अगर कोई और वक्त होता तो मध्य प्रदेश के छतरपुर से पन्ना जिले की ओर जा रहे रास्ते पर बमीठा तिराहा आते ही गाड़ी बाएं हाथ पर मुड़कर, कुछ ही मिनट में विश्व प्रसिद्ध खजुराहो के मंदिरों तक पहुंच जाती. लेकिन अब यहां से 20 किमी के फासले पर एक नया आकर्षण जन्म ले रहा है, इसलिए हम पन्ना टाइगर रिजर्व के गंगऊ द्वार की तरफ बढ़ चले.
यह आकर्षण है—पहली बार कृत्रिम रूप से नदियों को आपस में जोडऩे के महाप्रयोग का. 10 साल से ठंडे बस्ते में पड़ी केन-बेतवा नदी जोड़ो परियोजना को केंद्र की नरेंद्र मोदी कैबिनेट की मंजूरी मिलने के बाद फिजा में नए गुंताड़े चल रहे हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि केन में अकसर आने वाली बाढ़ में बरबाद होने वाला पानी अब बेतवा में पहुंचकर हजारों एकड़ खेतों में फसलों को लहलहाएगा.
दूसरा पक्ष पूछता है कि 9,000 करोड़ रु. खर्च करने के बाद उन नदियों को मिलाने से क्या फायदा जो आगे चलकर खुद ही यमुना में मिल जाती हैं. दूसरा सवाल यह कि पहले से ही बाघों को बचाने के लिए परेशान देश क्या पन्ना टाइगर रिजर्व के 5,258 हेक्टेयर हिस्से को डुबाने वाले बांध का स्वागत करने को तैयार है?
(डोढन गांव, यहां नया बांध बनाया जाएगा जहां से 220 किमी लंबी नहर को केन नदी का पानी सप्लाई किया जाएगी)
सूखी जमीन को मिलेगा पानीइन्हीं सवालों की जमीनी हकीकत को टटोलने की चाह में गंगऊ द्वार खुला और हम पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर थे. विंध्याचल की पहाडिय़ों पर हरे-भरे जंगलों के बीच पूरी तरह उखड़ा और बल खाता रास्ता हमें केन नदी पर बने 99 साल पुराने गंगऊ बांध पर ले आया. बांध का दृश्य विहंगम है, लेकिन गाद से पटा बूढ़ा बांध अब बहुत पानी नहीं रोक पाता. इसीलिए देशभर में नदियों को जोडऩे का खाका खींचने वाली नेशनल वाटर डेवलपमेंट अथॉरटी (एनडब्ल्यूडीए) ने इस बांध से 4 किमी ऊपर डोढन गांव में नया विशाल डोढन बांध बनाने का फैसला किया है.
यहां 9,000 हेक्टेयर के जलाशय में पानी रोका जाएगा. इस जलाशय में छतरपुर जिले की बिजावर तहसील के 10 आदिवासी बहुल वनग्राम सुकवाहा, भोरकुवां, घुघरी, बसुधा, कुपी, शाहपुरा, डोढऩ, पिलकोहा, खरयानी और मनियारी डूब जाएंगे. पास ही दो पावरहाउस बनाए जाएंगे जिनसे 78 मेगावाट हाइड्रोपावर का उत्पादन किया जाएगा. फिर 220 किमी लंबी नहर निकाली जाएगी जो मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिलों और उत्तर प्रदेश के महोबा और झंसी जिलों से होते हुए अंत में झंसी जिले के बरुआसागर में चंदेल कालीन बरुआसागर तालाब में केन के अतिरिक्त पानी को गिराएगी.
यहां से यह पानी 20 किमी आगे पारीछा बांध में पहुंच जाएगा. 4,317 हेक्टेयर क्षेत्रफल में फैली नहर अपने रास्ते में पडऩे वाले 60,000 हेक्टेयर खेतों को सींचेगी, एनडब्ल्यूडीए की डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट (डीपीआर) में ऐसा दावा किया गया है. रास्ते में पानी के उपयोग के बाद 591 एमसीएम पानी शुद्ध रूप से केन नदी से बेतवा नदी को हर साल देने का दावा है. सबसे बड़ी बात यह कि अगर यह प्रयोग कामयाब रहा तो 150 साल से हवा में तैर रहा देश की विभिन्न नदियों को आपस में जोडऩे की 30 योजनाओं का सपना भी आंखें खोलने लगेगा.
