्मांशु धूलिया बोले- इंडस्ट्री के ग्रुप ने पैसा कमाया लेकिन यहां आर्ट की जरूरत

तिग्मांशु धूलिया ने कहा कि मैं हमेशा से इस बात को लेकर कन्फ्यूजन में रहता था कि बॉलीवुड में ऐसा कुछ है कि नहीं. मगर अब जब सब लोग इसपर बात कर रहे हैं तो मुझे भी ये कहना पड़ेगा कि बॉलीवुड में गैंग जैसा तो कुछ नहीं है पर कुछ ग्रुप जरूर मौजूद हैं.

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तिग्मांशु धूलिया तिग्मांशु धूलिया

aajtak.in

  • नई दिल्ली,
  • 28 जुलाई 2020,
  • अपडेटेड 5:43 PM IST

सुशांत सिंह राजपूत के सुसाइड कर लेने के बाद से सोशल मीडिया पर बॉलीवुड में चले आ रहे नेपोटिज्म और ग्रुपिज्म को लेकर विरोध शुरू हो गया. यहां तक बॉलीवुड के ही कई सितारों ने बताया की इंडस्ट्री में काफी समय से भाई-भतीजावाद और गुटबाजी देखने को मिलती रही है और इस वजह से इंडस्ट्री ग्रो नहीं कर पा रही. संघर्ष कर के इंडस्ट्री में मुकाम हासिल करने वाले एक्टर-डायरेक्टर तिग्मांशु धूलिया ने भी बॉलीवुड के ग्रुपिज्म पर प्रतिक्रिया दी है.

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उन्होंने कहा- मैं हमेशा से इस बात को लेकर कन्फ्यूजन में रहता था कि बॉलीवुड में ऐसा कुछ है कि नहीं. मगर जब सब लोग इसपर बात कर रहे हैं तो मुझे भी ये कहना पड़ेगा कि बॉलीवुड में गैंग जैसा तो कुछ नहीं है पर कुछ ग्रुप जरूर मौजूद हैं. मगर ग्रुप तो हर जगह होते हैं. कई जगह आपको ग्रुप द्वारा अच्छा काम भी देखने को मिलेगा. जैसे कि रितेश सिधवानी और फरहान अख्तर का को-फाउंडेड ग्रुप एक्सेल है. उन्होंने काफी अच्छा काम किया है.

अगर आप प्रोडक्टिव हैं और फ्रेश टेलेंट्स को मौका देते हैं तो मुझे नहीं लगता कि ग्रुपिज्म गलत है. यहां तक की ऑउटसाइडर्स भी इंडस्ट्री में इतने सारे हैं जो अपने तरह के लोगों के साथ काम करना चाहते हैं. तो ग्रुपिज्म तो ये भी है. जब आप अपनी आंखें बंद कर लेंगे और सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों के साथ ही काम करना चाहेंगे तो फिर आप नया टैलेंट कभी नहीं ढूंढ़ पाएंगे.

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ग्रुप से दिक्कत नहीं काम से दिक्कत

स्पाइडर-मैन की एक लाइन है- बड़ी ताकतों के साथ बड़ी जिम्मेदारियां भी आती हैं, अब जिम्मेदारियां ले नहीं पा रहे हैं, कम टैलेंटेड लोगों से काम चला रहे हैं. तो फायदा क्या है. इंडस्ट्री में 2 ऐसे ग्रुप हैं जो इसे आगे नहीं बढ़ने दे रहे. वे इतने सक्षम हैं कि वे ऑडिएंस का टेस्ट बदल सकते हैं. मगर उन्होंने सिनेमा के आर्ट को सुधारने में कोई मदद नहीं की. उन्होंने पैसा कमाया, जो किया जरूरी भी है मगर सिनेमा में आर्ट की जरूरत होती है. उसका क्या किया गया. यश चोपड़ा की ट्रेंड सेटर फिल्में थीं, उसके बाद क्या हुआ. आगे बढ़ो ना. वही शावा शावा और शादी के गाने, एनआरआईज को खुश करने के लिए. क्या है ये सब. मुझे नहीं लगता है कि ग्रुपिज्म का होना गलत है मगर उस ग्रुप से अच्छा काम निकलना चाहिए.

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