पठानकोट के वायु सेना ठिकाने पर 2 जनवरी को हमला करने वाले छह फिदायीन आतंकियों के दो साफ मकसद थे-पहला फौजियों की हत्या और दूसरा, लड़ाकू विमानों तथा हेलिकॉप्टरों को तबाह करना. एयरबेस में खड़े लड़ाकू विमानों को नष्ट करने में आतंकी नाकाम रहे क्योंकि उन्हें तकनीकी क्षेत्र में घुसने से रोक दिया गया. लेकिन भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा हुई सिलसिलेवार चूक के चलते वे सुरक्षाकर्मियों को मारने और एयरबेस को लंबे समय तक बंधक बनाए रखने में जरूर कामयाब हुए.
यह हमला कोई अचानक नहीं हुआ था. सुरक्षा प्रतिष्ठान को एक दिन पहले से ही उस पुलिस अफसर की बदौलत इसके बारे में सूचना थी, जिसका आतंकियों ने अपहरण किया था और जिससे छीने गए सेलफोन पर हुई बातचीत को पकड़ लिया गया था. पाकिस्तान में बैठे अपने आकाओं के साथ आतंकियों की बातचीत से पता चला कि हमला पठानकोट में होने वाला है. इस सूचना के आधार पर सरकार के पास वहां सुरक्षाबलों की तैनाती के लिए पर्याप्त समय था. इसके बावजूद जिस तरह की प्रतिक्रिया की गई, उसने सीमा पार के आतंकवाद के खिलाफ एक संभावित शानदार जीत को पुराने ढर्रे की तर्ज पर एक घिसटती हुई लंबी लड़ाई में तब्दील कर डाला.
कोई सबक नहीं
पठानकोट के भारतीय वायु सेना ठिकाने पर 2 जनवरी को हमला करने वाले दोनों फिदायीन समूहों ने पंजाब के एक छोटे-से कस्बे बामियाल के निकट सीमा पार की. इस जगह का इस्तेमाल ड्रग तस्कर और आतंकी पहले से घुसपैठ के लिए करते रहे हैं. छह महीने पहले 27 जुलाई, 2015 को गुरदासपुर के दीनानगर पुलिस थाने पर हमला करने वाले तीन आतंकियों के फिदायीन दस्ते से बरामद जीपीएस उपकरण में दर्ज रास्तों से पता चलता है कि उन्होंने भी भारत में घुसने के लिए यही रास्ता चुना था.
जाहिर है, दीनानगर की घटना से न तो सीमा सुरक्षा बल और न ही पंजाब पुलिस ने कोई सबक सीखा था. थाने पर हमले के फौरन बाद हालांकि पंजाब पुलिस ने सुरक्षा तेज कर दी थी, कुछ चुनिंदा अफसरों को नरोट जयमाल सिंह जैसे सुदूर सीमावर्ती ठिकानों पर तैनात किया गया था तथा सीपीएमएफ (केंद्रीय अर्धसैन्य बल) और राज्य पुलिस बल की इकाइयों ने राष्ट्रीय राजमार्ग समेत ग्रामीण सड़कों पर भी रात में गश्त बढ़ा दी थी. यह सब कुछ हालांकि तीन महीने से ज्यादा नहीं टिक पाया था.
अक्तूबर के बाद गश्त में कमी ला दी गई और कई अधिकारी उन बिंदुओं से खुद को हटवा पाने में कामयाब रहे, जहां तैनाती को वे दंड के तौर पर देखते थे. आज अगले आतंकी हमले की सूरत से खौफजदा आला पुलिस अधिकारी स्थानीय नेताओं और तस्करों के नारकोटिक्स गिरोह पर उंगली उठा रहे हैं जो बामियाल जैसे आसान सीमा बिंदुओं को खुला रखना चाहते हैं.
