अनुराग कश्यप ने कहा, अलविदा मुंबई

डार्क बंबइया छाप फिल्मों के उस्ताद अनुराग कश्यप के उजले और स्याह पहलुओं पर एक निगाह. वे उस शहर को छोडऩे की तैयारी में हैं, जिसने उन्हें गढ़ा है!

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गायत्री जयरामन

  • नई दिल्ली,
  • 18 मई 2015,
  • अपडेटेड 1:03 PM IST

इसे “100 करोड़ रु. का झमेला” कहा जा रहा है. बॉम्बे वेलवेट की रिलीज तक ऐसा कुछ भी नहीं रहा है जिसे आसान कहा जा सके. इसके प्रदर्शन में बहुत सतर्कता बरती गई है. इसकी मार्केटिंग आक्रामक रही है. अफवाहों की मानें तो कुछ हिस्सों को दोबारा शूट करना पड़ा. यह भी सुनने में आया कि रणबीर कपूर इसका प्रचार नहीं करेंगे और सह-निर्माता फॉक्स स्टार स्टुडियोज को चार घंटे की मूल अवधि वाली इस फिल्म के संपादन में दखल देना पड़ा. पहले तो अनुराग कश्यप इस पर गुस्से में फूट पड़े, बाद में रूठकर उन्होंने जिद में चुप्पी ओढ़ ली. जिस शहर ने उन्हें गढ़ा, उसे दी गई उनकी यह श्रद्धांजलि ऐसे समय में आ रही है जब वे मुंबई छोड़कर पेरिस में बसने जा रहे हैं. रिलीज के बाद वे शहर छोड़ देंगे. हमने बीते चार महीने का समय इस शहर में उनका दिमाग पढ़ने में खपाया- बेडरूम से लेकर स्टुडियो तक यह जानने की कोशिश की कि इस शख्स के भीतर आखिर क्या चल रहा है. बंबई के जीते-जागते सबसे स्याह फिल्मकार के जेहन की खास झलकियां आप भी देखिए.  

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अनुराग के अतीत का साया! 
फरवरी के एक गुरुवार की सुबह 10 बजे
अनुराग ने खुद को अंधेरे में समेट लिया है. 
ऊपर लाइब्रेरी के कमरे में एक गद्दे पर पड़े मटमैले कंबल में 42 वर्षीय अनुराग सिकुड़े हुए हैं. चारों दीवारें किताबों से ढकी हुई हैं सिवाए एक छोटी-सी खिड़की के, जिसके खिंचे हुए परदे बाहर की हल्की रोशनी को अंदर आने से रोक रहे हैं. भर चुकी ऐशट्रे से सिगरेट की राख छलक रही है. उनके लैपटॉप के इर्दगिर्द कागज, कॉफी के जूठे कप और बॉम्बे वेलवेट के पोस्टर का आर्टवर्क बिखरा पड़ा है. इसी लैपटॉप पर वे कट देखते हैं. 

उनकी दाढ़ी के चलते पेरिस में उन्हें जांच के लिए रोका गया था. आज वह इतनी बढ़ी हुई है कि वे एकदम जंगली दिख रहे हैं, भीतर से भले ऐसा महसूस न कर रहे हों. पत्नी कल्कि से अलग होने के बाद यही कमरा उनकी पनाहगाह रहा है. उन्हें इस कमरे से बाहर निकले दस दिन हो रहे हैं. खाली हो चुके लिविंग रूम में उन्होंने फर्नीचर भी अब तक नहीं बदला है. वैसे भी, किसी के आने पर वे उसे बैठने को नहीं कहते हैं. किसी के खटखटाने पर दरवाजा खोलना उनकी मर्जी के ऊपर है. उनके दोस्त चिंतित हैं. हवा में अफवाहें तैर रही हैं. कोई कह रहा है कि बॉम्बे वेलवेट की (त्रासद) स्थिति को लेकर वे अवसाद में चले गए हैं. किसी का कहना है कि वे नशे के आगोश में हैं, चाहे जो भी मिल जाए.

