अपनी व्यस्त दिनचर्या के बावजूद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग्रुप एडिटोरियल डायरेक्टर राज चेंगप्पा के साथ बातचीत के लिए वक्त निकाला. इससे पहले उन्होंने नोटबंदी के ज्वलंत मुद्दे पर ईमेल से एक विस्तृत साक्षात्कार दिया, जिसमें इस फैसले के समय और कारणों समेत इससे अपेक्षित नतीजों पर उनका अपना आकलन शामिल है, साथ ही यह भी कि आगे क्या करने की उनकी योजना है और अपने कार्यकाल के बीच में उन्होंने कौन-से लक्ष्य तय किए हैं? विस्तार से प्रस्तुत है यह विशेष बातचीत.
बातचीत की शुरुआत हम 8 नवंबर को उच्च मूल्य के नोटों को बंद करने के आपके उस आदेश से करते हैं जिसे वित्तीय पोकरण (विस्फोट) की संज्ञा दी जा रही है. इस ऐतिहासिक फैसले की सराहना और आलोचना, दोनों हुई है. इसे जिस तरीके से लागू किया गया, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
आपने खुद इस फैसले को ''ऐतिहासिक" कहा है. आपने इसे ''वित्तीय पोकरण" का नाम दिया है. शायद इस शब्द का इस्तेमाल आपने उस भारी गोपनीयता के चलते किया हो जिसे इस प्रक्रिया के दौरान बरता गया था. मुझे खुशी है कि आपने हमारे फैसले और उसके कार्यान्वयन के इन दोनों अहम पहलुओं को मान्यता दी.
यह फैसला इतना बड़ा है कि हमारे सबसे बेहतरीन अर्थशास्त्री भी भ्रामक गणनाओं में उलझे हुए हैं. हालांकि भारत के सवा अरब नागरिकों ने दिल खोलकर इसका स्वागत किया है और निजी कठिनाइयों के बावजूद इसे समर्थन दिया है क्योंकि उन्हें इसके प्रभाव और अहमियत का अंदाजा है. हमारे आलोचकों की भविष्यवाणियों के बावजूद इतने दिन बाद भी यह स्थिति बदली नहीं है. मेरे ख्याल से यह स्वीकार्यता खुद फैसले से कहीं ज्यादा ऐतिहासिक है. हमने दुनिया को जता दिया है कि राष्ट्र के प्रति हमारे यहां त्याग, अनुशासन, समझदारी और कटिबद्धता की भावना ऐतिहासिक रूप से अंतर्निहित है.
जब वैश्विक स्तर पर अप्रत्याशित कोई ऐसा कदम उठाया जाता है, तो किसी के पास उसकी तुलना के लिए कोई प्रस्थान बिंदु नहीं होता. इसे समझा जा सकता है. मुझे इस फैसले को लागू करने में आने वाली चुनौती के आकार-प्रकार का बखूबी अंदाजा था. मुझे उम्मीद है कि हम उस पर खरे उतरे हैं. यह मामूली बात नहीं है कि इस मसले पर देश में असंतोष की कोई बड़ी घटना नहीं हुई. और जैसा कि हर प्रक्रिया में होता है, यहां भी सुधार की गुंजाइश पर्याप्त है और मेरा मानना है कि हम सुधार कर सकते हैं और हमें हमेशा ऐसा करना चाहिए.
नोटबंदी के जो नतीजे आए हैं, क्या आप उससे संतुष्ट हैं?
नतीजों के संबंध में मैं एक बार फिर से वही उद्देश्य दोहराना चाहूंगा जो मैंने 8 नवंबर को गिनवाए थे, यानी भ्रष्टाचार, काले धन, जाली नोटों, आतंकवाद के वित्तपोषण और राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा पैदा करने वाली अन्य गतिविधियों पर हमला. इन सभी मोर्चों पर निर्णायक परिणाम स्पष्ट दिखने लगे हैं. सारा का सारा काला धन खुलकर सामने आ गया है, चाहे वह किसी का भी रहा हो—चाहे वह भ्रष्ट नेताओं का हो, नौकरशाहों का हो, कारोबारियों का या नौकरीपेशा लोगों का. जाली नोटों का कारोबार तो तुरंत समाप्त हो गया है, जिसके बारे में हमारी गुप्तचर एजेंसियों का कहना था कि वे हमारे शत्रुओं के पास भारी मात्रा में मौजूद थे. मीडिया ने उन जिलों पर इसके असर के बारे में काफी खबरें दी हैं जो जाली नोटों के कुख्यात केंद्र हुआ करते थे. इसी तरह आतंकवादियों, माओवादियों और अन्य चरमपंथियों के पास मौजूद नकदी भी समाप्त हो गई है. इससे मानव तस्करी और नशीले पदार्थों के कारोबार जैसी खतरनाक और अवैध गतिविधियों पर भी बुरा असर पड़ा है.