विलंबित प्रतिक्रिया
गुरदासपुर के पुलिस अधीक्षक (मुख्यालय) सलविंदर सिंह ने 1 जनवरी की सुबह पठानकोट के पुलिस नियंत्रण कक्ष समेत अपने कई वरिष्ठ अधिकारियों को फोन लगाकर सूचना दी कि फौजी वर्दी पहने चार पाकिस्तानी आतंकियों ने उन्हें अगवा कर लिया था. वे सामान्य तौर से सुरक्षाकर्मियों के बगैर बाहर नहीं निकलते थे, लेकिन उस वक्त उनके साथ सिर्फ उनका रसोइया मदन गोपाल और पठानकोट का एक जौहरी राजेश कुमार मौजूद थे.
उनका दावा है कि आधी रात के आसपास आतंकवादियों ने उनकी एसयूवी को कोलियान गांव के बाहर रोक लिया जब वे एक स्थानीय तीर्थस्थल से लौट रहे थे. सलविंदर के मुताबिक, आतंकवादियों ने जौहरी को अपने साथ कार चलाने के लिए रखा जबकि उन्हें और रसोइए को छोड़ दिया. इलाके में फिदायीन दस्ते की सूचना के बारे में उनकी हिदायत को उससे पहले 30 दिसंबर को जारी एक खुफिया सूचना के आलोक में देखा जाना चाहिए जिसे पंजाब के सभी जिलों को प्रसारित किया गया था.
इसमें खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट के आधार पर बामियाल क्षेत्र में संभावित घुसपैठ की कोशिश की चेतावनी जारी की गई थी. इस पूर्व चेतावनी के बावजूद पंजाब पुलिस के आला अफसरों ने सलविंदर की कहानी पर भरोसा नहीं किया. एक बड़े पुलिस अधिकारी की मानें तो उनका संदेह सलविंदर के ऊंचे “ओहदे” के चलते था, जिनके तस्करों से संबंध होने की (अपुष्ट) अफवाहें चलती थीं. ताजपुर गांव के बाहर आइएएफ स्टेशन की पश्चिमी दीवार से बमुश्किल 500 मीटर की दूरी पर उनकी एसयूवी बरामद होने और उसके बाद राजेश की ओर से आए एक फोन के बाद ही वे सलविंदर की बात पर भरोसा कर सके. राजेश को आतंकियों ने गरदन में छुरा मार दिया था और उन्हें मृत समझकर छोड़ गए थे, लेकिन वे बड़ी मुश्किल से एक निजी अस्पताल पहुंचकर फोन कर सके थे. तब तक हालांकि काफी समय बर्बाद हो चुका था.
एयरबेस को महफूज रखने की नाकामी
चार फिदायीन 1 जनवरी को सूर्योदय से पहले किसी वक्त पठानकोट के एयरबेस में आसानी से घुसने में कामयाब हो गए थे. अगली सुबह जब दो अन्य फिदायीन उनके साथ आए, तब भोर में तीन बजे के आसपास भीतर डिफेंस सिक्योरिटी कोर के जवानों से उनका संघर्ष शुरू हुआ. यह सब कुछ तब हुआ, जबकि उनके आने और उनकी मारक मंशाओं की पर्याप्त सूचना उपलब्ध थी.
शुरुआत में लचर प्रतिक्रिया के बाद पंजाब पुलिस 1 जनवरी की सुबह देर से रिहाइशी इलाकों की गश्त में जुटी और उसने 2,000 एकड़ में बसे एयरबेस के किनारे बसे गांवों की छानबीन शुरू की. स्वात (स्पेशल वेपन्स ऐंड टैक्टिक्स) टीमों के सहयोग से चलाए गए इस व्यापक अभियान को पाकिस्तानियों का सुराग नहीं मिल सका. एयरबेस की सुरक्षा करने के लिए तैनात स्थानीय सैन्य इकाइयां भी एयरबेस की परिधि को महफूज रखने का काम कर पाने में नाकाम रहीं. ऐसा लगता है कि अधिकतर काम डीएससी के उन संतरियों के जिम्मे छोड़ दिया गया था, जिनमें अधेड़ उम्र के पूर्व सैनिक शामिल होते हैं जिन्हें एयरबेस या अन्य सैन्य ठिकानों पर तैनात किया जाता है.
