वाकई नेमिचंद जैन अस्पताल किसी भुतहा इमारत की तरह ही दिखाई देता है. छत्तीसगढ़ के बिलासपुर कस्बे से कुछ किलोमीटर बाहर एक घासदार सड़क मुड़कर इस मांदनुमा अस्पताल में ले जाती है. अस्पताल अब बंद पड़ा है. कमरों में फफूंद की दुर्गंध बस गई है. खाली सीरिंज, टेस्ट ट्यूब और दवाओं के डिब्बे यहां-वहां बिखरे पड़े हैं.
उन्हें छूते ही छिपकलियां सरपट बाहर आ जाती हैं. एक डिब्बे पर विशाल मकड़ी झूल रही है, जिस पर लिखा है ‘स्टेराइल सर्जिकल ग्लव्ज’ (ऑपरेशन के दस्ताने). एक नजर डालने पर अब यहां स्टराइल या जीवाणुरहित कुछ भी नहीं दिखता. यही वह जगह है, जहां दो हफ्ते पहले 83 औरतों को उनकी गर्भाशय नाल काटने के लिए एक साथ लिटाया गया था.
ये औरतें मानो सिर्फ एक गिनती थीं. वे 1,50,000 के उस ‘लक्ष्य’ में शुमार थीं, जो छत्तीसगढ़ सरकार ने अप्रैल 2015 से पहले औरतों की नसबंदी के लिए तय किया था. लेकिन देखते ही देखते वे आंकड़ों से किस्सों में तब्दील हो गईं. उनमें 15 की जीवनलीला समाप्त हो गई और 122 बाल-बाल बचीं. देश और दुनिया भर में सदमे की लहर दौड़ गई.
पेचीदा सवालों का पिटारा खुल गया—नकली दवाएं और उनके पीछे अनैतिक साठगांठ, प्रोत्साहन की सरकारी योजनाएं, जबरदस्ती और टालमटोल, डॉक्टरों के पेशे की पवित्रता और मौजूदा कानून, लापरवाही और बेरुखी. जांच का दायरा जैसे-जैसे बढ़ रहा है, देश एक कड़वी गोली निगलने को मजबूर है. वह है हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की घिनौनी और परपीड़क हालत की हकीकत. यह केवल छत्तीसगढ़ में ही नहीं, पूरे देश में है.
मुसीबतों को दावतबिलासपुर के बीचोबीच सदर बाजार गलियों की भूलभुलैया है. सोनोग्राफी की दुकानों से भरी पड़ी ऐसी ही एक गली छत्तीसगढ़ आयुर्विज्ञान संस्थान में खुलती है. पेशाब की बदबू से भरे रास्तों को पार करते ही आप बच्चों को हाथों में खिलौने लिए दौड़-भाग करते देखते हैं. वे खुश हैं और उन्हें पता नहीं है कि उनकी मांएं यहीं कहीं जिंदगी के लिए जूझ रही हैं.
भड़ी गांव की बिलासा बाई बहन हीरा बाई के बच्चे को संभाल रही है. उसे भारी पछतावा है कि उसने बहन को शिविर में जाने ही क्यों दिया. अजब नगर की जानकी दासी को पेट में तीखा दर्द उठने की वजह से अस्पताल में भर्ती किया गया था. वह अब भी आइसीयू में है. उसकी बहन मनमती बाई गुस्से से तन गई है. बगल के बड़े कमरे में दीवार के सहारे लगे लोहे के बिस्तरों पर औरतें लेटी हुई हैं. सभी की उम्र 22 से 29 साल है. सभी के दो या तीन बच्चे हैं. वे पहले उन्हें देखने के लिए चीख-पुकार मचा रही हैं.
वे कमजोर, बेंत की तरह दुबली-पतली और थकी हुई हैं, लेकिन बच गई हैं. बेहोशी की दवाओं से वे अब भी इतनी अचेत हैं कि 8-10 नवंबर के ऑपरेशन के बारे में उन्हें कुछ भी याद नहीं. उन्हें बस इतना याद है कि जब होश आया तब दर्द से कराह रही थीं.
