राजनीति कभी खामोश नहीं होती. लड़ाई की तैयारी तब भी चलती रहती है जब सामने कोई युद्ध नहीं होता. लोकसभा चुनाव के नतीजों ने 16 मई को उत्तर भारत की तकरीबन सभी पार्टियों को नमो की आंधी में उड़ा दिया था. उसके बाद से देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस एक के बाद एक हार के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार किए बैठी है. लेकिन आंदोलनों की पैदाइश जनता परिवार की पार्टियां तिनका-तिनका जोड़कर आशियाना बनाने में जुट गई हैं. एच.डी. देवगौड़ा और इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली सरकार चलाने वाले संयुक्त मोर्चा और उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार चलाने वाले एनडीए के संयोजक रह चुके शरद यादव 2014 में वही भूमिका निभाने की तैयारी में हैं जो 1990 के दशक में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत निभाया करते थे. यानी देश की क्षेत्रीय पार्टियों को एकजुट कर तीसरा विकल्प पेश करना.
शरद उजागर, लेकिन खामोश मुहिम पर निकले हैं. उन्होंने सबसे पहले लोकसभा की हार के बाद बिना वक्त गंवाए राजनीति के धुर विरोधी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को एक मंच पर खड़ा करने में कामयाबी हासिल की. इसके बाद इस तरह का माहौल बनाया कि समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव को यहां तक कहना पड़ गया, ‘‘अगर नीतीश हाथ पकड़कर ले आएं तो हम मायावती के साथ चलने को तैयार हैं.’’ मुलायम यह बयान उन हालात में दे रहे थे, जब लोकसभा में उनकी पार्टी की सीटें 21 से घटकर पांच रह गईं थीं और पिछली लोकसभा में 20 सीट जीतने वाली बीएसपी का खाता तक नहीं खुला था. हालांकि मायावती ने टका-सा जवाब देकर मामले को खत्म कर दिया. आखिर वे किसी जनता परिवार से ताल्लुक जो नहीं रखतीं. बिहार और यूपी के बाद शरद ने हरियाणा के जींद का रुख किया, पूर्व प्रधानमंत्री ताऊ देवीलाल की सौवीं जयंती के मौके पर आयोजित रैली में शामिल हुए. इस मंच पर नीतीश, देवेगौड़ा के साथ एनडीए के प्रकाश सिंह बादल भी मौजूद थे. 8 अक्तूबर को शरद सपा के राष्ट्रीय सम्मेलन में लखनऊ पहुंच गए. और अंत में 12 अक्तूबर को मेरठ में राष्ट्रीय लोकदल की वह रैली भी हो गई जिसमें मुलायम सिंह के नुमाइंदे के तौर पर शिवपाल सिंह यादव, खुद नीतीश कुमार और शरद यादव, पूर्व प्रधानमंत्री और जेडी(एस) नेता एच.डी. देवगौड़ा, अजित सिंह और उनके साहबजादे जयंत शामिल हुए. नीतीश ने मंच से ही शिवपाल को सलाह दी, ‘‘हम तो साथ हैं, अब सोचना आप को है. मौजूदा दौर में सारे समाजवादियों के साथ आने का समय आ गया है. जब बिहार में हम और लालू जी एक साथ हो सकते हैं तो यहां क्यों नहीं.’’
इस रैली के दो दिन बाद दिल्ली के 7 तुगलक रोड वाले बंगले पर इंडिया टुडे ने शरद यादव से पूछा कि आपका इरादा क्या है? तो उन्होंने कहा, ‘‘ऐसा कुछ खास नहीं. बदले हालात में बदलने की कोशिश भर है.’’ क्या तीसरा मोर्चा बनाने की तैयारी है? वे कहते हैं, ‘‘इन सब नेताओं से हमारे पुराने रिश्ते हैं. अभी कोई बड़ी बात बोलने का समय नहीं आया है.’’ लेकिन शरद के भरोसेमंदों की मानें तो इस बार वे तीसरे मोर्चे से बड़ा और तकरीबन असंभव सपना देख रहे हैं. वे चाहते हैं कि जनता परिवार के पुराने लोग एक साथ मिलकर तीसरी राष्ट्रीय पार्टी बनाएं. फिलहाल वे उत्तर भारत और सुदूर केरल तक बातें कर चुके हैं. लेकिन असली परीक्षा तब होगी जब वे ओडिसा में बीजू जनता दल के नवीन पटनायक और तमिलनाडु में जयललिता को मना सकें. इस ख्वाब के पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि जनता परिवार की ज्यादातर पार्टियां अलग-अलग राज्यों में बिखरी हैं, इसलिए उनमें आपसी लड़ाई नहीं है. लेकिन इसे असंभव बनाने वाला तथ्य यह है कि लंका में सब 52 गज के हैं. यहां कौन क्षत्रप किसका नेतृत्व स्वीकार करेगा? क्या मुलायम या नीतीश या लालू में से कोई भी किसी दूसरे के नीचे काम करेगा?
