भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान (एफटीआइआइ) के अध्यक्ष पद पर गजेंद्र चौहान की नियुक्ति को लेकर योग्यता, काबिलियत और साख, तीनों ही मामलों में सवाल उठे हैं. इसके पहले के अध्यक्षों के मुकाबले शायद मौजूदा अध्यक्ष की साख उस स्तर की नहीं है. लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण है काबिलियत. उन्हें जाने बगैर आप यह नहीं कह सकते कि उनमें काबिलियत है या नहीं. इस मुकाम पर चौहान इस मामले में अनजान-से शख्स हैं. इसलिए यह गैर-वाजिब और दुखद है कि आप ऐसे किसी के बारे में सिर्फ इसलिए फैसला सुना दें कि वह किसी खास पद के लिए नामजद है. इसी वजह से आप उसकी निंदा करें और काम का मौका दिए बगैर उसे सूली पर चढ़ा दें! फिलहाल सारी बहस सिर्फ साख पर केंद्रित है, योग्यता और काबिलियत की तो बात ही नहीं उठी है. आप इस नियुक्ति के मामले में सिर्फ इसी पर विचार कर सकते हैं कि क्या सूचना-प्रसारण मंत्रालय ने चयन से पहले व्यापक छानबीन की है? सूचना के अधिकार के तहत दो आवेदनों पर प्राप्त सूचना से पता चलता है कि मंत्रालय ने ऐसा नहीं किया है. फिर भी, छात्रों को संवाद का कोई मौका दिए बगैर अनिश्चितकालीन हड़ताल नहीं करनी चाहिए थी. छात्रों को नामित अध्यक्ष को बुलाना चाहिए था और उन्हें अपने सवालों के जवाब देने का मौका देना चाहिए था.
मैं इस संस्थान का दो बार (1980-83 और 1989-92) अध्यक्ष रह चुका हूं. अध्यक्ष वहां इम्तिहान के प्रश्न-पत्रों को दुरुस्त करने के लिए नहीं होता है. निदेशक के उलट, उसे कैंपस में रहने और संस्थान के रोजमर्रा के कामकाज की निगरानी नहीं करनी होती. अध्यक्ष एफटीआइआइ सोसाइटी का अगुआ होता है, जिसे कामकाज की स्वायत्तता हासिल है. उसकी दूसरी बड़ी जिम्मेदारी एफटीआइआइ प्रशासनिक परिषद की बैठकों की अध्यक्षता करने की है. एफटीआइआइ सोसाइटी और प्रशासनिक परिषद की जिम्मेदारियों के बीच उसे यह भी देखना होता है कि संस्थान किस दिशा में जा रहा है. उसे देखना होता है कि कहीं संस्थान मानकों से भटक तो नहीं रहा है और उसमें सुधार के लिए क्या किया जा सकता है? क्या उसके कोर्स वर्तमान और भविष्य की जरूरतों को पूरा कर रहे हैं और ये समकालीन प्रक्रियाओं के अनुरूप हैं या नहीं?
संस्थान के भगवाकरण को लेकर हो-हल्ले में कुछ अतिशयोक्ति भी है. क्या किसी फिल्म को संपादन के समय भगवा रंग में रंगा जा सकता है? असल में आप जब कोई फिल्म बनाते हैं तो विचारधारा उसके कथानक में पिरोई होती है. उसे मशीन से शामिल नहीं किया जा सकता. यह आशंका उन संस्थानों के मामले में प्रासंगिक हो सकती है, जहां दर्शन, इतिहास, अर्थशास्त्र और राजनीति विज्ञान जैसे विषय पढ़ाए जाते हैं, जहां खास विचारधारा से अलग तरह का नजरिया बनता है. आप एफटीआइआइ में क्या कर सकते हैं? आप सिर्फ यही कर सकते हैं कि किसी छात्र को उसकी डिप्लोमा फिल्म के मामले में इस आधार पर पास या फेल कर दें कि “विचारधारा सही नहीं है.” लेकिन यह तो बेतुकी बात है. आप किसी भी चीज की व्याख्या विचारधारा के हिसाब से एक या दूसरे तरीके से कर सकते हैं. हमें अपने संविधान के तहत यह करने का पूरा अधिकार है. हम अपना राजनैतिक नजरिया अपनी पसंद के हिसाब से दक्षिणपंथ, वामपंथ या मध्य मार्ग या फिर पार्टी के आधार पर बना सकते हैं. इसी तरह अध्यक्ष और निदेशक को भी अपना नजरिया रखने का अधिकार है. लेकिन, अगर अध्यक्ष अपनी विचारधारा मेरे गले से नीचे उतारने की कोशिश करता है तो मैं विरोध भी कर सकता हूं. मुझे यह अधिकार भी संविधान से मिला है, जैसे छात्रों को हड़ताल करने का अधिकार है.
