...तो इसलिए छत्तीसगढ़ में भाजपा के लिए कांग्रेस नहीं बनेगी चुनौती

चुनाव के साल में दाखिल होते ही सबसे लंबे वक्त तक कुर्सी पर रहने वाले भारतीय जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने सारी ताकत झोंकी

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भूपेन केसरवानी भूपेन केसरवानी

राहुल नरोन्हा / संध्या द्विवेदी / मंजीत ठाकुर

  • छत्तीसगढ़,
  • 09 फरवरी 2018,
  • अपडेटेड 10:51 PM IST

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने दिसंबर 2017 के महीने का ज्यादातर वक्त पूरे सूबे का चक्कर काटते हुए बिताया. राज्य सरकार के बीच क्राफ्ट विमान पर सवार होकर उन्होंने मीलों की दूरी नापी और आदिवासी इलाकों में तेंदूपत्ता बोनस बांटने के कार्यक्रमों में हिस्सा लिया. तेंदूपत्ता तोडऩा छत्तीसगढ़ के तकरीबन 13 लाख आदिवासी परिवारों की अहम आर्थिक गतिविधि है. उन्हें बोनस बांटने के कार्यक्रम दिवंगत अर्जुन सिंह के दिमाग की उपज थे, जो उस वक्त संयुक्त मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. 1980 के दशक में तब इसे उनके सियासी मास्टरस्ट्रोक के तौर पर देखा गया था.

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देश में सबसे लंबे वक्त तक कुर्सी पर जमे भाजपा के मुख्यमंत्री रमन सिंह को उम्मीद है कि बतौर बोनस बांटे गए ये तकरीबन 273 करोड़ रु. और आदिवासियों के लिए उनकी कई और योजनाएं 2018 के विधानसभा चुनावों में गेमचेंजर साबित होंगी. सरकार ने एक मानक बोरा तेंदूपत्ता तोडऩे का मेहनताना 1,800 रु. से बढ़ाकर 2,500 रु. कर दिया और यही बढ़ी हुई रकम बोनस के तौर पर बांटी जा रही है.

रमन सिंह अपनी सभाओं में विकास और कल्याण की बातें करते हैं, वहीं उन्हें यह भी अच्छी तरह पता है कि भाजपा ने पिछले चुनावों में इन आदिवासी सीटों पर बहुत अच्छा प्रदर्शन नहीं किया था और अगर उन्हें मध्य भारत में भाजपा के इस गढ़ को बचाना है तो इन बेहद अहम आदिवासी मतदाताओं का दिल जीतना ही होगा. तो फिर इन चुनावों के लिए रमन सिंह का गेमप्लान क्या है? वे कहते हैं, ''विकास मेरे अभियान की केंद्रीय थीम है. राज्य में 2004 और 2017 के बीच के अहम आंकड़ों की तुलना कीजिए और आपको जबरदस्त बदलाव देखने को मिलेगा.''

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उनकी बात में दम है. हो भी क्यों ना! आखिर आंकड़े उन्हें खुश करने वाले जो हैं. इन 14 साल में, जब से वे सत्ता में हैं, सरकारी स्कूल 20,000 से बढ़कर 60,000,  मेडिकल कॉलेज दो से बढ़कर 10, सरकारी विश्वविद्यालय तीन से बढ़कर 13, कॉलेज 116 से बढ़कर 214 और इंजीनियरिंग कॉलेज 12 से बढ़कर 50 हो गए हैं. सेहत के मोर्चे पर शिशु मृत्य दर (आइएमआर) हर 1,000 आदिवासियों पर 70 से घटकर 41 पर आ गई, वहीं जच्चा मृत्यु अनुपात (एमएमआर) हर 1,00,000 प्रसव पर 379 से घटकर 221 पर आ गया. कुपोषण अब भी खासा ज्यादा है, पर वह भी 52 फीसदी से घटकर 30 फीसदी पर आ गया है, जबकि चिकित्सा सुविधा केंद्रों की कुल तादाद 4,500 से बढ़कर 6,000 हो गई है.

बुनियादी ढांचे के मामले में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में सड़कों की लंबाई 2004 के 1,072 किमी से बढ़कर 2017 में 22,750 किमी हो गई, सभी मौसमों में कारगर सड़कें इसी वक्त में 7,000 किमी के इजाफे के साथ 36,000 किमी हो गईं. बिजली का उत्पादन 4,732 मेगावाट से बढ़कर 22,764 मेगावाट हो गया और औसत खपत 525 यूनिट से बढ़कर 1,724 यूनिट हो गई. इस बीच 97 फीसदी गांवों में बिजली पहुंच गई. किसानी के मोर्चे पर जहां शून्य ब्याज पर कर्ज मुहैया किया जाता है, वहीं बागबानी की फसलें छह गुना इजाफे के साथ अब राज्य के 7.25 लाख हेक्टेयर में उगाई जाती हैं.

