फैसले की फांस, महाभियोग की मनमानी

महाभियोग का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट के जजों को हटाने के लिए संसद में तब लाया जाता है जब उनके खिलाफ कदाचार के आरोप होते हैं. राजनीतिक दलों के पास ये एक हथियार की तरह होता है, जिसका वे अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं. इसका दूसरा पहलू ये होता है कि जज की सबसे बड़ी चीज उसकी प्रतिष्ठा होती है और दाग न लगे इसका दबाव जज पर होता है. 

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फैसले की फांस, महाभियोग की मनमानी फैसले की फांस, महाभियोग की मनमानी

मंजीत ठाकुर / मनीष दीक्षित

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  • 20 अप्रैल 2018,
  • अपडेटेड 5:48 PM IST

सोहराबुद्दीन मुठभेड़ मामले की सुनवाई कर रहे सीबीआइ जज बी.एच. लोया के मौत को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में स्वाभाविक करार देकर इससे जुड़े विवादों को तो विराम दे दिया लेकिन राजनीतिक पार्टियों के बीच एक नई रस्साकशी जरूर शुरू हो गई. दरअसल, ये मामला भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से जुड़ा हुआ है इसलिए विपक्ष और सत्तापक्ष दोनों की दिलचस्पी इसमें है. 

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इस केस के फैसले का न्यायिक महत्व बहुत कम लेकिन राजनीतिक महत्व बहुत ज्यादा है क्योंकि दांव ऊंचे हैं. 

कांग्रेस चाहती थी कि इस मामले में अमित शाह को फंसाने वाला फैसला आए ताकि वो आगामी चुनावों में इसे मुद्दा बना सके और भारतीय जनता पार्टी ऐसा नहीं होने देना चाहती थी. प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने जो फैसला सुनाया वह कांग्रेस को नहीं भाया. और पार्टी नेता कपिल सिब्बल ने 20 अप्रैल को ऐलान कर दिया कि चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाया जाएगा. इसमें कांग्रेस के अलावा विपक्षी दलों के 71 सांसदों ने हस्ताक्षर भी कर दिए हैं. महाभियोग का नोटिस उपराष्ट्रपति तक पहुंच गया है. 

लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि ये महाभियोग प्रस्ताव किस मकसद के लिए लाया जा रहा है. इसके लिए पिछले घटनाक्रम की ओर नजर दौड़ाना जरूरी है.

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जनवरी के महीने में सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने असाधारण तौर पर प्रेस कांफ्रेंस करते हुए चीफ जस्टिस पर मुकदमों की बेंच के अलॉटमेंट में मनमानी का आरोप लगाया था. उस प्रेस कांफ्रेंस में जस्टिस जे. चेलमेश्वर भी शामिल थे जो कि दूसरे सबसे वरिष्ठ जज हैं. जिन मामलों को लेकर चीफ जस्टिस पर आरोप लगाया गया था माना जाता है कि उनमें से एक जस्टिस लोया का केस भी था,  जिसे प्रेस कांफ्रेंस करने वाले चारों जजों में से किसी की अदालत के हवाले नहीं किया गया था. 

संयोग था कि 12 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट के कुछ जजों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश पर आरोप लगाते हुए प्रेस कांफ्रेंस की थी और इसके ठीक एक दिन बाद एयरसेल मैक्सिस मामले के सिलसिले में पूर्व वित्तमंत्री पी. चिदंबरम के पुत्र कार्ति चिदंबरम के ठिकानों पर प्रवर्तन निदेशालय के छापे पड़े और बाद के दिनों में उन्हें गिरफ्तार भी कर लिया गया. 

प्रेस कांफ्रेस के बाद से ही चीफ जस्टिस के खिलाफ महाभियोग का प्रस्ताव लाए जाने की चर्चा कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्ष के हवाले से सामने आने लगी थीं. सिर्फ जानकारी के लिए कि जस्टिस दीपक मिश्रा को 2011 में सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया गया था, तब कांग्रेस की सरकार थी. ये भी कि महाभियोग के प्रस्ताव पर कांग्रेस के नेता और दिग्गज वकील सलमान खुर्शीद अपनी असहमति जता चुके हैं. 

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महाभियोग का प्रस्ताव सुप्रीम कोर्ट और हाइकोर्ट के जजों को हटाने के लिए संसद में तब लाया जाता है जब उनके खिलाफ कदाचार के आरोप होते हैं. राजनीतिक दलों के पास ये एक हथियार की तरह होता है, जिसका वे अपने हिसाब से इस्तेमाल कर सकते हैं. इसका दूसरा पहलू ये होता है कि जज की सबसे बड़ी चीज उसकी प्रतिष्ठा होती है और दाग न लगे इसका दबाव जज पर होता है. 

महाभियोग का प्रस्ताव फैसले को पक्ष में करने के लिए अगर होगा तो लोकतंत्र के लिए उससे बड़ा कोई कलंक नहीं हो सकता. बदकिस्मती से अगर कभी सत्ता पक्ष ने ऐसा कर लिया और फैसला भी पलटवा लिया तो लोकतंत्र की मौत हो जाएगी. 

जस्टिस दीपक मिश्रा के मामले में कांग्रेस व अन्य विपक्षी दलों ने इस हथियार का इस्तेमाल कर लिया है अब अंजाम के लिए संसद के सत्र तक का इंतजार करना होगा. लेकिन चीफ जस्टिस की प्रतिष्ठा पर उंगली विपक्ष ने उठा दी है. 

न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के बीच टकराव का ये एकदम दूसरा पहलू है. इससे पहले न्यायपालिका के सामने सरकार थी जब न्यायिक जवाबदेही कानून सुप्रीम कोर्ट ने खारिज किया था. सोचिए अगर उसके बाद सरकार ऐसा करती तो कैसी विकट स्थिति होती. विपक्ष ने अपनी बात अदालत में रखने के बजाय उसे दबाव में लेने के लिए संवैधानिक प्रावधान का इस्तेमाल किया है. इससे गलत चलन शुरू हुआ है. 

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(मनीष दीक्षित इंडिया टुडे के असिस्टेंट एडिटर हैं)

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