इससे पहले भी भारत और दुनिया में दूसरी जगहों पर विमुद्रीकरण किया जा चुका है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि स्वस्थ तरीके से वृद्धि कर रही एक अर्थव्यवस्था में यह फैसला इतने बड़े पैमाने पर लिया गया. ऐसा करने के पीछे आपके कारण क्या रहे और इसका वक्त यही क्यों चुना गया?
दुनिया भर के जानकारों ने बीते वर्षों में नोटबंदी की खासी पैरवी की है. मैकिंसी के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री जेम्स हेनरी ने 1980 में प्रस्ताव रखा था कि अमेरिका में अपराध और माफिया की गतिविधियों को रोकने के लिए उच्च मूल्य की मुद्रा को अचानक बंद कर दिया जाए. प्रोफेसर केनेथ रोगॉफ ने भी यही बात कही है, जो द कर्स ऑफ द कैश नामक पुस्तक के लेखक हैं. प्रोफेसर लैरी समर्स ने 100 डॉलर का नोट बंद करने की बात की है. फरवरी 2016 में हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के एक परचे में स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक के पूर्व सीईओ ने दुनिया भर में अवैध गतिविधियों में बड़े नोटों की भूमिका का जिक्र किया था और इन्हें बंद करने की बात की थी. यूरोपियन सेंट्रल बैंक तो सबसे बड़े यूरो के नोट को धीरे-धीरे खत्म कर ही रहा है.
हिंदुस्तान में सत्तर के दशक से ही नोटबंदी की सिफारिश की जाती रही है. एक अवकाश प्राप्त मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली वांचू कमेटी ने 1971 में 85 फीसदी मुद्रा को बंद करने की सिफारिश की थी, जिसमें 10 और 100 रु. के नोट शामिल थे. इस कमेटी में अग्रणी अर्थशास्त्री और चार्टर्ड एकाउंटेंट सदस्य थे. उसके बाद से ही तमाम राजनैतिक दलों के लोगों ने इसे लागू करने का आह्वान किया है. राष्ट्रीय विकास परिषद में कांग्रेसी मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह से लेकर संसद में सीपीएम के तत्कालीन सांसद ज्योतिर्मय बसु तक ने इसका आह्वान किया है. हमने जो कुछ भी किया है, वह मोटे तौर पर उस कमेटी की सिफारिशों के मुताबिक है. कुल मिलाकर इतना कह सकते हैं कि यह फैसला लेने में हमें 40 साल की देरी हो गई. संकट से बचने के लिए यह फैसला एक निर्णायक उपाय था. अगर हमने और देर की होती, तो समस्या और उसके समाधान के आकार-प्रकार में कई गुना बढ़ोतरी हो गई होती.
इतना ही नहीं, यह तो एक आम समझ वाली बात है कि भारत की अर्थव्यवस्था यदि कमजोर रही होती, तो यह फैसला नहीं लिया जाता. अर्थव्यवस्था की सेहत अच्छी है, इसीलिए यह फैसला बहुत सोच-समझकर लिया गया है. ऐसा तीव्र सुधार उसकी नींव को और मजबूत करेगा तथा उसे और प्रोत्साहन देगा.
आप इस बात से वाकिफ होंगे कि भारत में दीवाली के आसपास आर्थिक गतिविधियां अपने चरम पर होती हैं और उसके बाद कुछ वक्त के लिए सुस्ती आ जाती है. नोटबंदी के बाद कम से कम परेशानी खड़ी हो, इसका अंदाजा लगाते हुए ही हमने इस वक्त को चुना.
इस फैसले को लागू करने को लेकर कई सवाल उठाए गए हैं. क्या आप और बेहतर तैयारी कर सकते थे? नोटबंदी लागू करने से पहले क्या यह मुमकिन नहीं था कि आरबीआइ 500 और अन्य नोटों को पर्याप्त मात्रा में छाप देता?
राजनैतिक बढ़त लेने के लिए इस तरह की दलीलें देना फिर भी ठीक है लेकिन यह धारणा ठीक नहीं. नोटों की छपाई के संबंध में हमारी योजना और रणनीति भारत में मुद्रा की आवश्यकता और उपयोग पर आधारित थी. कम ही लोगों को पता होगा कि भारतीय रिजर्व बैंक के आकलन के मुताबिक 1,000 और 500 रु. के नोटों का बड़ा हिस्सा कभी भी दैनिक प्रवाह में नहीं आता और उसकी जमाखोरी की जाती है. इसके अलावा, आज तो आम लोगों के पास रूपे से लेकर ऑनलाइन वॉलेट और यूएसएसडी भुगतान तक वैकल्पिक डिजिटल भुगतान के विभिन्न विकल्प मौजूद हैं. शुरुआती चरण में हमें अंदाजा था कि बुनियादी स्तर पर थोड़ी कमी पैदा होगी. मैंने 8 नवंबर को ही इसका जिक्र कर दिया था और संकट की उस अस्थायी घड़ी में सहयोग का अनुरोध भी किया था. विभिन्न जरूरी जगहों पर पुराने नोटों के इस्तेमाल की छूट दी गई थी ताकि संक्रमण की यह अवधि आराम से कट जाए और धीरे-धीरे दबाव कम हो सके.