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इन शानदार आंकड़ों के बावजूद कई चुनावी लड़ाइयों के योद्धा रमन सिंह को एहसास है कि सत्ता में चौथा कार्यकाल हासिल करने के लिए उन्हें इससे कहीं ज्यादा कुछ करना होगा. वह भी तब जब विपक्षी दल कांग्रेस बुरी हालत में है. पूर्व मुख्यमंत्री अजित जोगी ने कांग्रेस से अलग जाकर अपनी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जेसीसी) पार्टी बना ली है और ऐसे में कांग्रेस के पास एक 'चेहरा' तक नहीं है, जो शख्सियतों के दम पर लड़े जा रहे चुनाव में काफी अहम होता है.

2003 में पहले चुनाव से ही (छत्तीसगढ़ 2000 में अलग राज्य बना) विधानसभा चुनावों में जबरदस्त कांटे का मुकाबले होता रहा है और हर बार बेहद मामूली वोटों के अंतर से तय होता है कि कौन सरकार बनाएगा (2013 में 0.75 फीसदी). 2013 में भाजपा ने आदिवासियों के लिए आरक्षित 29 में से महज 11 सीटें जीती थीं. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं, ''आदिवासी वोटों को ध्यान में रखकर ही बोनस बांटा गया है और गांव-खेड़ों में बिजली और पक्की सड़कें पहुंचाई गई हैं. पार्टी को अगर नवंबर 2018 में होने वाला चुनाव जीतना है तो ऐसा करना जरूरी है.''

मगर यह सारी कवायद इस बात की गारंटी नहीं है कि पार्टी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करेगी ही. कांग्रेस की देवती कर्मा सरीखे विधायकों ने जी-जान लगा दी है और जोरदार टक्कर देने के लिए कमर कस ली हैं. देवती पार्टी के नेता महेंद्र कर्मा की विधवा हैं जो 2013 में जीरम घाटी में हुए नरसंहार में मारे गए थे. पूर्व मंत्री और विधायक सत्यनारायण शर्मा कहते हैं, ''कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में अब भी आदिवासियों का भरोसा हासिल है. भाजपा उन्हें गुमराह नहीं कर पाएगी.'' विडंबना है कि जिस सूबे में 32 फीसदी आदिवासी आबादी है, वहां कांग्रेस और भाजपा, दोनों में ही बहुत गिने-चुने आदिवासी नेता हैं.

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भाजपा के लिए एक अहम चुनावी मुद्दा धान का बोनस बांटना होगा, जिसे 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद बंद कर दिया गया था. रमन सिंह ने इसे केंद्र से दोबारा चालू करवाया. राज्य में 6 लाख किसानों को 1,550 रु. प्रति क्विंटल धान की खरीद पर 300 रु. के अतिरिक्त भुगतान का फायदा 16 लाख किसानों को मिलने की उम्मीद है. माओवाद को भी काबू में किया गया है. हालात आज पांच साल पहले की तुलना में बेहतर हैं. सिंह को इसका भी कुछ श्रेय मिलेगा.

जहां तक निजी मोर्चे की बात है, तो रमन सिंह की लोकप्रियता अब भी कायम है. वर्षों की मेहनत से उन्होंने मृदुभाषी और अच्छे शख्स की छवि बनाई है, जो अब भी उनके काम आ रही है. 2018 के चुनावों में सबसे महत्वपूर्ण कारक जोगी और उनकी जेसीसी होगी. भाजपा को लगता है कि जोगी कांग्रेस के परंपरागत वोट काटेंगे, पर यह उतना साफ भी नहीं है. जोगी ने 11 उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है और वे मध्य छत्तीसगढ़ की उन सीटों पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं जहां उनका कट्टर समर्थक सतनामी समुदाय रहता है. 2013 के चुनावों में भाजपा ने राज्य की अनुसूचित जातियों (एससी) के लिए आरक्षित 10 में से 9 सीटें जीती थीं. ये वही सीटें थीं जहां सतनामी वोट नतीजों पर असर डाल सकते हैं.

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लिहाजा अगर सतनामी वोट जोगी के पाले में चले जाते हैं, तो वे भाजपा को जरूर नुक्सान पहुंचा सकते हैं, क्योंकि पिछली बार इस समुदाय के वोट थोक के भाव भाजपा को मिले थे. यही नहीं, राज्य में 7.10 फीसदी के करीब सवर्ण जातियों यानी ब्राह्मण, ठाकुर और वैश्य के वोट हैं, जिनका एक हिस्सा कांग्रेस के पाले में लौट सकता है, जो उसे उस वक्त छोड़कर चला गया था जब जोगी ने बतौर मुख्यमंत्री सारी ताकत आदिवासी और अनुसूचित जातियों के पीछे लगा दी थी.