वे खुशकिस्मत हैं कि उन्हें कुछ याद नहीं. जनवरी 2012 में बिहार के अररिया में ऐसे ही एक शिविर में जिन 53 औरतों की नसबंदी की गई थी, उन्हें तो बेहोशी की दवा भी नहीं दी गई थी. डॉक्टर ने रात के समय टॉर्च की रोशनी में, हाथ धोने के लिए भी रुके बगैर, महज दो घंटे में काम खत्म कर दिया था. खून बहने के बावजूद इन औरतों को बाहर खेत में धान की पुआल पर डाल दिया गया.
यहां तक कि उसने एक गर्भवती औरत जितनी बाई का भी ऑपरेशन कर दिया और कहा, ''अब तुम दोबारा कभी पेट से नहीं होओगी.” कुछ दिनों बाद उसका बच्चा गिर गया. खासा हंगामा मचा. उसके बावजूद फरवरी 2013 में मालदा (पश्चिम बंगाल) के मानिकचक के एक शिविर में इसी तरह 103 औरतों की नसबंदी कर दी गई. लगभग बेहोशी की हालत में उन्हें भी खुले में रखा गया.
रिप्रोडक्टिव राइट्स इनिशिएटिव, ह्यूमन राइट्स लॉ नेटवर्क, दिल्ली की प्रमुख केरी मैकब्रुम कहती हैं, “दोनों ही जगह सरकारों की साफ-साफ मंजूरी से गरीब, दलित और अनुसूचित जाति की औरतों की नसबंदी की गई और वह भी सरकारी नियमों और बुनियादी मानव अधिकारों को ताक पर रखकर.” मैकब्रुम ने नसबंदी क्लिनिकों की हालत में सुधार के लिए सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की है.
जन स्वास्थ्य चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन कहते हैं, “यह डॉक्टरी कत्लेआम है. ये ऑपरेशन ऐसी जगहों पर किए जाते हैं, जहां बुनियादी सुविधाएं बेहद दयनीय और सेवाएं न के बराबर हैं.” इसके बावजूद चौंकाने वाली निरंतरता से ये शिविर लगाए जाते हैं. पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन ने इसी साल जुलाई में संसद में स्वीकार किया था कि 2010 से 2013 के बीच केंद्र सरकार को 15,264 नाकाम नसबंदी ऑपरेशनों की एवज में मुआवजे के तौर पर 51 करोड़ रु. चुकाने पड़े थे.
संयुक्त राष्ट्र हमें बताता है कि डोमिनिकन रिपब्लिक और प्यूर्तों रिको के बाद भारत तीसरे नंबर का देश है जहां महिला नसबंदी की दर सबसे ज्यादा है—हमारे यहां 37 फीसदी शादीशुदा महिलाओं की नसबंदी की गई, जबकि ऐसे पुरुष मात्र 1 फीसदी हैं. 2013-14 में चौंका देने की हद तक 38 लाख औरतों को ऑपरेशन टेबल पर और घनघोर लापरवाही के बीच उनके प्रजनन चक्र से, और कभी-कभी तो उनकी जिंदगी से भी, छुट्टी दे दी गई. महाराष्ट्र में 5,00,000, बिहार में 4,00,000, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में 3-3 लाख से ज्यादा औरतों को यह कष्ट झेलना पड़ा. इसके बावजूद भारत प्रति औरत 2.1 बच्चे का महत्वाकांक्षी आबादी अनुपात हासिल नहीं कर सका है.
सबूतों का मायाजाल16 नवबंर को नेमिचंद अस्पताल के दरवाजे खोले जाते हैं. मामले की जांच के लिए नियुक्त सेवानिवृत्त जज अनीता झकी एक सदस्यीय समिति के साथ पुलिस कारों का काफिला दाखिल होता है. वे कहती हैं, “पैनल जांच करेगा कि मानक प्रोटोकॉल का पालन किया गया या नहीं, किन हालात में यह घटना घटी, दवाइयां मानक गुणवत्ता की थीं या नहीं.” लेकिन सीलबंद अॉपरेशन थिएटर में किसी ने पहले ही घुसकर दवाइयों और दस्तावेजों के अहम सबूत हटा दिए हैं.