वे पेरिस से हाल ही में लौटे हैं. वहां उन्होंने छोटा-सा स्टुडियो अपार्टमेंट ले लिया है. इसी महीने वे वहां बस जाएंगे. यहां मुंबई में वे अपने कारोबारी हित नहीं छोड़ेंगे. पहला है फैंटम, जिसे मधु मोंटना, विक्रमादित्य मोटवाणे और विकास बहल के साथ मिलकर चलाते हैं और दूसरी कंपनी है अनुराग कश्यप फिल्म्स प्राइवेट लिमिटेड (एकेएफपीएल), जिसका प्रबंधन गुनीत मोंगा देखती हैं. हाल ही में ऑल इंडिया बकचोद (एआइबी) रोस्ट पर हुए बवाल, केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड के इस्तीफे और बोर्ड की जारी उन नई शर्तों से वे काफी आहत हैं जो उस श्रेणी की फिल्मों को निशाना बनाती हैं जिन्हें बनाना कश्यप पसंद करते हैं. सेवाकर से जुड़े एक मामले में उनके बैंक खाते पर रोक लगा दी गई है जिससे वे बुरी तरह झल्लाए हुए हैं. 

कश्यप इससे ज्यादा नहीं टूट सकते थे. इस हालत में भी वे अपना फ्रिज खोलकर आपके लिए उसमें से एक चॉकलेट ढूंढ निकालते हैं जबकि खुद ताजा बनी ब्लैक कॉफी गटकने लगते हैं. कश्यप बहुत भले आदमी हैं. एक ऐसे शख्स जो ब्लैक फ्राइडे (2004) की स्क्रीनिंग के लिए चक्कर लगाने के दिनों से लेकर अब तक विशाल भारद्वाज, इम्तियाज अली और तिग्मांशु धूलिया जैसे साथी निर्देशकों के लिए स्वेच्छा से काम करते रहे हैं. वे ऐसे शख्स हैं जो अपने साथियों को लगातार विश्व सिनेमा की फंतासी भरी खुराक पिलाते रहते हैं. 

अभिनेता बनने का ख्वाब लेकर 1993 में मुंबई पहुंचे और पहले-पहल पृथ्वी थिएटर में वेटर की नौकरी करने वाले कश्यप की समर्थित 32 फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों में नामित किया जा चुका है और 16 फिल्मों ने पुरस्कार जीते हैं. गुनीत मोंगा के मुताबिक, उनका सबसे बड़ा योगदान हालांकि यह संख्या नहीं है. इसकी बजाए असली बात यह है कि “उन्होंने हम सबको ताकत बख्शी है. वे आपके सफर को अपना नहीं बनाते बल्कि चाहते हैं कि आप अपने बनाए रास्ते पर चलते हुए उनका जरूरत के हिसाब से इस्तेमाल करते रहें.” 
रणबीर कपूर के मुताबिक, वे ऐसे डायरेक्टर हैं जिन्हें अब तक समझा नहीं गया है. वे कहते हैं, “वे टेडीबियर जैसे हैं. वे ऐक्टरों और उनके प्रदर्शन को लेकर संवेदनशील हैं और अपने सिनेमा से बहुत गहरे जुड़े हुए हैं. हो सकता है कि उनकी सभी फिल्में ज्यादा पैसा न बना पाती हों लेकिन भारतीय सिनेमा पर कश्यप का प्रभाव जबरदस्त है.” यह उन्हीं के बोए बीज हैं कि दीपिका पादुकोण या कंगना रनोट जैसी अभिनेत्रियां मुख्यधारा के सिनेमा से कहीं आगे जाकर काम कर पा रही हैं. पिछले दो दशक में भारतीय सिनेमा की पहचान को दोबारा गढ़ने में वे निर्णायक रहे हैं. उनका सरोकार सिर्फ फिल्में बनाने से कहीं आगे का है जो अक्सर उनके लिए ही नुक्सानदायक साबित हो जाता है. वे निर्देशकों को ऐक्टिंग और ऐक्टरों को डायरेक्शन की ओर धकेलते हैं. कल्कि कहती हैं, “आज की तारीख में एक भी ऐसा सिनेमैटोग्राफर, असिस्टेंट डायरेक्टर या अभिनेता आपको नहीं मिलेगा जो कश्यप के साथ काम न करना चाहता हो.”  हालांकि अनुराग इस सब से थक चुके हैं.