आपकी सरकार ने शुरू में जो ऐलान किया था, उसमें बार-बार बदलाव हुए. यहां तक कि एक और स्वैच्छिक डिस्क्लोजर योजना ने अनिश्चय का माहौल पैदा कर दिया. नोटबंदी की घोषणा करने से पहले क्या इनका अंदाजा नहीं था?
जहां तक कई बार हुए बदलावों का सवाल है, तो आपको नीति और रणनीति के बीच फर्क करना आना चाहिए और दोनों को बराबर नहीं तौलना चाहिए. नोटबंदी का फैसला हमारी नीति को प्रतिबिंबित करता है जो बिल्कुल साफ है, अडिग है और स्पष्ट है. हमारी रणनीति अलग हो सकती है, जैसा कि सदियों पुरानी कहावत कहती है, ''तू डाल-डाल मैं पात-पात". हमें अपने दुश्मनों से दो कदम आगे रहना होगा. आपने खुद कहा है कि यह फैसला अप्रत्याशित रूप से बड़ा है. मैंने 8 नवंबर को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में विशेष रूप से कहा था कि यह ताकतवर दुश्मन के खिलाफ एक जंग है. जब आप ऐसी जंग लड़ते हैं, तो एक जगह खड़े रहकर अपने दुश्मन को लाभ नहीं लेने दे सकते. दुश्मन अगर भागेगा तो हम उसका पीछा करेंगे. अगर वह रणनीति बदलेगा, तो हमें भी अपनी रणनीति बदलनी होगी. जब भ्रष्ट लोग धोखाधड़ी के नए तरीके खोज निकालते हैं, तो हमारा काम उनकी पहचान करके उस पर लगाम लगाने का होता है.
इसके अलावा, हमारी सरकार लोगों और मीडिया की प्रतिक्रियाओं और सुझावों पर भी काम करती है. जब समस्याओं की पहचान हो जाती है, तो हम तुरंत उसका जवाब देते हैं और जरूरी कदम उठाते हैं. खराब कार्यान्वयन तो दूर की बात है, यह हमारी प्रतिक्रिया के धारदार होने का सबूत है कि हम परिस्थिति का लगातार मूल्यांकन कर रहे हैं. मैं जानता हूं कि कई लोगों को पसंद आएगा अगर हम एक निर्देश जारी कर दें और उन्हें उसका उल्लंघन करने का मौका दें. मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि ऐसा कुछ भी नहीं होगा और हम गलत काम को रोकने के लिए वे सारे तरीके अपनाएंगे, जो हमारे पास हैं.
ऐसा लगा कि बैंक इस चुनौती के लिए तैयार नहीं थे. लोगों को इससे दिक्कत हुई. क्या यह धारणा सही है?
जहां तक बैंकों और डाकघरों का सवाल है, तो तमाम कर्मचारियों ने काफी समर्पण के साथ अपना काम किया है. मैं उन्हें उनकी मेहनत और प्रतिबद्धता के लिए शुक्रिया अदा करता हूं. हां, इसमें कुछ गड़बड़ लोग भी थे जो कुकृत्य में लिप्त थे. इनमें हरेक के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी.
विपक्ष के कई नेताओं ने नोटबंदी के फैसले को लागू किए जाने को लेकर काफी आलोचना की है. उनका आरोप है कि आर्थिक सुधार के बजाए यह फैसला राजनैतिक था जो आगामी विधानसभा चुनावों, खासकर उत्तर प्रदेश में बीजेपी को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से लिया गया.
मुझे अपने कुछ विरोधियों पर, खासकर कांग्रेस के नेतृत्व पर अफसोस होता है कि वे इतने ज्यादा बेचैन हैं. एक तरफ तो वे कहते हैं कि मैंने यह फैसला राजनैतिक लाभ के लिए लिया, दूसरी ओर वे कह रहे हैं कि लोग परेशान हैं और काफी निराश हैं. दोनों बातें एक साथ सही कैसे हो सकती हैं? हो सकता है कि विपक्ष के सदस्य होने के नाते उन्हें मेरी आलोचना करते रहने के लिए कुछ खुराक चाहिए, चाहे वह आलोचना कितनी ही अतार्किक क्यों न हो. मुझे उनके संकट से सहानुभूति है.