वैसे अगर ऐसा कोई मोर्चा बनता भी है तो जेडी(यू), जेडी(एस), आरजेडी, सपा, आरएलडी और आइएनएलडी के पास पिछली लोकसभा में 55 सीटें थीं, वहीं वर्तमान लोकसभा में इन्हें कुल मिलाकर 7.1 फीसदी वोट और 15 सीटें मिलीं. यानी इनकी ताकत एक तिहाई से कम हो गई. ऐसे में जब तक 34 लोकसभा सीट वाली ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और ओडिसा में 20 सीट जीतने वाले बीजू जनता दल से संपर्क नहीं किया जाता तब तक तीसरे मोर्चे की खास शक्ल समझ नहीं आएगी. उसके बाद लोकसभा में 10 सीटें रखने वाली सीपीआइ और सीपीएम को भी इनकी बगल में खड़ा करना होगा. डगर बहुत लंबी है. उधर कभी बीजेपी को अछूत न मानने वाले अजित सिंह इस बार खार खाए बैठे हैं. पहले तो बीजेपी ने पश्चिमी यूपी में उनका जाट वोटर तोड़ लिया और उसके बाद चौधरी चरण सिंह के जमाने से मिले 12, तुगलक रोड के बंगले को खाली कराने में प्रधानमंत्री कार्यालय ने खासी दिलचस्पी दिखाई. दक्षिण दिल्ली के किराए के मकान में शिफ्ट हो गए अजित तीसरे मोर्चे पर कहते हैं, ‘‘इस बारे में सिर्फ मौन. बाकी तो आप सब देख ही रहे हैं.’’ हां, वे इतना जरूर कहते हैं कि मेरठ रैली के जरिए चौधरी साहब से जुड़े लोग एक मंच पर आए. उत्तर प्रदेश में सपा के सहयोग से बेटे जयंत चौधरी के राज्यसभा में जाने की सुगबुगाहट के सवाल पर भी यह जाट नेता पूरी तरह खामोश है.
अगर बना तो क्या करेगा मोर्चा
फर्ज कीजिए अगर यह मोर्चा बन भी गया तो यह करेगा क्या? क्योंकि इसका पहला इम्तिहान तो अगले साल बिहार में होने वाले विधानसभा चुनाव में ही होगा या फिर 2017 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में. हरियाणा में तो चुनाव हो ही चुका है. इन सवालों पर जेडी(यू) के राज्यसभा सांसद अली अनवर अंसारी कहते हैं, ‘‘अगर सहमति बन जाती है तो राज्यसभा में सरकार को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा. अगर एनसीपी औैर ममता बनर्जी साथ दें तो सरकार के लिए हालात और कठिन हो जाएंगे.’’ दरअसल, लोकसभा में भारी बहुमत के बावजूद राज्यसभा में बीजेपी की हालत पतली है. संसद के उच्च सदन में बीजेपी के पास 43 सांसद हैं, जबकि अकेले कांग्रेस के पास 68 सांसद हैं. इसके अलावा जनता परिवार के इन छह दलों के पास 29 सांसद हैं. अगर छह सांसदों वाला शरद पवार की एनसीपी और 11 सांसदों वाले वाम मोर्चा और 12 सांसदों वाली तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) इनका साथ देती रही तो सरकार के लिए एक भी बिल पास कराना मुश्किल हो सकता है. तो क्या सपा के मुखिया मुलायम शरद यादव की इस मुहिम को पूरा समर्थन देंगे? इस सवाल पर सपा के राष्ट्रीय महासचिव नरेश अग्रवाल का नपा-तुला जवाब है, ‘‘यह तो नेताजी (मुलायम सिंह यादव) खुद ही बता सकते हैं.’’ हालांकि संसद में सरकार को घेरने के सवाल पर उनका तर्क है, ‘‘सपा तो पुरजोर ढंग से सरकार को घेरती ही रही है. बाकी ताकतें भी इस काम में आगे आएंगी तो अच्छा है.’’ दरअसल सपा हमेशा से वह पार्टी रही है जिसने अक्सर बनने से पहले ही तीसरे मोर्चे की इतिश्री कर दी. लेकिन बदले वक्त में उसकी चाल बदल गई है. उसने उत्तर प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में भले ही अच्छा प्रदर्शन किया हो, लेकिन सबको पता है कि उस चुनाव में बीएसपी मुकाबले में उतरी ही नहीं. संसद में भी बीएसपी कब क्या करेगी यह तो सिर्फ बहनजी (मायावती) को ही पता है?