फिदायीन का पहले सामना करने वाले ये ही जवान थे, जिनकी मौजूदगी एक वरिष्ठ वायु सेना अधिकारी के अनुसार, हेलिकॉप्टर समर्थित थर्मल इमेजिंग से पहले ही पकड़ी जा चुकी थी. चार दिन तक चले इस संघर्ष के पहले दिन डीएससी के चार जवानों के मारे जाने के बाद आतंकियों से निपटने को भेजे गए वायु सेना के एक गरुड़ कमांडो ने 4 जनवरी को इंडिया टुडे से कहा, “हमारे पास मैनपावर की कमी थी.”
एनएसजी की तैनाती
पठानकोट हमले से कुछ दिनों पहले राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी) को हाइ अलर्ट पर डाल दिया गया था. एनएसजी का 51 स्पेशल ऐक्शन ग्रुप (एसएजी) जिसमें सिर्फ सैन्यकर्मी होते हैं, उसे हरियाणा के मानेसर स्थित उसके बेस से निकालकर इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के बाहरी इलाके में स्थित सुदर्शन कॉम्प्लेक्स में भेज दिया गया था.
यह कॉम्प्लेक्स 26/11 के हमले के बाद बनाया गया है. गुप्तचर सूचना थी कि दिल्ली और आसपास नए साल पर हमले हो सकते हैं. सादे कपड़ों में कमांडो दक्षिणी दिल्ली के मॉल का मुआयना करने में लगा दिए गए थे. जब आतंकियों की घुसपैठ और उनके एयरबेस पर हमला करने के इरादों की खबर मिली, तब 1 जनवरी को एनएसजी की दो इकाइयों 51 एसएजी और 200 से ज्यादा कमांडो वाले 13 स्पेशल रेंजर्स ग्रुप को विमान से पठानकोट भेजा गया.
आतंकियों ने 2 जनवरी को जब हमला शुरू किया, तब जाकर यह साफ हुआ कि वायु सेना स्टेशन के भीतर ऑपरेशन चलाने के लिए एनएसजी का चुनाव ठीक नहीं था. जानकारों का मानना है कि एनएसजी का प्रशिक्षण संकट की स्थिति से निबटने के लिए दिया गया है, न कि किसी एयरबेस को बचाना या आतंकियों के पहुंचने से पहले उनकी घेराबंदी करना उसका काम है. इतने बड़े क्षेत्रफल में आतंकियों को निष्क्रिय करने के लिए भारी संख्या में सैनिकों की जरूरत थी और यह काम सेना की इन्फैंट्री कहीं ज्यादा सक्षम तरीके से कर सकती थी. लेकिन अकेले 1 पैरा को एनएसजी की मदद के लिए बुलाया गया.
तालमेल की कमी
भारतीय सुरक्षा एजेंसियों के लिए संयुक्त अभियान हमेशा ही अभिशाप रहा है. ये एजेंसियां अकेले ही अभियान चलाने में सुविधा महसूस करती हैं. मुंबई में 26/11 के हमले के दौरान यही दर्दनाक सबक सामने आया था, जब मुंबई पुलिस, सीआरपीएफ, मरीन कमांडो, भारतीय सेना और एनएसजी जैसी तमाम एजेंसियां मिलकर भी आतंकियों से हमले के शुरुआती घंटों में निबटने में नाकाम रही थीं. इस समस्या को दूर किया जा सकता था, अगर इन सभी बलों की कमान किसी एक अधिकारी को दे दी जाती.
पठानकोट में ऐसा कुछ नहीं किया गया. वहां भी वायु सेना, पंजाब पुलिस, सेना और एनएसजी एक साथ काम कर रहे थे और हरेक एजेंसी अपने-अपने अधिकारी के लिए जवाबदेह थी. पठानकोट में 5 जनवरी को आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस में रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर ने एनएसजी के हाथ में कमान देने पर हो रही आलोचना को दरकिनार करते हुए यह दलील दी कि 50 फीसदी से ज्यादा बल (एसएजजी) तो सैन्यकर्मियों से ही भरा हुआ है. उन्होंने इस बात का जिक्र नहीं किया कि एनएसजी गृह मंत्रालय के अंतर्गत आने वाला केंद्रीय अर्धसैन्य बल है जिसकी कमान एक आइपीएस अफसर के हाथ में होती है. पर्रीकर ने समन्वय की कमी की ओर इशारा करते हुए कहा कि थल सेना, वायु सेना और एनएसजी को “संयुक्त प्रशिक्षण” लेने की जरूरत है.