इससे एक और हकीकत यह समझ में आती है कि कांग्रेसी नेताओं के दिमाग में केवल एक ही बात भरी हुई है और वह है चुनाव. यह हाल तो तब है, जब वे आज विपक्ष में हैं जबकि जितने साल वे सरकार में रहे, यही सोचते रहे. अपनी बात के समर्थन में मैं पूर्व गृह सचिव माधव गोडबोले की पुस्तक अनफिनिश्ड इनिंग्सः रीकलेक्शंस ऐंड रिक्रलेक्शंस ऑफ ए सिविल सर्वेंट से एक मिसाल पेश करना चाहूंगा. तत्कालीन वित्त मंत्री वाइ.बी. चव्हाण के निजी सचिव रहते हुए उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधीजी के साथ नोटबंदी पर चव्हाण के संवाद का विवरण दिया हैः ''जब वाइ.बी. चव्हाण ने नोटबंदी पर अपना प्रस्ताव उनके सामने रखा और उनसे कहा कि इसे मंजूर कर के तुरंत लागू कर देना चाहिए, तब उन्होंने चव्हाण से केवल एक सवाल पूछा थाः ''चव्हाणजी, क्या कांग्रेस को अब और कोई चुनाव नहीं लडऩा है?" चव्हाण बात को समझ गए और प्रस्ताव को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया." बीजेपी में हमारे लिए पार्टी से बड़ा राष्ट्र है. हमने हमेशा दीर्घकालीन राष्ट्रीय हित को अल्पकालिक राजनैतिक हित के ऊपर रखने के सिद्धांत का पालन किया है. नोटबंदी के फैसले में कुछ भी राजनैतिक नहीं है. यह हमारी अर्थव्यवस्था और समाज को साफ-सुथरा बनाने के लिए लिया गया कड़ा फैसला है. अगर मेरे मन में अल्पकालिक चुनावी राजनीति का ख्याल रहता, तो मैंने ऐसा कभी नहीं किया होता.
आपके पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह ने तो नोटबंदी को भव्य कुप्रबंधन और संगठित लूट का नाम दे डाला है और उनका अनुमान है कि जीडीपी में दो फीसदी की गिरावट आएगी. आपका क्या जवाब है?
मनमोहन सिंहजी के संदर्भ में यह बात दिलचस्प है कि ''भव्य कुप्रबंधन" जैसा शब्द एक ऐसे नेता के मुंह से निकला है जो करीब 45 साल से भारत के आर्थिक सफर से जुड़ा रहा है—मुख्य आर्थिक सलाहकार से लेकर आर्थिक मामलों के विभाग के सचिव, रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष, वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री तक—जिस दौरान हमारे समाज का एक बड़ा तबका लगातार गरीबी और अभाव को झेलता रहा. इससे ज्यादा दिलचस्प यह है कि इतने दशकों के दौरान उन्होंने इतनी व्यवस्था बनाए रखी कि कोई दूसरा उन पर कभी भी ''भव्य कुप्रबंधन" का आरोप न लगा पाए.
उन्होंने जिस ''संगठित लूट" की बात की है, वह शायद उन्हीं के नेतृत्व में घोटालों के अनंत सिलसिले से जुड़ी है—कोयला घोटाले से लेकर 2जी और राष्ट्रमंडल खेलों तक. दूसरी ओर विमुद्रीकरण भ्रष्टाचारियों की लूट को जब्त करने के लिए उठाया गया एक अप्रत्याशित कदम है.
जहां तक विकास का सवाल है, तो जब इतनी विशाल समानांतर अर्थव्यवस्था को मुख्यधारा में लाया जाता है तो वह मजबूत ही होती है. पैसा जब बैंकिंग तंत्र में प्रवाहित होता है और लोग वित्तीय लेन-देन से जुड़ते हैं, तो कर्ज तक पहुंच आसान और किफायती हो जाती है. यह आर्थिक गतिविधियों में तेजी लाता है तथा कृषि, विनिर्माण और सेवाओं जैसे तीनों क्षेत्रों में रोजगारों का सृजन करता है. जो पैसा अब तक नकदी के रूप में जमा और भंडारित था, उसके प्रवाह में आ जाने से उसका गुणात्मक असर होगा. यह अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देगा. इसके चलते प्राथमिकता वाले क्षेत्रों में अतिरिकत सरकारी राजस्व का आवंटन किया जा सकेगा, जैसे सिंचाई, ग्रामीण आवासन, गरीबों और जरूरतमंदों का सशक्तीकरण. भ्रष्टाचार जैसे-जैसे कम होगा और पारदर्शिता बढ़ेगी, कारोबार करने की सहजता में इजाफा होगा जिससे निवेश आएगा. अर्थव्यवस्था जितनी औपचारिक होगी, यह रोजगारों को बढ़ावा देगी और ज्यादा से ज्यादा कामगारों को श्रमिक कल्याण उपायों का लाभ और संरक्षण हासिल होगा.
संसद का सत्र नहीं चल सका. लालकृष्ण आडवाणी जैसे वरिष्ठनेताओं ने भी निराशा जताई है. क्या ट्रेजरी बेंचें ऐसे अहम मुद्दे पर बहस को मंजूरी देकर बेहतर तरीके से इस संकट से निबट सकती थीं? आलोचकों का कहना था कि जनता संसद में आपके संबोधन की उम्मीद लगाए बैठी थी.
सरकार ने संसद को चलाने के लिए भरसक कोशिश की. वित्त मंत्री ने कई मौकों पर कांग्रेस से अपील की कि बहस को आगे बढऩे दिया जाए और उन्हें आश्वासन दिया कि मैं उसमें हिस्सा लूंगा. मैं दोनों सदनों में बोलने का इच्छुक था. इसके बावजूद कांग्रेस की ओर से उपयुक्त बहस होने देने के बजाए दोनों सदनों की कार्यवाही को पटरी से उतारने की लगातार कोशिश होती रही. इसको लेकर मैं भी आडवाणीजी के जितना ही निराश हूं. मुझे आशा है कि कांग्रेस के नेता उनकी तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति की सलाह को सुनेंगे और भविष्य में संसद को सामान्य तरीके से काम करने देंगे.
