आगे बढ़ते एक और मोदी

बिहार में सुशील मोदी बीजेपी के सबसे बड़े चेहरे हैं और उन्हें अपनों के साथ-साथ नीतीश लालू से भी निबटना है.

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अमिताभ श्रीवास्तव

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  • 06 अप्रैल 2015,
  • अपडेटेड 4:44 PM IST

वर्ष 1973 में बिहार की छात्र राजनीति के उस सरगर्म दौर में हर व्यक्ति सोच रहा था कि सुशील कुमार मोदी बॉटनी ऑनर्स का अपना इम्तिहान पास नहीं कर पाएंगे. ऐसा सोचना गलत भी नहीं था क्योंकि पटना विश्वविद्यालय के छात्र संघ के महासचिव चुने गए सुशील मोदी ने जितनी छात्र सभाओं को संबोधित किया, उतने तो वे पटना साइंस कॉलेज की अपनी कक्षाओं में भी मौजूद नहीं रहे थे. कुछ शुभचिंतकों ने उन्हें सलाह दी कि वे इम्तिहान में न बैठें क्योंकि बॉटनी में फेल छात्र नेता होने से बेहतर परीक्षा में नहीं बैठने वाला छात्र नेता होना है. लेकिन युवा मोदी ने चुनौती स्वीकार की. वे अपने सहपाठियों के घर गए, उनके क्लास नोट्स को अपनी कॉपी में लिखा और इम्तिहान के पहले एक पखवाड़े के लिए खुद को दीन-दुनिया से काटकर कमरे में बंद कर लिया. नतीजे ने सबको हैरान कर दिया. वे उस साल विश्वविद्यालय के सेकंड टॉपर बने. तब से 42 साल बीत चुके हैं पर पुराने मंजे हुए नेता 63 वर्षीय सुशील मोदी में मुश्किल से ही कोई फर्क आया हो. आज भी उनमें खुद को सबसे बेहतर साबित करने का जज्बा जस का तस कायम है.

बिहार के ताज के लिए तीर धनुष पर चढ़ चुका है और मोदी को बीजेपी के अघोषित लेकिन संभावित मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर फिर कड़ा इम्तिहान देना होगा. वे इस साल अक्तूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद के महागठबंधन का मुकाबला करेंगे. असल में लालू, मुलायम, नीतीश, देवगौड़ा और चौटाला के महा सामाजिक गठबंधन के रास्ते में बिहार में मोदी सबसे बड़ा अवरोध साबित हो सकते हैं.

मोदी ने बिहार में बीजेपी के सबसे दिग्गज नेता की पदवी पहले ही हासिल कर ली है. वे कई साल से राज्य में बीजेपी की कमान संभाल रहे हैं. जून 2013 में गठबंधन टूटने तक बीजेपी-जेडी(यू) गठबंधन सरकार के पूरे सात साल के दौरान वह उपमुख्यमंत्री थे. उसके बाद से वह लगातार बीजेपी संसदीय दल के नेता हैं (विधानसभा और विधान परिषद दोनों में पार्टी के मुखिया) और इस नाते वे बीजेपी के वरिष्ठता क्रम में विधानसभा में विपक्ष के नेता नंदकिशोर यादव से मीलों आगे हैं.

मोदी की दिक्कत यह है कि उन्हें बिल्कुल नए सिरे से शुरुआत करने की सुविधा हासिल नहीं है. उनकी होड़ लोकसभा चुनाव में प्रदेश में बीजेपी की हैरान करने वाली कामयाबी से है, जब नरेंद्र मोदी की अगुआई में एनडीए ने 31 सीटें अपनी झोली में डाल ली थीं. बीजेपी का लक्ष्य विधानसभा चुनाव में 185 सीटें जीतने का है, जो उन 171 विधानसभा क्षेत्रों से भी ज्यादा है, जहां पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान बीजेपी ने अपने गठबंधन सहयोगियों के साथ बढ़त कायम की थी. लेकिन तब की और आज की सियासी हकीकतों में काफी फर्क आ चुका है. लालू और नीतीश अब साथ-साथ हैं और कांग्रेस के साथ मिलकर उनका गठबंधन लोकसभा चुनावों के रुझानों को एक बार पहले ही पलट चुका है, जब अगस्त 2014 के विधानसभा उपचुनावों में आरजेडी, जेडी(यू) और कांग्रेस ने छह सीटें जीत ली थीं और बीजेपी चार सीटें ही जीत पाई थी.