अनुराग के बारे में एक धारणा यह है कि उनका एक गुट है, वे ऐसे लोगों का गिरोह चलाते हैं जो विश्व सिनेमा में रचा-बसा है. वे इस धारणा को तोड़ना चाहते हैं. वे कहते हैं, “मैं स्मोक नहीं करता. मुझे अस्थमा है. मैं जिस किस्म की फिल्में बनाता हूं और अपने हाथ से अपनी सिगरेट रोल करता हूं, उससे यह धारणा बनी है. मेरा कभी कोई गुट नहीं रहा. मुझे हां कहने वाले लोग कभी पसंद नहीं रहे. मैं बदले की भावना वाले समीक्षकों को अपने दायरे से बाहर रखता हूं. मेरे आसपास पर्याप्त स्वस्थ आलोचक हैं. मैं अपने सारे साथियों को अपनी फिल्में दिखाता हूं. शिमित अमीन से लेकर जोया अख्तर और शुजीत सरकार ने मेरी फिल्मों के तमाम कट देखे हैं और प्रतिक्रिया दी है. उन्होंने बिना किसी एजेंडे के मेरी फिल्मों को बेहतर बनाने में मदद की है. इसीलिए मैंने धीरे-धीरे उन लोगों को छांट दिया है जो एजेंडा लेकर आते हैं.” 

अनुराग अपने प्रशंसकों को भले आज खारिज कर रहे हों, पर प्रशंसक यह महसूस करते हैं कि अनुराग अब मुख्यधारा के खेमों की स्वीकृति के लिए बेचैन हैं. वे अब नवाजुद्दीन सिद्दीकी और राजकुमार राव जैसों का ठप्पा अपने ऊपर से हटाकर कपूर खेमे के साथ काम करने को बेसब्र हैं. करण जौहर के साथ हुई उनकी ताजा दोस्ती बहुत कुछ कह रही है. हालांकि वे कहते हैं, “मैंने हमेशा अपने मन मुताबिक करना चाहा है. उन्होंने मेरी हर फिल्म को खारिज किया है. चाहे वह नो स्मोकिंग (2007) रही हो या गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012). बॉम्बे वेलवेट खास है क्योंकि यह बड़े बजट की बड़े सितारों वाली फिल्म है. वे इसके रिलीज होने तक इंतजार करेंगे ताकि इसे खारिज करने का बहाना खोज सकें.”

उनकी पहली फीचर फिल्म पांच को 2001 में सेंसर बोर्ड ने हिंसा और निराशावाद के कारण प्रतिबंधित कर दिया था, जिसमें यह दिखाने की कोशिश की गई थी कि बंबई शहर ने उन्हें और उनके साथियों को कैसे गढ़ा था. आज यह फिल्म इंटरनेट पर मुफ्त में देखी जा सकती है. अनुराग के सिनेमाई नजरिए में शहर एक केंद्रीय तत्व के रूप में बार-बार आता है, जिसकी पहचान ब्लैक फ्राइडे से लेकर बॉम्बे वेलवेट तक की जा सकती है. यही इस बात का जवाब है कि कश्यप अपराध फिल्में बनाते नहीं बल्कि खुद उन्हें जीते हैं. उन्हीं के शब्दों में, “इस तरह की फिल्में बनाने का नजरिया सड़कों पर जीने से पैदा होता है. जहां तक मेरी बात है, मुझे तो उसी दुनिया ने हमेशा खींचा हैः सड़क का आदमी उस दुनिया के भीतर कैसे घुसता है जिसमें वह हमेशा बाहर से झांकता रहा हो. वह भीतर घुस जाता है और उसका हिस्सा बन जाता है. इसके बाद अपनापे का समूचा बोध, या कहें एक कोशिश अपनापा पैदा करने की, यह सब आता है.” यह अपनापा ही है जो आज भी उन्हें भरमाता है.