पिछले हिस्से की टूटी हुई खिड़कियों से खाली कमरा देखा जा सकता है, जिसमें अस्पताल के गद्दे भर दिए गए हैं. पिछवाड़े में घास जगह-जगह जलकर काली पड़ चुकी है. मेडिसिन स्ट्रिप, सीरिंज और बोतलों के जले हुए, टूटे-फूटे अवशेष भी देखे जा सकते हैं. किसी ने बेपरवाह उद्दंडता से अस्पताल परिसर के भीतर सबूतों को मिटा दिया है. झ कहती हैं, श्श्हम जवावदेही तय करेंगे.्य्य वे तीन माह के भीतर रिपोर्ट सौंपने का वादा भी करती हैं. उन्हें 2011 में एक आदिवासी लड़की के साथ हुई कथित 'फर्जी' मुठभेड़ के मामले की जांच अभी पूरी करनी है.
छत्तीसगढ़ में एक-दूसरे पर उंगली उठाने और आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है. बिलासपुर की एसडीएम फारिहा आलम सिद्दीकी कहती हैं, “हमें तो पता भी नहीं था कि वे शिविर का आयोजन करने जा रहे हैं.” निलंबित कर दिए गए राज्य के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डॉ. आर. के. भांगे कहते हैं कि उन्हें भी शिविर की कोई जानकारी नहीं थी. निलंबित और गिरफ्तार कर लिए गए नसबंदी ऑपरेशन करने वाले डॉक्टर आर.के. गुप्ता नकली दवाइयों पर इल्जाम मढ़ते हैं.
निलंबित कर दिए गए विकासखंड चिकित्सा अधिकारी प्रमोद तिवारी रोजाना 40 नसबंदी करने के मुश्किल ‘टारगेट’ को पूरा करने के दबाव को दोषी ठहराते हैं. महिला संगठनों ने ‘नैतिक आधार’ पर स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल का इस्तीफा मांगा है, जिनके निर्वाचन क्षेत्र में यह घटना घटी है. मुख्यमंत्री रमन सिंह ने जवाब में कहा, “ऑपरेशन डॉक्टर करते हैं, मंत्री नहीं.”
बात सिर्फ ऑपरेशन की नहीं है. सेंट्रल ड्रग लैबोरेटरी, कोलकाता की एक रिपोर्ट ने दवाइयों के जहरीले होने की तस्दीक की है. इससे सबूतों की तलाश और भी ज्यादा पहेली बन गई है. ऑपरेशन में ऐसी कई दवाओं का इस्तेमाल किया गया जो देश भर के सप्लायरों से प्राप्त हुई थीं.
ऐंटीबायोटिक सिप्रोसिन रायपुर के महावर फार्मा ने, दर्द की दवा आइब्रुफेन हरिद्वार (उत्तराखंड) के टेक्निकल फार्मा ने, लोकल एनेस्थीसिया का इंजेक्शन लिग्नोकैन हिसार (हरियाणा) की रिगेन लैबोरेटरीज ने, नर्व एजेंट एट्रोपाइन और डायजोपाम इंदौर की नंदिनी मेडिकल लैब्स ने, दर्द निवारक फोर्टविन इंजेक्शन गुजरात की मैग्ना लैबोरेटरीज ने, एब्जॉर्वेंट कॉटन वूल रायपुर की हैम्पटन इंडस्ट्रीज ने और स्किन लोशन जायलोन इंदौर के जी फार्मा ने सप्लाई किया था.
इनमें से कई दवाओं और कंपनियों का विवादास्पद इतिहास रहा है. 2011 में छत्तीसगढ़ के ही बालोद में मोतियाबिंद के लिए आयोजित एक शिविर में लिग्नोकेन की वजह से कई मरीजों की आंखों की रोशनी चली गई थी. इंदौर से लेकर उत्तर प्रदेश की दवा मंडियों के नकली दवाइयों के कारोबारी खासी सुर्खियों में रहे हैं. रिगेन कपंनी मानक पूरे नहीं करने की वजह से गुजरात में काली फेहरिस्त में सबसे ऊपर है. महावर फार्मा में, जली हुई दवाओं के अलावा, चूहे मारने की दवा में मिलाए जाने वाले जिंक फॉस्फाइड के निशान मिले हैं.