चुनाव में असर
अगर संसद में कांग्रेस के साथ मिलकर तीसरा मोर्चा मोदी सरकार को परेशान करता रहा तो आने वाले समय में हालात में कुछ बदलाव हो सकता है. तीसरे मोर्चे के चुनावी असर पर अंसारी कहते हैं, ‘‘यह सही है कि तीसरे मोर्चे की ताकतें हर राज्य में अपनी प्रभाव रखती हैं. जैसे यूपी में जेडी(यू) की ताकत इतनी नहीं है लेकिन हमारे प्रत्याशी दस-बीस हजार वोट तो काट ही देते हैं. यही स्थिति बाकी राज्यों में है. सबसे बड़ा असर भावनात्मक स्तर पर पड़ेगा.’’ वे साफ तौर पर कहते हैं कि अगर किसी मोर्चे में नीतीश कुमार, शरद यादव, लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, अजित सिंह, ओमप्रकाश चौटाला या नवीन पटनायक एक साथ दिखें तो इसका राष्ट्रीय असर होगा. मोर्चे के सूत्रधार इस बात पर भी नजर गड़ाए हैं कि ममता बनर्जी कब उनका रुख करती हैं, क्योंकि उन्हें पश्चिम बंगाल में अब बीजेपी से कठिन चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. माना जा रहा है कि नीतीश लगातार ममता को समझाने की कोशिश में जुटे हैं.
अगर सब ठीक चला, तो यह संयुक्त ताकत बिहार विधानसभा चुनाव में छाप छोड़ सकती है. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव अभी दूर है और तीन साल बाद सियासी हवा निश्चित तौर पर हू-ब-हू आज के जैसी तो नहीं होगी. ऐसे में मुलायम और अजित का गठजोड़ पश्चिमी यूपी में बीजेपी की नई-नई पकड़ को ढीला कर सकता है. मुलायम के साथ अगर मुसलमान आ सकते हैं तो अजित रूठे जाट भाइयों को मना सकते हैं. आरएलडी ने पार्टी महासचिव त्रिलोक त्यागी के नेतृत्व में 2 अक्तूबर से सद्भावना यात्रा भी शुरू कर दी है. इस समीकरण की पड़ताल करते हुए वरिष्ठ पत्रकार और राजनैतिक विश्लेषक के. विक्रम राव कहते हैं ‘‘अजित और मुलायम के मतभेद पुराने हैं. और इस नाजुक घड़ी में मुलायम सिंह कोई फैसला लेने में जल्दबाजी नहीं करेंगे.’’
दरअसल, जल्दबाजी कोई नहीं कर रहा है. सबका मिलना-जुलना जारी है. व्यावहारिक तौर पर तो ये मुलाकातें और इनसे पैदा होने वाली खबरें उस शून्य को भरने का काम करेंगी जो मजबूत विपक्ष के नदारद होने से पैदा हुआ है. एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ जनता परिवार के बिखरे हुए घटक फिर से सांप्रदायिकता के खिलाफ गोलबंदी और अपने पुराने जातीय आधार को मजबूत करने के लिए तत्पर हैं. इस नई पहल से फिलहाल इतना ही होगा कि राज्यसभा में सरकार की चुनौती बढ़ेगी और पूरी तरह मोदी केंद्रित होती जा रही राजनीति में लोहिया, जेपी और चौधरी चरण सिंह के चेहरे कुछ नए रंग भरेंगे. यह जमाना कुछ वैसा ही होगा जब इन लोगों ने इंदिरा गांधी केंद्रित राजनीति को उखाडऩे की हुंकार भरी थी. हालांकि इंदिरा गांधी ने इसके बावजूद देश पर 17 साल राज किया. लेकिन इससे विरोध का मजा कम नहीं होता और लोकतंत्र की तस्वीर ज्यादा आकर्षक हो जाती है. शरद यादव यही कर रहे हैं.
—साथ में आशीष मिश्र
पीयूष बबेले