क्या केन में इतना पानी हैडीपीआर के मुताबिक, पानी का असली उपयोग यहीं से शुरू होगा. उत्तर प्रदेश को केन का अतिरिक्त पानी देने के बाद मध्य प्रदेश करीब इतना ही पानी बेतवा की ऊपरी धारा से निकाल लेगा. परियोजना के दूसरे चरण में मध्य प्रदेश चार बांध बनाकर रायसेन और विदिशा जिलों में सिंचाई का इंतजाम करेगा. इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और जल संसाधन मंत्री उमा भारती योजना को लेकर खासी उत्साहित हैं.
उमा के उत्साह की एक वजह यह भी है कि वे इस योजना से जुड़ी उत्तर प्रदेश की झांसी लोकसभा सीट से सांसद हैं और इस योजना से जुड़े मध्य प्रदेश के छतरपुर और टीकमगढ़ जिले उनकी जन्मभूमि और राजनीति की मूल भूमि हैं. उमा ने तो लोकसभा में यहां तक कहा कि अगले 10 साल में देश में 30 नदी जोड़ो योजनाओं को पूरा किया जाएगा. इससे 34,000 मेगावाट बिजली बनेगी.
यहीं, साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स ऐंड पीपल (एसएएनडीआरपी) के निदेशक हिमांशु ठक्कर सवाल करते हैं, ''यह सारी परियोजना इस परिकल्पना पर टिकी है कि केन नदी में फालतू पानी है. डीपीआर में यह मानकर चला गया है कि बेतवा बेसिन में प्रति हेक्टेयर 6,157 क्यूबिक मिलियन पानी की जरूरत है जबकि केन बेसिन में प्रति हेक्टेयर 5,327 क्यूबिक मिलियन पानी की जरूरत है. केन बेसिन में पानी की जरूरत जान-बूझकर 16 फीसदी कम बताई गई ताकि यहां फालतू पानी दिखाया जा सके.”
इसके अलावा पन्ना टाइगर रिजर्व और मौजूदा गंगऊ बांध की निचली धारा में बनी घडिय़ाल सैंक्चुअरी को भी इससे बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा. वैसे भी पन्ना टाइगर रिजर्व एक बार पहले भी अपने सारे बाघ खो चुका है और वहां अब नए सिरे से बाघों को बसाया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले को उठाने वाले भोपाल के पर्यावरण कार्यकर्ता अजय कुमार दुबे कहते हैं, ''अगर बाघों का बसेरा उजाड़कर उन्हें मार ही डालना है तो सरकार बाघ बचाने का नाटक ही क्यों करती है?” पर्यावरण से जुड़े इन्हीं अंदेशों के कारण कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के समर्थन के बावजूद पिछली सरकार के पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने योजना को मंजूरी नहीं दी थी.
पर्यावरण कार्यकर्ता अरुंधति धू सवाल करती हैं, ''बेतवा का पानी विदिशा में ही रुक जाएगा और केन का पानी झंसी को पारीछा में मिलेगा, लेकिन बीच में बने माताटीला और राजघाट बांधों का क्या होगा?” ये दोनों बांध इस बड़े इलाके की सिंचाई और पेयजल व्यवस्था के साथ ही 75 मेगावाट जलविद्युत का उत्पादन भी करते हैं. 300 करोड़ रु. लागत से बना राजघाट बांध तो 31 साल तक बनते-बनते 2006 में पूरा हुआ. इन सवालों पर एनडब्ल्यूडीए की दलील है कि ये बांध अपनी लागत वसूल कर चुके हैं. यानी इनके खत्म होने में कोई बुराई नहीं है.
(पिलकोहा गांव, सरपंच जगन्नाथ यादव ने जब एनडब्ल्यबडीए का वह दस्तावेज पढ़ा जिसमें लिखा था कि उनका गांव 2007 में विस्थापित हो गया तो पूरी चौपाल सन्न रह गई)
आबाद गांवों को उजाड़ दिखायाये सवाल जेहन में घूम ही रहे थे कि इस बीच गंगऊ बांध पर डोढऩ गांव के 40 वर्षीय मुन्नालाल यादव और 70 वर्षीय श्यामलाल आदिवासी मिल गए. श्यामलाल ने केन-बेतवा लिंक के बारे में कहा, ''हां, अखबारों में ही कुछ देखा है लेकिन आज तक किसी सरकारी अफसर ने गांववालों से कोई बात नहीं की.” उनके साथ एक किमी का सफर कर डोढन गांव पहुंच गए जो पूरी परियोजना का केंद्र बिंदु है.
