राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद संभाले छह महीने हो चुके हैं. उनके पार्टी अध्यक्ष बनने के चंद दिन बाद ही गुजरात विधानसभा चुनाव के नतीजे आए. वहीं, हाल में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद वहां भारी उतार-चढ़ाव वाला सियासी घटनाक्रम पार्टी ने देखा.
गुजरात में बीजेपी के गढ़ में कांग्रेस ने उसे कांटे की टक्कर दी. वहीं कर्नाटक में कांग्रेस को अपने दम पर चल रही सत्ता से हाथ धोना पड़ा. नाटकीय घटनाक्रम के बाद कांग्रेस को जेडीएस का जूनियर पार्टनर बनकर खुद सरकार में बने रहने और बीजेपी को सत्ता में आने से रोकने में जरूर कामयाबी मिल गई.
इफ्तार से छवि बदलने की कोशिश
आइए देखते हैं कि राहुलराज के 6 महीने में कांग्रेस कितना बदली? कितनी मजबूत हुई? खुद को जनेऊधारी शिवभक्त हिन्दू ब्राह्मण बताकर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पार्टी का बदला हुआ नजरिया जाहिर करने की कोशिश की. चुनाव प्रचार के दौरान मंदिर मंदिर जाकर पार्टी की प्रो-मुस्लिम छवि को बदलने की कोशिश की.
बीते दो साल से पार्टी की ओर से बंद रही इफ्तार पार्टी का सिलसिला फिर से शुरू करके कांग्रेस की मूल छवि को बताने की रणनीति अपनाई. 13 जून को इफ्तार पार्टी से जताना चाहा कि कांग्रेस सभी धर्मों को साथ लेकर चलना चाहती है. तो क्या ये पार्टी छवि के लिहाज से राहुल का सोच समझ कर चला गया दांव है?
6 अहम फैसले
इफ्तार पार्टी से पहले भी राहुल गांधी ने पार्टी में 6 ऐसे अहम फैसले किए जिन्होंने बता दिया कि, अब कांग्रेस में सोनियाराज नहीं राहुलराज है.
1. राहुल पार्टी में सबसे अहम भूमिका निभाने वाले चारों फ्रंटल संगठनों के अध्यक्ष बदल चुके हैं. यूथ कांग्रेस, महिला कांग्रेस, एनएसयूआई और सेवादल के नए अध्यक्षों की नियुक्ति हो चुकी है.
2. कई प्रभारियों के साथ ही संगठन महासचिव जनार्दन द्विवेदी की जगह अशोक गहलोत को दी जा चुकी है. वहीं सोनियाराज में संगठन के दूसरे सबसे ताकतवर महासचिव माने जाने वाले दिग्विजय सिंह को भी इस पद से मुक्त कर मध्य प्रदेश में समन्वय समिति का प्रमुख बनाकर राज्य में भेज दिया गया है.
3. एक वक्त सोनिया गांधी ने अध्यक्ष रहते अहमद पटेल और अंबिका सोनी को बतौर अपना सलाहकार रखा. पार्टी में सोनियाराज के दौरान अहमद पटेल आखिर तक सलाहकार के पद पर बने रहे. राहुल के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद किसी नेता से उनकी खास करीबी ना दिखे, इसलिए राहुल ने सलाहकार पद पर किसी को नहीं रखा. इसकी बजाए प्रदेश के प्रभारियों से सीधा संवाद कायम किया.
4. साथ ही राहुल एक राज्य का एक प्रभारी फॉर्मूला भी पार्टी में लागू कर रहे हैं. पहले एक प्रभारी महासचिव के पास 3-4 से लेकर 10 राज्यों तक के प्रभार हुआ करते थे. राहुल ने काफी हद तक इसको बदल दिया है.
5. करीब एक दर्जन सीटों पर हाल में हुए राज्यसभा चुनांव में राहुल ने तय किया कि, जिस राज्य में राज्यसभा सीट है, उम्मीदवार भी उसी राज्य से हो. इसी के चलते राजीव शुक्ला, प्रमोद तिवारी और जनार्दन द्विवेदी जैसे नेता इस बार राज्यसभा सांसद नहीं बन पाए.