गैंग्स ऑफ  वासेपुर हो या देव डी (2009), अनुराग के सारे किरदार तकरीबन गैर-बंबइया हैं. ये किरदार उसी बंबई की छन्नी से होकर गुजरते हैं जिसने कश्यप को गढ़ा था, जहां रात के अंधेरे में आदमी गंधाती भाप में तब्दील हो जाता है तो औरतें, जैसा आलोचक रोजर एबर्ट ने कभी कहा था, आपको अपने इश्क में मार डालती हैं. 

नारीवादियों से लेकर फिल्म उद्योग तक में ऐसा माहौल है जैसे अनुराग ने उनका कुछ बिगाड़ दिया हो. वे कहते हैं, “ये लोग अपने ऊपर कुछ नहीं सह सकते. हम लोग लतीफे भी नहीं सुना सकते क्योंकि इससे उनके पाखंड का पर्दाफाश होता है.” बॉलीवुड की युवा पीढ़ी के साथ उनके जुड़ाव की वजह उनकी यही बेबाकी है. इस बेबाकी में खेद नाम की चीज नहीं है. जाहिर है, ऐसे तमाम खेदविहीन लोगों के लिए अनुराग संरक्षक का काम करते हैं- अनुष्का शर्मा से लेकर निमरत कौर, नवाजुद्दीन सिद्दीकी से लेकर एआइबी टीम तक. वे कहते हैं कि खुद की लड़ाई कभी नहीं रुकने वाली है, “इस देश में सिनेमा के मायने करोड़ और जीरो की गिनती है और इसी से तय किया जा रहा है कि क्या सही है और क्या गलत. जो पैसा नहीं बना पाता वह गलत है और जिससे पैसा बनता है, वह सही है. एक निश्चित किस्म के सिनेमा को बचाए रखने के लिए अगर आपको लड़ना है तो आपको कुछ बलिदान देना होगा. आपको अपनी लड़ाई खुद लड़नी है. और मैं यहां से अब निकल जाना चाहता हूं तो सिर्फ इसलिए कि मैंने बहुत देख लिया है.” आज उन्हें व्यावसायिक कामयाबी की सख्त जरूरत है जिसके लिए रचनात्मकता का बलिदान करना होगा, हालांकि वे कभी भी ऐसी कीमत चुकाने को तैयार नहीं रहे हैं. 

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कश्यप के वर्तमान का साया.
दोपहर, 26 मार्च, वरसोवा. ए.आर. मुरुगदॉस की फिल्म अकीरा का सेट. 
अनुराग अचानक रोशनी में प्रवेश करते हैं. 
खाकी वर्दी और सफेद बनियान में एक गंदा पुलिसवाला, जिसकी रोएंदार छाती पर पन्ने का हार लटक रहा है और मूंछें बिल्कुल पुलिसवाले जैसी हैं. वह तमिल हीरोइन लक्ष्मी की इज्जत लूट रहा है, जो अपनी पहली हिंदी फिल्म कर रही हैं. यह कश्यप का विलेन का पहला रोल है. 