बहुत जल्दी “मिशन पूरा”
सुरक्षा बलों ने 2 जनवरी की रात को चौथा आतंकी मारे जाने के बाद गफलत में मान लिया था कि अभियान पूरा हो चुका है. गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने उस शाम “पांच आतंकवादियों” को मारने के लिए सुरक्षाबलों का अभिवादन किया लेकिन जल्द ही अपना ट्वीट हटा दिया. अगली सुबह दो अन्य आतंकियों की गोलीबारी ने संकेत किया कि हमला अभी जारी है.
सुरक्षाबल अब मान रहे हैं कि आतंकियों की दो टीमें अलग-अलग रास्तों से वायु सेना बेस पहुंची थीं. एक टीम ने सुरक्षाबलों को जब फंसाए रखा, उस वक्त दूसरी टीम आराम कर रही थी. दूसरी टीम ने अगले दिन गोलीबारी शुरू की. हमले की यह शैली इधर के वर्षों में पहली बार देखने में आई जिसने 2003 में उस भारी सुरक्षा चूक की याद दिला दी जब सेना के आला अधिकारी जम्मू में फिदायीन आतंकियों के एक हमले के घटनास्थल पर पहुंचे थे. वे मान चुके थे कि ऑपरेशन समाप्त हो चुका है, लेकिन एक फिदायीन हमलावर छिपा हुआ था. उसने गोलीबारी कर दी जिसमें एक ब्रिगेडियर मारा गया और सेना के उत्तरी कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल हरिप्रसाद घायल हो गए थे.
एनएसजी अफसर की मौत
पठानकोट के हमले में एक दुखद मोड़ 3 जनवरी की दोपहर को आया जब एक ग्रेनेड ब्लास्ट में एनएसजी की बम डिस्पोजल कंपनी (बीडीसी) के कमांडिंग अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल निरंजन कुमार मारे गए. इस धमाके में उनकी यूनिट के तीन अन्य लोग जख्मी हो गए. माना जाता है कि यह अधिकारी आतंकवादियों द्वारा लाए गए विस्फोटक को निष्क्रिय कर रहा था, तभी बम फट गया. उनकी मौत से यह सवाल उठ रहा है कि क्या यह काम करने के लिए बल के पास पर्याप्त साधन मौजूद थे. यह अब तक साफ नहीं है कि दिल्ली से पठानकोट पहुंचा एनएसजी का बम निरोधक दस्ता अपने साथ ये सारे सुरक्षा उपकरण लेकर गया था या नहीं.
“रणनीतिक अस्त्र” का दोबारा उभार
मसूद अजहर
जैश-ए-मोहम्मद की आतंकी मोर्चे पर वापसी का संकेत भारत के लिए ताजा चिंता की वजह
एसपी सलविंदर सिंह की गाड़ी में छूटी स्कूली अभ्यास पुस्तिका का एक मुड़ा-तुड़ा पन्ना पठानकोट के हमले के तार आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के साथ जोड़ता है. उसमें उन जगहों के नाम लिखे हैं जहां जैश ने पिछले हमले किए थे, “तंगधार, सांबा, कठुआ और दिल्ली... अफजल गुरु के चाहने वाले तुमसे मिलते रहेंगे.”
13 दिसंबर, 2001 को संसद पर हुए हमले के आरोपी अफजल गुरु को फरवरी, 2013 में फांसी दे दी गई थी. उसका नाम जैश बार-बार लेता है. पिछले नवंबर में कुपवाड़ा जिले के तंगधार में मारे गए जेईएम के तीन आतंकियों से बरामद थैलों पर “अफजल गुरु ब्रिगेड” लिखा हुआ था. इससे पहले 26 जनवरी, 2014 को जैश के संस्थापक मौलाना मसूद अजहर ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में स्थित मुजफ्फराबाद में पिछले कुछ साल में आयोजित अपनी पहली रैली को टेलीफोन से संबोधित करते हुए अफजल गुरु के जेल में लिखे लेखों का संग्रह जारी किया था.