गांव की चौपाल पर लोगों ने बताना शुरू किया कि उन्हें न तो योजना के बारे में कुछ पता है और न ही यह पता है कि उन्हें कोई मुआवजा भी मिलेगा या नहीं. 24 घंटे बिजली सुविधा के दावे करने वाले मध्य प्रदेश के इस गांव में बिजली की लाइन नहीं पहुंची है. गांव पन्ना टाइगर रिजर्व के अंदर है, लिहाजा इस आदिवासी बहुल गांव तक आने वाला सड़क मार्ग वर्षों से मरम्मत न होने की वजह से खत्म हो गया है.
जब उनसे पूछा गया कि 2007 में एनडब्ल्यूडीए की तरफ से तैयार प्रावधान के मुताबिक हर विस्थापित होने वाले परिवार को औसतन दो लाख रु. मुआवजा मिलेगा तो 65 वर्षीया पार्वती आदिवासी उखड़ गईं. उन्होंने कोहनी तक हाथ जोड़े (बुंदेलखंड में इस तरह के प्रणाम का मतलब है कि अब आप यहां से दफा हो जाइए) औैर कहा, ''हम अपने गांव में ठीक हैं. हमें न बांध चाहिए, न चुटकी भर मुआवजा.”
इसी तरह जब दूसरे प्रभावित गांव पिलकोहा पहुंचे तो भी लोगों ने यही बताया कि केन-बेतवा लिंक के बारे में उड़ती-उड़ती खबरों के सिवा उनके पास कुछ नहीं है. आगे बढऩे से गांववालों के प्रति व्यवस्था की आपराधिक असंवेदनशीलता का नमूना देखना जरूरी है. पिलकोहा में बाकायदा 8वीं तक का सरकारी स्कूल चल रहा है, ग्राम पंचायत है, लोगों के अपने वोटर आइ- कार्ड हैं और 2,500 लोग यहां रह रहे हैं.
फिर भी बांदा के आरटीआइ कार्यकर्ता आशीष सागर दीक्षित की याचिका पर 1 जुलाई 2010 को एनडब्ल्यूडीए ने बताया , ''डीपीआर के मुताबिक पन्ना टाइगर रिजर्व के 10 गांव प्रभावित गांवों की सूची में आते हैं. डोढन बांध से प्रभावित होने वाले 10 गांवों में से चार गांव नामत: मैनारी, खरयानी, पलकोहा और डोढन पूर्व में ही वन विभाग द्वारा विस्थापति कराए जा चुके हैं. शेष छह गांव के 806 परिवार विस्थापित कराने शेष हैं.” गांव की चौपाल पर आरटीआइ की चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते जैसे ही ये पंक्तियां आईं तो पिलकोहा के सरपंच जगन्नाथ यादव के हाथों से तोते उड़ गए.
सागौन, खैर और बांस के जंगलों से घिरे गांव में सन्नाटा तोड़ते हुए यादव ने कहा, ''ये क्या मजाक है. वे तो मानते ही नहीं कि हम यहां रहते हैं.” गांव वालों को कतई उम्मीद नहीं थी कि इस योजना के बारे में पहली आधिकारिक चिट्ठी उन्हें इस तरह देखने को मिलेगी. दो दिन तक दुर्गम गांवों में पहुंचने और गांववालों से बातचीत में यही कहानी दोहराई जाती रही.
केन की सहायक नदी स्यामरी के किनारे बसे सुकवाहा के 25 वर्षीय बलबीर सिंह यह मानकर चल रहे थे कि अगर उनके गांव की जमीन डूब क्षेत्र में आती है तो कम से कम 50 लाख रु. मुआवजा तो मिल ही जाएगा. इससे वे छतरपुर में एक स्कूल खोल लेंगे. लेकिन मुआवजे पर छाए धुंधलके में भविष्य की उनकी योजनाएं हिचकोले खाने लगी हैं.
जब इन सारे पहलुओं पर एनडब्ल्यूडीए के चीफ इंजीनियर (मुख्यालय) आर.के. जैन से सवाल किया गया तो उन्होंने कहा, ''हमारा काम डीपीआर तैयार करना है. लोगों के विस्थापन या पुनर्वास की जानकारी राज्यों की सरकारों की है. आरटीआइ में वही जवाब दिया गया होगा जो आंकड़े वन विभाग से मिले हैं.”