6. राहुल ने कांग्रेस संगठन का विस्तार करते हुए फिशरमैन कांग्रेस, असंगठित मजदूर कामगार कांग्रेस और प्रोफेशनल कांग्रेस का भी गठन कर दिया. इस कदम को देशभर में अलग-अलग क्षेत्र के लोगों को कांग्रेस से जोड़ने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है. इस मसले पर असंगठित मजदूर कामगार कांग्रेस के मुखिया अरविंद सिंह ने कहा, 'देश में 45 करोड़ लोग इस क्षेत्र में काम करते हैं, हम उन सभी की समस्याओं को सरकार के सामने उठाएंगे. हमने 20 राज्यों में अपना संगठन खड़ा कर लिया है.'
साफ है कि राहुल ने बीते 6 महीने में पार्टी में काफी कुछ बदला है या बदलने की कोशिश की है. लेकिन इस सबका नतीजा क्या रहा ये इस बात पर निर्भर करेगा कि राहुल की कांग्रेस चुनावी लड़ाई में कैसा प्रदर्शन करती है. आखिरकार वहीं से यह तय होगा कि राहुल के बदलाव हिट साबित होते हैं या फ्लॉप.
6 बड़ी चुनौतियां
आइए अब गौर करते हैं उन 6 बड़ी चुनौतियों पर जिनसे कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को निकट भविष्य में निपटना है.
1. अभी तक राहुल कांग्रेस की फैसले लेने वाली बॉडी कार्यसमिति का गठन नहीं कर पाए हैं. पुराने बड़े चेहरों को हटाकर नए नेताओं को लाने में राहुल मशक्कत कर रहे हैं, इसीलिए अब तक कार्यसमिति गठन नहीं कर हो सका.
2. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में पार्टी को सत्ता में वापस लाने की चुनौती. इन तीनों राज्यों में ही बीजेपी की सरकार है और कांग्रेस मुख्य विपक्ष की भूमिका में है.
3. राहुल गांधी का पहले हमेशा ये स्टैंड रहा कि कांग्रेस को देशभर में अपने बूते मजबूत किया जाए और दूसरी पार्टियों से गठबंधन करने से दूर रहा जाए. लेकिन अब बदले वक्त और सियासी जरूरत के हिसाब से राहुल खुद बीजेपी और मोदी को रोकने के लिए गठबंधन की वकालत कर रहे हैं. ये बात दूसरी है कि गठबंधन के लिए पहले सभी विरोधी दलों को तैयार करना और फिर एकजुट होकर चुनाव में उतरना, राहुल के रणनीतिक कौशल की अग्निपरीक्षा से कम नहीं होगा.
4. राहुल के सामने बड़ी चुनौती बाकी विपक्षी दलों का नेता बनने की भी है. अभी इफ्तार पार्टी में ही इस चुनौती की झलक दिखी, जब सोनिया की गैर-मौजूदगी में बड़े विपक्षी नेताओं ने अपनी दूसरी और तीसरी पंक्ति के नेताओं को भेजा.
5. राहुल के सामने सबसे बड़ी चुनौती मोदी-अमित शाह की 24X7 सक्रिय रहने वाली जोड़ी से निपटने की है. वहां बीजेपी में रणनीति बनाने के लिए अमित शाह हैं और स्टार प्रचारक मोदी हैं. जबकि, यहां राहुल को अकेले ही सब कुछ करना है.
6. पार्टी खुद मानती है कि पहली बार वोटर बनने वाले ज़्यादातर मोदी से प्रभावित हैं, उनके प्रचार प्रसार से मन बनाते हैं. ऐसे वोटरों को अपनी तरफ खींचने के लिए 50 से कम उम्र के राहुल को एड़ी चोटी का जोर लगाना होगा.
कांग्रेस में सोनिया राज के दौरान अहम जिम्मेदारियां निभा चुके नेता राजीव शुक्ला ने 'आजतक' से बातचीत में कहा, 'राहुल ने पार्टी की कमान अभी संभाली है और कम वक्त में काफी बेहतर बदलाव किए हैं. जहां तक विपक्ष का नेता या पीएम पद की उम्मीदवारी की बात है तो ये सब चीजें वक्त आने पर तय हो जाएंगी. आज तो सभी मोदी सरकार से छुटकारा चाहते हैं.'
कुमार विक्रांत