पठानकोट एयरबेस पर हुए हमले ने जैश की भूमिका को एक बार फिर केंद्र में ला दिया है. मसूद अजहर को 31 दिसंबर, 1999 को कंधार में अपहृत भारतीय विमान आइसी 814 के 177 यात्रियों के बदले रिहा किया गया था. उस वक्त उसकी उम्र महज 31 साल थी. उसने 2000 में जेईएम की स्थापना की जिसने भारतीय संसद पर हमला किया और भारत तथा पाकिस्तान को जंग के मुहाने पर धकेल दिया.
इसके समर्थकों ने तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ पर 2003 में जब जानलेवा हमला किया, उसके बाद से यह संगठन सुप्त हो चुका था. खुफिया अधिकारियों का कहना है कि जेईएम का हालिया उभार पाकिस्तानी फौज की शह के बगैर मुमकिन नहीं हो सकता. वे इसमें दोतरफा रणनीति देखते हैं. एक आला इंटेलिजेंस अधिकारी कहते हैं, “लश्कर-ए-तैयबा के भारी दबाव में आ जाने के कारण दूसरे आतंकी समूह को रणनीतिक थाती की तरह इस्तेमाल करना और इस तरह लश्कर पर भी यह जताते हुए दबाव बनाए रखना कि फौज के पास उसका विकल्प है.”
जैश के दोबारा उभार के शुरुआती संकेत 2014 में मिले थे, जब पाकिस्तानी फौज ने उससे संबद्ध समाजसेवी संगठन अल-रहमत ट्रस्ट को एक और संगठन समेत उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान में पाकिस्तानी तालिबान के खिलाफ जर्ब-ए-अज्ब सैन्य अभियान के बाद आंतरिक रूप से विस्थापित लोगों के पुनर्वास का काम सौंपा था. दूसरा संगठन फलाह-ए-इंसानियत फाउंडेशन था जो लश्कर से संबद्ध है.
अजहर को हाफिज सईद की तरह सार्वजनिक रूप से नहीं देखा गया है, न ही 1999 में रिहाई के बाद से उसकी कोई अहम तस्वीर सामने आई है. वह दक्षिणी पंजाब प्रांत के बहावलपुर में मॉडल टाउन में रहता है जिसका परिसर भारी सुरक्षा के तहत है.
जैश का उभार लश्कर की कीमत पर नहीं हुआ है. जेईएम के लड़ाकों से पूछताछ करने वाले गुप्तचर अधिकारियों की मानें तो पाकिस्तान फौज को उस पर उतना भरोसा नहीं है क्योंकि वह वैचारिक तौर पर खुद को अल कायदा और तालिबान के करीब पाता है जबकि लश्कर पाकिस्तानी राज्यसत्ता के हितों के ज्यादा करीब है. एक अधिकारी कहते हैं कि लश्कर पर अगर पाकिस्तानी फौज को 95 फीसदी भरोसा है तो जैश पर 75 फीसदी है. मसूद अजहर कभी पाकिस्तानी फौज का पसंदीदा शख्स हुआ करता था लेकिन लश्कर और उसके संस्थापक हाफिज सईद के उभार ने उसकी किस्मत को कमजोर कर दिया. उसके लड़ाके लश्कर जितने प्रशिक्षित नहीं हैं और हाल के वर्षों में जम्मू और कश्मीर में उसे भारी नुक्सान भी उठाना पड़ा है, खासकर 2013 में जब जैश के कई अहम आतंकी मारे गए थे.
जैश ने हालांकि अति-सुरक्षित ठिकानों पर हमला करने की अपनी पुरानी रणनीति को बनाए रखा है. जैश के आतंकियों ने 5 दिसंबर, 2014 को उड़ी में सेना के एक कैंप पर हमला करके एक लेक्रिटनेंट कर्नल समेत 11 जवानों को मार दिया था. उसका दोबारा उभार भारत के लिए ताजा चिंता का विषय है.-संदीप उन्नीथन
संदीप उन्नीथन / असित जॉली