ऐसी दवाएं और दवा सप्लाई करने वाली कंपनियां छत्तीसगढ़ मेडिकल सर्विसेज कॉर्पोरेशन की देख-रेख में राज्य सरकार की दवाई खरीद व्यवस्था में आखिर कैसे दाखिल हुईं? इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जवाब मांग रही है. दवा कंपनियां कह रही हैं कि उन्हें बलि का बकरा बनाया जा रहा है. अगर दवाइयों में कोई गड़बड़ी होती तो राज्य में ऐसी कई और घटनाएं हो चुकी होतीं. उनके लिहाज से गड़बड़ी दवाइयों में नहीं, नसबंदी शिविरों में है.
खतरनाक संक्रमणबिलासपुर के अपोलो अस्पताल में आप घुस नहीं सकते. यहां दरवाजों पर काले वस्त्र पहने नाइटक्लब बाउंसर बलखाती मांसपेशियों तथा घुटे हुए सिरों के साथ तैनात हैं. यहां जीवनरक्षक प्रणाली पर रखी गई गंभीर रूप से बीमार औरतों का इलाज चल रहा है. कई की मौत हो चुकी है—रेखा निर्मलकर, नेम बाई, रंजीता, फूल बाई, चंद्रा बाई, शिव कुमारी, चैती बाई. उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्टों से रक्तप्रवाह में घातक संक्रमण की वजह से सेप्टीसीमिया और बहुत सारा खून बह जाने की वजह से हाइपोवोलेमिक शॉक का खुलासा हुआ है. ये सभी ऑपरेशन के दौरान होने वाले संक्रमण के लक्षण बताते हैं.
डॉ. आर. के. गुप्ता को पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है. आखिर वे 50,000 से ज्यादा नसबंदी ऑपरेशन कर चुके हैं. एक दिन में 300 ऑपरेशन करने का श्रेय भी उन्हें हासिल है. यह सब उन्होंने कैसे किया? प्रारंभिक जांच रिपोर्ट से पता चलता है कि नेमिचंद अस्पताल में तीन घंटे के नसबंदी अभियान के दौरान उन्होंने, जलपान या हाथ धोने के लिए एक भी बार रुके बगैर, हर दो मिनट में एक महिला नसबंदी को अंजाम दिया.
इसमें केवल एक जूनियर डॉक्टर उनके साथ था. जहां तक साफ-सफाई की बात है, एक ऑपरेशन के बाद वे नश्तर को जाहिर तौर पर स्पिरिट में डुबोते और फिर 10 और ऑपरेशन करने के लिए उसी का इस्तेमाल करते थे. ऐसे आरोप भी चर्चा में हैं कि उनके औजार जंग लगे (या गंदे) थे, वे दस्ताने नहीं पहनते, वे जूनियर डॉक्टर से ऑपरेशन करवाते हैं. बेहोशी की दवा के काम न करने पर जब एक औरत दर्द से चीखी तो उन्होंने उसे चांटा रसीद कर दिया. वे इन सबसे इनकार करते हैं.
और इस पूरी मेहनत का हासिल यह कि डॉक्टर ने उस दिन 6,225 रु. कमाए (डॉक्टरों के लिए सरकारी दर प्रति ऑपरेशन 200-250 रु. है). भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान, दिल्ली के निदेशक डॉ. एम.सी. मिश्र कहते हैं, “यह मेडिकल त्रासदी से कम नहीं है. नसबंदी के बाद इतने बड़े पैमाने पर इमरजेंसी देखभाल की जरूरत पड़ी हो, ऐसा मैंने पहले कभी नहीं देखा. इतनी बड़ी तादाद में मरीज टॉक्सिक शॉक और किडनी फेल्यर से गुजर रहे हैं. ब्लड और ऑक्सीजन सप्लाई स्थिर रखने के लिए उन्हें आइओनोट्रॉपिक सपोर्ट की जरूरत है.”
