वो कहीं भी बैठ जाते हैं, कहीं भी खा लेते हैं और कहीं भी खुले आसमान के नीचे चादर डालकर सो लेते हैं. कोई भी आकर उन्हें डांट जाता है, उन्हें बार-बार यकीन दिलाता है कि तुम सिर्फ मशीन की तरह काम करने के लिए पैदा हुए हो. तुम्हारा अपना कहने के लिए कुछ भी नहीं है तुम्हारे पास. मजदूर इसे ही कहते हैं ना!
पढ़ें मजदूरों पर लिखी गईं ये दो कविताएं:
1. थके मजदूर रह-रह कर जुगत ऐसी लगाते हैं (ओमप्रकाश यती)
थके मजदूर रह-रह कर जुगत ऐसी लगाते हैं
कभी खैनी बनाते हैं कभी बीड़ी लगाते हैं
जहां नदियों का पानी छूने लायक़ भी नहीं लगता
हमारी आस्था है हम वहाँ डुबकी लगाते हैं
ज़रूरतमंद को दो पल कभी देना नहीं चाहा
भले हम मन्दिरों में लाइनें लम्बी लगाते हैं
यहां पर कुर्सियां बाक़ायदा नीलाम होती हैं
चलो कुछ और बढ़कर बोलियां हम भी लगाते हैं
नहीं नफ़रत को फलने-फूलने से रोकता कोई
यहां तो प्रेम पर ही लोग पाबन्दी लगाते हैं.
2. वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है (अदम गोंडवी)
वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है
इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है
कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है
रोटी कितनी महंगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है.
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