वे कहते हैं, “मैं वास्तविक जीवन में भी खलनायक हूं. मेरे बारे में यही धारणा है.” और ऐसा कहते हुए वे खुद को जबरन नीचा दिखाने की कोशिश करते हैं. आज वे कुछ राहत में दिख रहे हैं. ऐसा लगता है कि वे अपने अतीत की परछाइयों से निकलकर, अपनी कमजोरियों को छुपाकर खोल से बाहर निकले हैं. वे कहते हैं, “डार्क एक सापेक्ष शब्द है. भारत में चूंकि हर चीज इतनी नरम और चमकदार है कि मैं उसकी तुलना में डार्क दिखता हूं. वे मुझे बहुत कठोर निगाहों से देखते हैं. हर कोई तारंतिनो (क्वेंतिन) को डार्क कहता है. काम के मामले में बेशक मेरी चमड़ी बहुत मोटी और डार्क है.” अनुराग अपने दड़बे से बाहर आ चुके हैं. फिर से डेट कर रहे हैं. यहां-वहां डिनर और जमकर सेक्स कर रहे हैं.

अधिकतर लोग उम्र बढ़ने के साथ निराशावादी होते जाते हैं लेकिन वे निराशावाद की ही देन हैं. इस लिहाज से कह सकते हैं कि उनकी जिंदगी और फिल्म में पहली बार बहार आई है क्योंकि बॉम्बे वेलवेट उनकी पहली क्लासिक प्रेम कथा है. वे जोर देकर कहते हैं, “मैं नहीं मानता कि मेरे आदर्शवाद में कोई बदलाव आया है. निराशावाद जा चुका है. अब मैं सामान्य स्थिति में हूं.” वे अब गुस्सा होना छोड़ चुके हैं और उन लोगों को भी, जो उनके गुस्से पर पलते थे. पहलेपहल तो इस गुस्से से निजात पाने में वे अकेले पड़ गए, “लेकिन अब मैं अपने साथ सहज हूं. मेरी जिंदगी पहले के मुकाबले कहीं बेहतर है. मैं नकारात्मकता के प्रति बहुत संवेदनशील हूं, ऐसी किसी भी चीज के प्रति जो रचनात्मक न हो. मैं चीजें बनाने में यकीन करता हूं. मैं उनमें से नहीं जो यहां बैठे रहें और सिस्टम को न बदलें.” वे इस बात की परवाह नहीं करते कि इंडस्ट्री किस ओर जा रही है. अपनी विदाई की वेला में भी वे सूचना और प्रसारण मंत्रालय के साथ इंडस्ट्री के नुमाइंदों की बैठक करवाने में जुटे हैं ताकि स्वतंत्र फिल्मों के लिए फिल्मबे नाम का वैकल्पिक मंच बनाया जा सके.

अनुराग जैसे फिल्मकार के लिए वास्तव में यह मुमकिन नहीं कि वह भारत में टिके रहकर कामयाब फिल्में बना सके. वे दर्शकों को ग्रामीण और शहरी में बांटकर नहीं देखते. वे कहते हैं, “मैं सिर्फ यह देखने की कोशिश करता हूं कि मेरे पास पर्याप्त दर्शक हैं या नहीं. मैं पाता हूं कि मेरे पास पर्याप्त दर्शक हैं जिनके लिए मैं वैसी फिल्में बना सकता हूं जिनमें मेरा विश्वास है. हालांकि अंदर से मैं एक ही शख्स के लिए फिल्म बनाता हूं, सिर्फ अपने लिए.” नो स्मोकिंग जैसी अस्पष्ट फिल्म को बरसों गुजर जाने के बाद आज कश्यप ने खुद को किसी तरह दूसरों से संवाद करने लायक बनाया है. वे कहते हैं, “अब मैं अपनी बात ज्यादा सहज सिनेमाई तरीके से समझा पाता हूं.” बंबई पर बनाई अपनी फिल्म के साथ ही वे इस शहर को अलविदा कहना चाहते हैं. यह कहानी उन तमाम चीजों की है जिन्होंने मिलकर कश्यप को गढ़ा. वे तमाम चीजें, जिन्हें कश्यप अब पीछे छोड़ जाएंगे.

उन्होंने खुद को बौद्धिकता की उस धारा से काट लिया है जिसे अनजाने में उन्होंने पोसा था. उन्होंने अखबार पढ़ने बंद कर दिए हैं. अपने बारे में की गई टिप्पणियों के लिए सोशल मीडिया को खंगालना बंद कर दिया है. “मैं लिख रहा हूं, पढ़ रहा हूं, फिल्में देख रहा हूं, वर्जिश कर रहा हूं और डेटिंग कर रहा हूं. मैं खुद के साथ वक्त बिता रहा हूं और जीवन के एक अच्छे दौर में हूं.” 