वे बताते हैं कि नसबंदी मात्र से इतने लोग नहीं मरे या बीमार पड़े. ऐसा हुआ है तो इसलिए कि इतने कम वक्त में इतने सारे काम को अंजाम दिया गया, जो देखभाल और ऑपरेशन की मानक प्रक्रियाओं को देखते हुए नामुमकिन है. एनेस्थीटिस्ट डॉ. अंजन त्रिखा के नेतृत्व में एम्स की सात डॉक्टरों की टीम छत्तीसगढ़ गई थी. वह भी यही निष्कर्ष लेकर लौटी. डॉ. मिश्र कहते हैं, “मरीजों के शरीर में जहर जरूर था, फिर चाहे वह दवाओं से आया हो या संक्रमण से.”
अंतरंग सखीविभिन्न गांवों में हेल्थ वर्कर के तौर पर काम करने वाली मितानिन या अतरंग सखी (पहले-पहल छत्तीसगढ़ में शुरू हुई यह व्यवस्था पूरे देश ने अपनाई) अचानक गायब हो गई हैं. सरकार और डॉक्टरों के बीच तलवारें खिंच गई हैं और ऐसे में राज्य के सुदूर कोनों में असली सामुदायिक स्वास्थ्य देखभाल मुहैया करवाने वाली महिलाएं दहशतजदा हैं. राज्य की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा से मितानिनों को जोडऩे का श्रेय डॉ. सेन को दिया जाता है. वे कहते हैं, “मितानिन ही वे महिलाएं हैं, जिन पर गांव भरोसा करता है.
वे स्वास्थ्य सेवाओं की निगरानी करती हैं, बच्चों के पोषण और शिक्षा की देखभाल करती हैं, सरकारी योजनाओं को लागू करती हैं और प्रशासन के लिए जानकारी देने वाले तंत्र का काम करती हैं. ऐसा करते हुए उन्हें अक्सर आदमियों के विरोध का सामना करना पड़ता है.” मितानिन जिन महिलाओं को शिविर में जाने के लिए राजी करती हैं.
उनमें से हरेक को 150 रु. मिलते हैं. परिवार के विरोध के बावजूद शिविर में जाने वाली महिलाएं अक्सर वे होती हैं, जिन्हें मितानिन बार-बार गर्भवती होने से छुटकारा पाने के लिए प्रोत्साहित और राजी करती हैं. इसमें ‘प्रोत्साहन’ के तौर पर राज्य सरकार द्वारा दिए जाने वाले 600 रु. भी (हालांकि ये 1,400 रु. होने चाहिए थे) कारगर होते हैं. अब उस कमाए हुए भरोसे का क्या होगा?
बिलासपुर से महज 20 किमी दूर अमसेना 409 परिवारों का गांव है. गांव की दो युवा माताएं मौत का शिकार हो चुकी हैं और एक अन्य गंभीर रूप से बीमार है. गांव की बेहद ऊर्जावान महिला 70 वर्ष की बेडऩ बाई मितानिन हैं. उन्होंने घर-घर जाकर लोगों को नसबंदी शिविर के बारे में बताया और पूछा था कि क्या वे वहां जाना चाहती हैं.
गांव की दूसरी औरतों के साथ बेडऩ बाई अपनी सबसे छोटी पोती 22 वर्ष की रेखा को भी नसबंदी शिविर में ले गई थीं. अपनी बहन की तरह नसबंदी करवाने की अब रेखा की बारी थी. लेकिन रेखा लौटकर घर नहीं आई. बेडऩ बाई अब रेखा की दो साल की छोटी-सी बच्ची कीर्ति के साथ बैठी रहती हैं. उनके चेहरे की झुर्रियां दुख और तकलीफ से और भी गाढ़ी हो गई हैं. उन्हें अपने सवालों के जवाब चाहिए.
दमयंती दत्ता