भाजपा को 2013 में रायपुर, दुर्ग और रायगढ़ की शहरी सीटों पर भारी बढ़त मिली थी. इस बार पार्टी इन सीटों को बनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर निर्भर रहेगी. जोगी कहते हैं, ''भाजपा इसे शख्सियत पर आधारित मुकाबले में तब्दील करेगी. सत्ता विरोधी भावना को पलटने के लिए वे नेता के तौर पर पीएम मोदी को बीच में लाएंगे. मैं इसका जवाब 'छत्तीसगढ़ी महतारी' और उसके गौरव के मुद्दे से दूंगा.''

नौजवान भी रमन सिंह के रडार पर हैं. 2013 के 1.7 करोड़ वोटरों में इस बार 32 लाख नए वोटर जुडऩे की उम्मीद है. उन्हें लुभाने के लिए मुख्यमंत्री स्मार्टफोन और कौशल विकास केंद्रों की रेवड़ी बांट रहे हैं. असल में, इन नए वोटरों पर तमाम पार्टियों और नेताओं की निगाहें लगी हैं. जोगी उन्हें अपने पाले में लाने के लिए छत्तीसगढ़ गौरव का नारा दे रहे हैं और भाजपा सरकार पर बाहरी लोगों को नौकरियां देने और स्थानीय युवाओं का हक छीनने का आरोप लगा रहे हैं.

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सूबे में बसपा की अहमियत बनी हुई है. पिछले चुनावों में उसे लगातार तकरीबन 5 फीसदी वोट हासिल हुए थे. ऐसे में बसपा के साथ औपचारिक या अनौपचारिक तालमेल का फायदा बेहद कड़े मुकाबले में गठबंधन के दूसरे भागीदार को भी मिल सकता है.

सत्ता विरोधी भावना के अलावा रमन सिंह को भ्रष्ट सरकार की अगुआई करने की आम धारणा से भी जूझना पड़ रहा है. कांग्रेस ने ऑगस्ता वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर की खरीद और नागरिक आपूर्ति निगम के घोटाले सहित कई मुद्दे उठाए हैं, पर उसका कहना है कि उन सभी को दबा दिया गया. रमन सिंह इसका जवाब यह कहकर देते हैं कि कांग्रेस ''कुछ भी साबित नहीं कर सकी है...उनके पास कोई सबूत ही नहीं है.'' सीएम भले ही आरोपों से इनकार करें, पर गली-मुहल्लों में धारणा यही है कि रिश्वत बगैर कोई काम नहीं होता. रायपुर के एक अफसर कहते हैं, ''यह सत्ताधारी पार्टी को नुक्सान पहुंचाएगा.''

भू राजस्व संहिता की धारा 165(6) को कमजोर करने के लिए लाए गए संशोधन का मामला भी भाजपा को परेशान करने के लिए लौट सकता है. अगर यह पारित हो जाता तो आदिवासियों की जमीन की सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए बिक्री का रास्ता साफ हो जाता. लेकिन विपक्ष और आदिवासी संगठनों दोनों ने इसका समान रूप से विरोध किया और आखिरकार इसे वापस ले लिया गया.

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सूबे में अफसरशाही का बोलबाला है. इससे सियासी कर्णधार बेइंतहा क्षुब्ध रहते हैं. भाजपा के एक बड़े कर्ताधर्ता कहते हैं, ''हमने मंत्रियों से अपने प्रभार वाले जिलों में हर महीने दो रातें बिताने के लिए कहा है. इससे उपेक्षित महसूस कर रहे पार्टी कार्यकर्ताओं की आहत भावनाओं पर मरहम लगेगा.''

वरिष्ठ पत्रकार गिरिजा शंकर कहते हैं, ''छत्तीसगढ़ में न तो कोई जिग्नेश मेवाणी या हार्दिक पटेल है और न ही सरकार के खिलाफ कोई आंदोलन है, जिसका फायदा कांग्रेस उठा सके. यह बात रमन सिंह के पक्ष में जाती है, फिर भी कांग्रेस की राज्य में गहरी जड़ें हैं. खेल में वापस लौटने में उसे बहुत ज्यादा वक्त नहीं लगेगा.'' दो पक्षों में सीधे मुकाबले, पिछले चुनावों की जीत-हार के बहुत कम अंतर और अब जोगी की जेसीसी की शक्ल में एक अंदेशे की मौजूदगी से छत्तीसगढ़ चुनावी पंडितों का दुरूस्वप्न बना हुआ है.

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