अगर ऐसा है तो भागने की क्या जरूरत? वह भी फ्रांस? क्या कल्कि में जिस फ्रांस को उन्होंने महसूस किया था, यह उसकी भरपाई है? वे इस पर हंसते हुए कहते हैं कि मेरे साथियों की ही तरह आप भी मुझे ऐसे मुहावरों में बांध रही हैं जो आपके लिए सुविधाजनक हों. वे बस राहत की सांस लेना चाहते हैं और सिनेमा के मामले में फ्रांस दुनिया का सबसे ज्यादा मित्रवत देश है. दुनिया का सारा सिनेमा सबसे पहले पेरिस में रिलीज होता है. अकेले फ्रेंच सीख लेने भर से प्रभावों की नई दुनिया सामने खुल सकती है. 

अनुराग के शब्दों में, “किसी चीज के अंत के बाद शुरुआत ही होती है. मैं दोबारा शुरुआत करना चाहता हूं. मैं वहां जाकर फिल्में बनाना चाहता हूं जहां लोगों की सीमाएं कम हों. मैं खुद को झोंक देना चाहता हूं लेकिन यहां एक सीमा के बाद यह मुमकिन नहीं है. ऐसा नहीं है कि बंबई मुझे अब प्रेरित नहीं करती, बस मामला यह है कि मैं प्रेरित होता हूं तब भी यहां कुछ कर नहीं पाता. मैं इतना कुछ करना चाहता हूं जो यहां नहीं कर पाता. मैं यहां कटु राजनैतिक फिल्म नहीं बना सकता. मुझे ऐसा नहीं करने दिया जाएगा. इससे बेहतर है, मैं चला जाऊं.” 

कश्यप के साथी विकास बहल, विक्रमादित्य मोटवाणे और मधु मोंटेना भी परिपक्व हो चुके हैं. वे कहते हैं, “विकास और विक्रम ही ज्यादातर काम कर रहे हैं. वे मेरे मुकाबले दस गुना काम कर रहे हैं. फैंटम के पीछे की ताकत मुख्य रूप से विकास और विक्रम हैं.” कश्यप की कोई योजना नहीं है. वे कहते हैं, “मैं हर जगह ऐसे ही चला जाता हूं. कल्कि आपको बताएगीः मैंने हमेशा कहा है कि चलो कहीं और चलते हैं और नई शुरुआत करते हैं. मैं शून्य से शुरुआत करना पसंद करता हूं. वजूद का सारा संघर्ष दोबारा करना चाहता हूं.” 

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अनुराग के भविष्य का साया. 
पहली अप्रैल, सुबह 8 बजे, गुआम द्वीप, प्रशांत महासागर.
अनुराग की दोस्त फिल्म डायरेक्टर जोया अख्तर कहती हैं कि वे भारतीय कहानी और विदेशी दर्शकों के बीच पुल का काम करेंगे. रणबीर कपूर कहते हैं कि आर.के. स्टुडियोज के पुनर्जन्म पर उस शख्स का प्रभाव रहेगा जिसने उसे सिखाया कि कहानियां निजी होती हैं और उनसे जुड़ाव होना चाहिए, सिर्फ  कूल दिखने से काम नहीं चलेगा. माइक्रोनेशिया के ऊपर चक्रवात घिर रहा है. आकाश में अचानक घटाओं के साथ रोशनी भी फैल गई है. 

जो कुछ भी है, बस इसी पल में है. कुछ संपादन का काम बचा है, पिछली रात की डेट के बाद अब सुबह हो चुकी है, कुछ कॉफी है...कश्यप ने आने वाले कल को खींचकर फिलहाल इसी लम्हे में समेट दिया है.

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