इसके अलावा, बिहार में करीब दो दशकों से बीजेपी के पोस्टर ब्वॉय मोदी को अपने घर में उठती लपटों को शांत करना होगा. अगस्त 2014 के उपचुनाव परिणाम के बाद पार्टी के कुछ नेताओं को राज्य में भगवा खेमे की अगुआई करने की अपनी ख्वाहिश जाहिर करने का मौका मिल गया था. हालांकि गिन-चुने नेताओं के इन बुदबुदाते दावों को महत्वाकांक्षा का क्षणिक दौरा भर माना गया,   फिर भी वे मोदी के लिए चुनौती तो हैं ही. विपक्ष के नेता नंदकिशोर यादव सरीखे नेताओं ने मुख्यमंत्री पद की अपनी आकांक्षा को कभी छिपाया नहीं है. विधायक प्रेम कुमार भी इसीलिए बार-बार जता रहे हैं कि वे राज्य की एक बेहद पिछड़ी जाति से आते हैं, ताकि बीजेपी के मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवारी के लिए अपनी दावेदारी पेश कर सकें.
बीजेपी के कुछ नेताओं की दलील है कि केंद्रीय नेतृत्व दिल्ली में एक बार गच्चा खा चुकने के बाद बिहार में वह गलती नहीं दोहराएगा. एक वरिष्ठ बीजेपी नेता कहते हैं, ''हम पहले ही देख चुके हैं कि जब किसी स्वाभाविक नेता से उसके हक की भूमिका छीनकर किरण बेदी सरीखे बाहरी को थोपा जाता है, तो क्या नतीजे होते हैं. '' राज्य में बीजेपी के पास कोई बेहतर विकल्प भी नहीं है. विधान परिषद के निर्दलीय सदस्य और कभी नीतीश के करीबी रहे देवेश चंद्र ठाकुर कहते हैं कि सुशील मोदी परफेक्ट नेता की कसौटी पर बिल्कुल खरे उतरते हैं. 

नरेंद्र मोदी-अमित शाह की मातहती में सुशील मोदी की हैसियत घटने की अटकलें लगाई जा रही थीं पर इन पर तब विराम लग गया, जब हाल ही में बिहार आए केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू और राधामोहन सिंह ने विधानसभा चुनावों में मोदी को पार्टी का चेहरा बनाने का समर्थन किया.

अभी तक मोदी ने किसी न किसी की छाया में रहकर काम किया है. बीजेपी-जेडी(यू) गठबंधन में नीतीश की ही तूती बोलती थी और वे सारी सुर्खियां लूट ले जाते थे. अब मोदी के कंधों पर बीजेपी के चुनाव अभियान की अगुआई करने की चुनौती होगी और दूसरे पार्टी नेता उनके पीछे-पीछे चलेंगे.

मोदी जिम्मेदारियों से कभी कतराए नहीं. आठ साल तक उन्होंने बिना थके और बिना रुके नेता विपक्ष की कमान संभाली और अकेले अपने दम पर राज्य में विरोध की ज्वाला को बुझने नहीं दिया था. यह लालू-राबड़ी हुकूमत का वह दौर था, जब नीतीश सरीखे बिहार एनडीए के बड़े नेताओं ने सांसद या केंद्रीय मंत्रियों के रूप में दिल्ली की सुरक्षित पनाहगाहों में रहना मुनासिब समझा था.

2010 में भी जब मोदी ने बिहार में बीजेपी के अभियान की अगुआई की थी, पार्टी 102 सीटों पर चुनाव लड़ी और उनमें से 91 सीटों पर जीत हासिल की थी. पार्टी ने 90 फीसदी कामयाबी की यह दर पहले कभी हासिल नहीं की थी, जो जेडी(यू) से भी ज्यादा थी. 2010 के चुनाव नतीजों ने यह कहने वालों के भी मुंह बंद कर दिए कि बीजेपी सभी तबकों के वोट नहीं जुटा सकती. बीजेपी के अकेले मुस्लिम उम्मीदवार सबा जफर, जिन्हें मोदी ने खुद चुना था, एक अल्पसंख्यक-बहुल निवार्चन क्षेत्र से जीतकर आए. मोदी ने मामूली पृष्ठभूमि से लंबी छलांग लगाकर कामयाबी की कहानी लिखी है, लेकिन उन्हें कभी हड़बड़ी में नहीं देखा गया.

1977 में जब जेपी आंदोलन के उनके 55 नौजवान साथी नेता निर्वाचित होकर विधानसभा में आ गए, तब मोदी ने त्याग का रास्ता चुना और चमचमाते सियासी करियर से दूर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के लिए काम करते रहे. अपने कई साथी नेताओं की तरह मोदी ने सियासत में फौरन छलांग लगाने के लिए एबीवीपी के साथ जुड़ावों का इस्तेमाल भी नहीं किया. 1990 में चीजें बेहतर होना शुरू हुईं, जब बीजेपी ने मोदी को पटना मध्य से चुनाव में उतारा, जो कांग्रेस का गढ़ था. मोदी ने कांग्रेस के मौजूदा विधायक अकील हैदर को हराया और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. 

मोदी को बाद में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. उनमें एक अहम चुनौती 2008 का वह गुप्त मतदान था, जब बीजेपी नेताओं ने उनके नेतृत्व को चुनौती दी. बीजेपी विधायकों से अपना नेता चुनने को कहा गया था और मोदी अच्छे-खासे बहुमत से जीते तथा उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाए रखा गया.

मोदी की निगाह निशाने पर और मन में संकल्प है. बिहार को वे अपने हाथ की लकीरों की तरह जानते हैं. अपनी और विरोधी पार्टियों की हालत की विवेचना करते हुए वे जिलों से आए बीजेपी नेताओं से हर तरह के सवाल पूछते हैं-जातियों की बुनावट से लेकर स्थानीय समीकरण, जनता का मूड और वोटिंग फीसद तक. इन बैठकों का अंत भरोसा दिलाने वाली मुस्कान से होता है, जब वे कहते हैं, ''ध्यान से देखना है.'' हर नायक टकराव में ही नायकत्व हासिल करता है. बुरे वक्त की छाया में ही अच्छा वक्त पहचाना जाता है और अगस्त 2014 के उपचुनावों में नीतीश-लालू के अच्छे प्रदर्शन ने मोदी को नए हौसले और जज्बे से भर दिया है.

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