संसद में विपक्ष की बात तो समझ में आती है, लेकिन ऐसा पहली बार है कि विपक्ष का इस्तेमाल बेईमानों को समर्थन देने और बचाने के लिए हो रहा है, वह भी इतने खुले तौर पर. संसद का सत्र बेकार चला जाना बड़ी चिंता का विषय तो है लेकिन बेईमानी को यह खुला समर्थन राष्ट्र के लिए कहीं ज्यादा परेशानी वाली बात है. किसी भी लोकतंत्र में विमर्श बहुत जरूरी है. अगर उन्होंने विमर्श होने दिया होता, तो इस भव्य कवायद के कई पहलुओं का राष्ट्र के समक्ष उद्घाटन हो सकता था. यह विपक्ष को बेपर्दा कर देता और जनता को भ्रमित करने के उसके प्रयासों की पोल खोलकर रख देता. भारत की जनता अब विपक्ष की इस रणनीति को समझ चुकी है कि पहले संसद को नहीं चलने देना है और उसके बाद सार्वजनिक रूप से निराधार आरोप मढ़ देना है. ऐसा लगता है कि अब भी कई लोग जनादेश को पचा नहीं पाए हैं.
जब नोटबंदी को लागू किया गया था, तो अनुमान लगाया गया था कि प्रवाहमय कुल काला धन 3 लाख करोड़ रु. का है और यह राशि सिस्टम से निकल जाएगी. पर अब ऐसा लगता है कि विमुद्रीकृत अधिकांश मुद्रा बैंकों को लौट गई है. करों और दंड के माध्यम से सरकार को कितनी कमाई की उम्मीद है?
ये सारे आंकड़े जो चर्चा में हैं, सरकारी नहीं हैं बल्कि अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों के हैं. कोई भी इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि भारत में एक विशाल समानांतर अर्थव्यवस्था कायम है. नोटबंदी का फैसला बेशक इस काली अर्थव्यवस्था को भारी चोट पहुंचाने के लिए लिया गया था ताकि वह मुख्यधारा में आ सके. हालांकि, यह अपेक्षा कभी नहीं की गई थी कि काला धन हमेशा छुपा रहेगा और वापस बैंकिंग तंत्र में नहीं आएगा. हम लोग शुरू से ही इस बात को लेकर स्पष्ट थे कि बड़े नोटों को वित्तीय तंत्र में वापस आ जाना चाहिए. अगर ऐसा नहीं होता तो हम बैंकिंग तंत्र को नोटों की वापसी के लिए इतना वक्त और इतने विकल्प क्यों देते? अगर ऐसा नहीं होता तो हम पेट्रोल पंपों से लेकर सरकारी बकाया तक चुकाने के लिए तमाम रास्तों से नोटों की बदली के लिए 15 दिसंबर की अवधि क्यों देते? इसीलिए, बैंकिंग तंत्र में नोटों के बड़े हिस्से का न लौटना सरकार का न तो एजेंडा था और न ही इसकी अपेक्षा की गई थी.
हमने वास्तव में यह माना था कि पैसा, खासकर काला धन बैंकिंग तंत्र में वापस आ जाएगा. ऐसा कई कारणों से है. इससे 500 और 1,000 रु. के नोटों का एक बड़ा हिस्सा वापस आ जाता है जिसके बारे में रिजर्व बैंक का अनुमान था कि लोगों ने प्रवाह से बाहर रखकर उसे अपने सूटकेसों, आलमारियों या गद्दे के नीचे जमा किया हुआ है. कहीं ज्यादा अहम यह है कि इसने एक स्थायी वित्तीय छाप छोड़ी है. पैसा जब बैंक में वापस आ जाता है तो उस पर से अनाम होने की मुहर हट जाती है. हर पैसे का कोई न कोई मालिक होता है. इससे खेल पलट जाता है. अब तक जो काला धन अज्ञात और अनाम था, वह अब किसी के नाम से है. अब हम जानते हैं कि वह किसका है, कहां है और कब से है. काले धन के धारक दूसरे के बैंक खाते के पीछे अपनी पहचान छुपा सकते हैं, लेकिन वे जमा नकदी के जैसे नहीं हैं और उनकी पहचान की जा सकती है. इस लुकाछुपी के खेल में उनके पास छुपने को कुछ ही दिन बचे हैं लेकिन सरकार के पास पर्याप्त वक्त है, तरीके हैं और सबसे अहम उन्हें खोज निकालने की इच्छाशक्ति है. ज्यादा दिलचस्प यह है कि ऐसी निशानदेही से भ्रष्टाचार के और स्रोतों और तरीकों का पर्दाफश हो सकता है. मीडिया में खबरें भरी पड़ी हैं कि कैसे किसी एक भ्रष्टाचारी के पीछे पड़े अधिकारियों को कई अन्य के कुकृत्यों का सुराग मिल रहा है.