साथ ही उन्होंने कहा, ''लेकिन अगर कोई भी विसंगति आती है तो उसका पूरा ध्यान रखा जाएगा." मुआवजे के सवाल पर उन्होंने कहा कि 2013 में इस बारे में नया प्लान बनाया गया है और किसी भी सूरत में गांव वालों को बेहतर मुआवजा मिलेगा. परियोजना कब तक शुरू होगी, इस बारे में उन्होंने कहा, ''राज्यों से टेक्निकल और पर्यावरण स्वीकृति मिलने के बाद ही काम शुरू होगा.”
लेकिन काम शुरू होने से पहले ही डीपीआर में इतनी गंभीर खामियां परियोजना की विश्वसनीयता पर सवाल उठाने लगी हैं. क्या ऐसी परियोजना जिसकी कामयाबी देश की सूरत हमेशा के लिए बदल सकती है, कुछ ज्यादा जिम्मेदारी की मांग नहीं करती.
(झांसी जिले के बरुआसागर (बाएं) में पहुंचेगा छतरपुर के गंगउ बांध (ऊपर) के ऊपर बनने वाले डोढन बांध का पानी)
परियोजना की खूबियां और खामियांकेन नदी: नदी जबलपुर के पास कैमूर की पहाडिय़ों से निकलकर
427 किमी उत्तर की ओर बहने के बाद उत्तर प्रदेश के बांदा जिले में चिल्ला गांव में यमुना नदी में मिलती है. केन और इसकी सहायक नदियों पर पांच बांध हैं.
बेतवा नदी: यह नदी मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से निकलकर
576 किमी बहने के बाद उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में यमुना में मिलती है. बेतवा और इसकी सहायक नदियों पर पहले से
24 बांध हैं.
केन-बेतवा लिंक: मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले के डोढन गांव में गंगऊ बांध के ऊपर
2,853 एमसीएम क्षमता वाला डोढन बांध बनाया जाएगा. यहां पावरहाउस भी बनाए जाएंगे जिनकी बिजली उत्पादन क्षमता
78 मेगावाट होगी. इस बांध से
220 किमी लंबी नहर बनाकर केन का पानी झंसी जिले के बरुआसागर तालाब में डाला जाएगा. बरुआसागर तालाब बेतवा पर बने पारीछा बांध में यह पानी पहुंचाएगा.
लागत: 9,000 करोड़ रु.फायदा: लिंक परियोजना के जरिए केन नदी से बेतवा नदी में
1,074 एमसीएम पानी पहुंचाया जाएगा. इसमें से
366 एमसीएम पानी
250 किमी लंबी नहर के रास्ते में पडऩे वाले मध्य प्रदेश के पन्ना, टीकमगढ़ और छतरपुर जिलों औैर उत्तर प्रदेश के बांदा, झंसी और महोबा जिलों के
6 लाख हेक्टेयर खेतों को सींचेगा. पानी के अन्य इस्तेमाल को घटाने के बाद बेतवा नदी में
591 एमसीएम पानी पहुंचेगा. बेतवा पर 4 नए बांध बनने से मध्य प्रदेश के विदिशा और रायसेन जिलों में सिंचाई का इंतजाम होगा.
अंदेशा: परियोजना की डीपीआर में केन बेसिन में बेतवा बेसिन की तुलना में पानी की जरूरत
16 फीसदी कम बताई गई. ऐसा करने से केन में अतिरिक्त पानी आसानी से दिखाया गया. लेकिन इसका कहीं स्पष्टीकरण नहीं है.
नुकसान: मध्य प्रदेश के पन्ना टाइगर रिजर्व का
5,000 हेक्टेयर बड़ा इलाका पानी में डूब जाएगा. गंगऊ बांध के नीचे बनी घडिय़ाल सैंक्चुअरी को साल भर ताजा पानी उपलब्ध नहीं रहेगा. बेतवा पर पहले से मौजूद माताटीला बांध और राजघाट बांध को बहुत कम पानी मिल पाएगा. इससे इन बांधों पर हुआ हजारों करोड़ रु. का निवेश बेकार हो जाएगा. राजघाट बांध पांच साल पहले ही बनकर तैयार हुआ है.
—साथ में संतोष पाठक
पीयूष बबेले