जब मैं 1981 में अध्यक्ष बना तो वहां हड़ताल थी. छात्रों ने मेरा घेराव किया. नौजवान होने के नाते छात्रों की चिंताएं बड़ी होती हैं और उनका समाधान न हो तो उन्हें लगता है कि दुनिया लुट जाएगी. मैंने छात्रों के सामने प्रस्ताव रखा कि हम सभी बैठकर (यूनियन के नेता और पूरा छात्र संघ) समस्याओं पर बात करें. उस समय मेरा यह समाधान था और मुझे लगता है कि इस मामले में भी यही सबसे मुनासिब समाधान है. दोनों तरफ के रुख कड़े होते हैं लेकिन अमूमन प्रबंधन का रुख ज्यादा कड़ा होता है. सामान्य रवैया यह होता हैः “मैं पैसा खर्च करता हूं इसलिए मेरा सिक्का चलना चाहिए.” अगर कोई यह रवैया अक्चितयार करता है तो हर कोई उसकी हां में हां मिलाने लगता है. अतीत में ऐसी सरकारें रही हैं जिन्होंने सवाल उठाया कि “हम ऐसे लोगों के लिए रियायती दर पर शिक्षा क्यों मुहैया कराएं? वे सिनेमा की पढ़ाई करना चाहते हैं तो निजी संस्थानों में जा सकते हैं?” मेरे हिसाब से यह कोई जवाब नहीं है. एफटीआइआइ देश के हर नागरिक को समान मौके मुहैया कराता है क्योंकि यही लोकतांत्रिक तरीका है. हम बतौर राष्ट्र अपने लोगों को मानविकी, विज्ञान और प्रौद्योगिकी ज्ञान देने को तत्पर और सक्षम हैं, भले वे इसके लिए भुगतान करने के काबिल न हों. इसलिए यह दलील बेजा है कि हम हर छात्र पर इतना पैसा खर्च कर रहे हैं तो “वे ऐसा करने की हिमाकत कैसे कर सकते हैं? उन्हें निकाल बाहर करो.”
संस्थान की अपनी अहमियत है. इससे भारतीय सिनेमा के तकनीकी और सौंदर्यशास्त्र के मानकों में काफी सुधार आया है. अगर आप एफटीआइआइ के फिल्म शिक्षा मुहैया कराने से पहले की फिल्मों को देखें तो आप पाएंगे कि फिल्मों की तकनीकी, सौंदर्यशास्त्र और कथानकों में सुधार हुआ है. आज भारतीय फिल्में बाकी दुनिया से होड़ लेती हैं. इसका श्रेय एफटीआइआइ को है.
मेरी सलाह “ लडऩे-भिडऩे” की नहीं, “बातचीत” की है. जब आप बात करते हैं तो दूसरों की सुनते भी हैं. ऐसा करने से साख गंवा बैठने का कोई सवाल नहीं है. हर किसी को अपने अडिय़लपन को छोड़कर बात करनी चाहिए और हल निकालने की कोशिश करनी चाहिए. अगर दोनों पक्ष अड़े रहते हैं तो ऐसे में स्वाभाविक है, सरकार ही जीतेगी. उनके नरम-से दिखते चेहरे के भीतर कठोर इरादे छुपे होते हैं. यह न तो सही है, न ही लोकतांत्रिक है.
(लेखक एफटीआइआइ के पूर्व अध्यक्ष और फिल्मकार हैं)
श्याम बेनेगल