जब्त किए गए पैसे का इस्तेमाल सरकार कैसे करेगी?
आप इस बात को समझें कि हमने किसी अल्पकालीन लाभ के लिए नोटबंदी का फैसला नहीं लिया था बल्कि यह दीर्घकालीन ढांचागत बदलाव के मकसद से था. हमारा मकसद अर्थव्यवस्था और समाज को काले धन की गंदगी से निजात दिलाना था और उसके साथ आने वाले अविश्वास, नकली दबावों और अन्य बीमारियों को खत्म करना था. हमने समानांतर तौर पर एक काम यह भी किया कि जो लोग अपने तौर-तरीकों को बदल कर प्रधानमंत्री गरीब कल्याण जमा योजना के माध्यम से मुख्यधारा में आना चाहते थे, उन्हें एक अवसर दिया जहां उन्हें अपनी अघोषित आय पर भारी दंड चुकाना होगा—30 फीसदी का कर, कर पर 33 फीसदी का अधिभार शुल्क, 10 फीसदी का अतिरिक्त दंड और साथ ही अघोषित आय के 25 फीसदी का ब्याजमुक्त अनिवार्य जमा. इससे जो राजस्व आएगा, उसका इस्तेमाल गरीबों, वंचितों और हाशिये के लोगों के कल्याण के लिए किया जाएगा.
इस बात की चिंता जताई जा रही है कि हाल के घटनाक्रम मैक्सिमम गवर्नेंस और मिनिमम गवर्नमेंट के आपके वादे को पलट देंगे. आलोचकों का कहना है कि नोटबंदी के बाद सरकार की भूमिका और बढ़ जाएगी. यह कदम आयकर के छापों के राज की वापसी लाएगा और आप आयकर अधिकारियों, बैंकरों और बाबुओं पर कहीं ज्यादा भरोसा कर रहे हैं जबकि वे ही सबसे ज्यादा भ्रष्ट भी हैं. इस बीमारी से निबटने के लिए आप क्या कदम उठाएंगे?
पहले आयकर के अधिकारी अंधेरे में तीर चलाते थे. वे अपनी मनमर्जी से किसी को भी उठा लेते थे, कहीं भी कभी भी छापा मार देते थे और आप जानते हैं कि उसका नतीजा आम तौर पर क्या निकलता था. आज लोग खुद आगे आकर बैंकों में अपना पैसा जमा करवा रहे हैं. इसका मतलब यह है कि वित्तीय पहचान स्थापित की जा चुकी है, चाहे कोई कितना ही इससे बचने की कोशिश क्यों न करे. इसकी पड़ताल टेक्नोलॉजी संचालित वैज्ञानिक, पारदर्शी और वस्तुनिष्ठ प्रणालियों के माध्यम से आसानी से की जा सकती है. आपके सवाल से उलट नोटबंदी वास्तव में आयकर अधिकारियों की मनमर्जी को खत्म कर देगी और भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग को एक दिशा देगी.
इसे और आगे ले जाकर देखें तो इससे कर प्रक्रियाएं आसान होंगी और अधिकारी तथा करदाता के बीच का रिश्ता सहज होगा. राजस्व विभाग एक ऐसी प्रणाली निर्मित कर रहा है जहां मूल्यांकन की समूची प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और करदाता को अधिकारी के समक्ष पेश होने की जरूरत नहीं रह जाएगी. हम आधुनिक तकनीकों और प्रौद्योगिकी का भी ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसे बिग डाटा एनालिसिस और डाटा माइनिंग. इसके माध्यम से पड़ताल के लिए मामलों का चयन वस्तुनिष्ठ साक्ष्यों पर आधारित हो जाएगा और उसमें अधिकारियों की मनमर्जी नहीं चलेगी. इसका उद्देश्य यह है कि ईमानदार करदाता का उत्पीडऩ न होने पाए और उसे तकलीफ न हो, जबकि बेईमान कर चोर को पकड़ कर दंडित किया जा सके. इसके बाद कोई अधिकारी या बैंकर अगर गलती करता है तो उसे दंडित किया जाएगा. मेरी सरकार भ्रष्टाचार को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगी.
खबरें आ रही हैं कि नए नोटों से काला धन फिर से पैदा हो रहा है. इससे निबटने के लिए आप क्या उपाय अपना रहे हैं?
मुझे खुशी है कि आपने यह सवाल पूछा. इस मामले में भी हम विरोधियों की आलोचनाओं में विरोधाभास पाते हैं. वे दलील देते हैं कि काला धन नकदी के रूप में नहीं है, दूसरे रूपों में है. बावजूद इसके वही लोग यह कह रहे हैं कि नए नोट काले धन में बदल रहे हैं. मुझे खुशी है कि अब वे इस बात को स्वीकार कर रहे हैं कि नकदी का काले धन में बड़ा हाथ होता है. नोटबंदी कोई अचानक उठाया गया कदम नहीं था. यह कई कदमों की शृंखला में एक कदम भर है जो हम सरकार बनाने के बाद से लगातार उठा रहे हैं जिनके तहत काले धन के प्रवाह और भंडार पर हमला कर रहे हैं. इसके कुछ उदाहरणों में इस सरकार का पहला फैसला था काले धन पर विशेष कार्य बल (एसआइटी) का गठन, 2015 में फॉरेन ब्लैक मनी कानून, पैन को अनिवार्य किया जाना, 2 लाख से ऊपर की सारी नकद खरीद पर 1 फीसदी का टीसीएस (स्रोत पर लिया जाने वाला कर), सोने की बिक्री को जवाबदेह बनाने के लिए आभूषण कारोबारियों पर उत्पाद शुल्क तथा स्विट्जरलैंड, मॉरिशस और साइप्रस जैसे देशों के साथ सूचना विनिमय और कर संबंधी तमाम समझौते.
नोटबंदी को लागू करने का वक्त भी जीएसटी के कार्यान्वयन से पहले का चुना गया ताकि उसके आने से पहले काले धन के भंडार साफ हो सकें. भविष्य में काले धन को बनने से रोकने के लिए हमने पिछले दो साल में निगरानी और संतुलन का जो तंत्र विकसित किया है, जीएसटी और डिजिटल भुगतान उसके दो निर्णायक तत्व होंगे. ये सारे कदम एक बदलावकारी सत्ता परिवर्तन की ओर इशारा करते हैं जहां सरकार गलत कामों में लगे लोगों को स्पष्ट संदेश भेज रही है.
आप डिजिटल लेन-देन और नकदी की भूमिका को कम करने के जबरदस्त पैरोकार रहे हैं. व्यवस्था में नकदी की कमी से जो अंतर पैदा हुआ है, क्या डिजिटल लेन-देन की रक्रतार उसकी भरपाई कर पाने में समर्थ होगी? इलेक्ट्रॉनिक भुगतानों की दिशा में तेजी लाने के लिए और क्या किया जाना होगा?
डिजिटल लेन-देन को नकदी संकट के दौरान एक अल्पकालिक विकल्प के तौर पर ही नहीं देखा जाना चाहिए. मेरा यह उद्देश्य नहीं है. कई लोग भूल चुके हैं कि डिजिटल की ओर यह प्रोत्साहन मिले काफी समय हो चुका है. फरवरी, 2016 में ही कैबिनेट ने डिजिटल विनिमय को प्रोत्साहित करने का फैसला लिया था. पिछले दो वर्षों के दौरान 20 करोड़ लोगों को प्रधानमंत्री जन धन योजना के तहत रूपे कार्ड दिए जा चुके हैं.
डिजिटल लेन-देन से एकाधिक लाभ मिलते हैं. इससे औपचारिक अर्थव्यवस्था में बही-खाता रखने और उसका आकार जानने में मदद मिलती है. पैसे के रखरखाव में इससे सुरक्षा और सहजता आती है, खासकर आम लोगों और छोटे कारोबारों के लिए. इससे वित्तीय रिकॉर्ड दुरुस्त रहता है जो औपचारिक वित्तीय तंत्र तक पहुंच को आसान बनाता है, जिसमें कर्ज भी शामिल है. इससे कर अनुपालन भी ज्यादा होता है और यह सुनिश्चित करता है कि बेईमान लोग अपने भुगतान से बच न सकें. इसीलिए मैं डिजिटल लेन-देन को लंबे समय में हमारी अर्थव्यवस्था की सफाई के एक औजार के रूप में देखता हूं.
मैं आपको एकाध वास्तविक उदाहरण देना चाहूंगा. एक बार यदि अनौपचारिक छोटे कारोबारी अपने नकदी प्रवाह का इलेक्ट्रॉनिक हिसाब-किताब रखने लगे, तो उन्हें कर्ज पाने में आसानी महसूस होगी. छोटा आकार होने से जुड़ी दिक्कतों से वे पार पा जाएंगे. इसी तरह डिजिटल भुगतान श्रमिकों की सुरक्षा करेगा क्योंकि इससे उनके वैधानिक लाभ सुनिश्चित होंगे, जो कि नकद भुगतान की सूरत में अक्सर नहीं चुकाए जाते हैं. इसीलिए विमुद्रीकरण कई लाभों को लाने वाला एक बड़ा सुधार है. इसके शुरुआती साक्ष्य काफी आश्वस्तकारी हैं. लोगों में डिजिटल लेन-देन का इस्तेमाल काफी तेजी से बढ़ा है. मिसाल के तौर पर रूपे कार्ड का इस्तेमाल इलेक्ट्रॉनिक स्तर पर और खुदरा स्तर पर क्रमशः 200 फीसदी से ज्यादा और करीब 500 फीसदी बढ़ा है—विनिमय की संख्या और मूल्य दोनों के मामले में.
कई लोगों को लगता है कि नेता और राजनैतिक दल भी काला धन पैदा करने के लिए जिम्मेदार हैं. राजनैतिक भ्रष्टाचार को कैसे जड़ से उखाड़ा जा सकेगा?
इस पर सावधानी बरतते हुए पहले मैं एक बात कहना चाहूंगा. भ्रष्टाचार से जुड़ी किसी भी बात को राजनीति पर लाकर पटक देने का फैशन खतरनाक जकड़बंदी है. ऐसा करने से आप ऐसे ही कृत्यों में लिप्त कई अन्य के लिए एक आवरण खड़ा कर देते हैं और वे बच निकलते हैं. इसका मतलब यह नहीं कि मैं राजनीति में भ्रष्टाचार को जायज मानता हूं. मैंने 8 नवंबर को ही कहा था कि काले धन और भ्रष्टाचार का रोग सरकार के हर हिस्से में काफी गहरे घुस चुका है, जिसमें राजनीति भी शामिल है.
राजनीति से काले धन को खत्म करने के लिए जरूरी है कि हम निर्णायक तरीके खोज निकालें. मैं लगातार इसकी अपील कर रहा हूं. मैंने संसद के पिछले सत्र से पहले इस बात पर जोर दिया था कि वक्त की मांग है कि राजनैतिक चंदे पर एक समग्र दृष्टि डालते हुए उसमें सुधार लाया जाए. मैंने इस बात पर भी लगातार चिंता जताई है कि कैसे एकाधिक चुनावों की हमारी प्रणाली न केवल राजनैतिक खर्च को बढ़ाती है बल्कि अर्थव्यवस्था को भी नुक्सान पहुंचाती है और इसका नतीजा यह होता है कि राष्ट्र लगातार चुनावों की चपेट में रहता है जिससे राजकाज का काम ठप पड़ा रहता है. हमें चुनाव के इस दुष्चक्र को तोडऩे के लिए नए तरीके से सोचने की जरूरत होगी. एक साथ विधानसभा और लोकसभा के चुनाव करवाने की संभावना को तलाशने की पहल के लिए मैं निर्वाचन आयोग का स्वागत करता हूं.
व्यापक स्तर पर देखें तो पिछले कुछ दिनों में हमने पाया है कि विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े लोगों के भीतर भ्रष्टाचार को लेकर कितना गुस्सा भरा हुआ था. आम आदमी अपनी तमाम निजी दिक्कतों के बावजूद मजबूती और संकल्प के साथ खड़ा रहा है. परोक्ष हितों वाले कुछ समूहों ने काले धन के खिलाफ इस जंग को नाकाम करने के लिए जैसी तरकीबें अपनाई हैं, लोग उसके खिलाफ भी तनकर खड़े रहे. हम सभी को, खासकर हमारे नेताओं और राजनैतिक दलों को जनता के इस असंतोष को समझना होगा और स्वीकार करना होगा. अब बाजी पलट रही है. जो लोग इसके साथ नहीं बदलेंगे और पुराने तरीकों से चिपटे रहेंगे, वे साफ हो जाएंगे.
अपने कार्यकाल को आप आधा पार कर चुके हैं. क्या आप अपनी तरक्की से संतुष्ट हैं? आप जैसा देश बनाने की दृष्टि लेकर काम कर रहे हैं, वह क्या है?
मैं मानता हूं कि भारत आज एक ऐतिहासिक बदलाव का साक्षी बन रहा है और एक विकसित देश तथा वैश्विक नेतृत्व के रूप में अपनी अंतर्निहित क्षमता को साकार करने के मोड़ पर खड़ा है. एक ऐसा भारत जहां का किसान सुखी हो, व्यापारी संपन्न, हर महिला सशक्त हो और युवा रोजगाररत हो. एक ऐसा भारत जहां हर परिवार के पास एक मकान हो और हर परिवार की पहुंच पानी, बिजली और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं तक हो. एक ऐसा भारत जो हर किस्म की गंदगी से मुक्त होकर एकदम स्वच्छ हो.
पिछले ढाई वर्षों के दौरान मेरी सरकार के कार्यक्रमों और प्राथमिकताओं का अगर कोई निष्पक्ष मूल्यांकन करेगा, तो एक चीज जो बिला शक उभर कर आएगी वो यह है कि इन सबके केंद्र में गरीब, वंचित और हाशिये के लोग मौजूद हैं. हमारी सारी पहले इन्हीं के जीवन में बदलाव लाने के हिसाब से निर्मित हैं. जमीनी स्तर पर हरेक आयाम में तरक्की साफ दिख रही है और सब उसे देख सकते हैं. मुझे भरोसा है कि अगर हम एक राष्ट्र के तौर पर ऐसा करने का संकल्प लें तो सब कुछ हासिल किया जा सकता है—यह संकल्प केवल सरकार का न हो बल्कि सवा अरब भारतीयों का हो. मैं इसीलिए एक ऐसे इंकलाब को चिनगारी देने के लिए केवल माहौल खड़ा करने में अपने दिलो-दिमाग को लगाए हुए हूं जो एक पीढ़ी के भीतर भारत को एक विकसित राष्ट्र में परिवर्तित कर सके. मुझे भरोसा है कि हमारा देश ऐसा कर सकता है और करेगा.
राज चेंगप्पा