मध्य प्रदेश में नदियों को जोड़ने की दो महत्वपूर्ण परियोजनाएं खटाई में

पड़ोसी राज्यों के ढुलमुल रवैए के कारण मध्य प्रदेश में चंबल-पार्वती-कालीसिंध और केन-बेतवा नदी लिंक की दो महत्वपूर्ण परियोजनाएं खटाई में.

Advertisement

समीर गर्ग

  • ,
  • 17 जून 2014,
  • अपडेटेड 1:38 PM IST

मालवा इलाके में पानी की कमी को दूर करने के लिए जब मध्य प्रदेश (एमपी) की शिवराज सरकार ने नर्मदा और क्षिप्रा नदी को जोडऩे की परियोजना को मूर्तरूप दिया तो प्रदेश की अन्य नदियों को जोडऩे वाली दो और परियोजनाओं, चंबल-पार्वती-कालीसिंध और केन-बेतवा के लिए उम्मीद फिर से जागी. पड़ोसी राज्य राजस्थान और उत्तर प्रदेश (यूपी) के उदासीन रवैए के चलते ये परियोजनाएं लंबे समय से फाइलों में दबी हैं. इसी का परिणाम है कि एमपी सहित दोनों राज्यों की करीब 8 लाख हेक्टेयर जमीन को सिंचाई और पीने के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा है.
केन-बेतवा लिंक परियोजना वाजपेयी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना थी. इसमें केन और बेतवा नदियों को जोडऩे के लिए 231 किमी लंबी नहर बनाई जानी थी, जो यूपी के झंसी के पास बेतवा नदी पर बने पारीछा वायर से एमपी के पन्ना में केन नदी के गंगू वायर को जोड़ती. यह लिंक बन जाता तो यूपी की 1.55 लाख हेक्टेयर और एमपी की 4.90 लाख हेक्टेयर जमीन को सिंचाई के लिए पानी मिलता. इसके अलावा 72 मेगावॉट बिजली भी पैदा की जा सकती थी. इस परियोजना के लिए करीब 8,650 हेक्टेयर जमीन चाहिए थी, जिसमें करीब 6,400 हेक्टेयर वन क्षेत्र था. इसमें से पन्ना टाइगर रिजर्व का 4,500 हेक्टेयर इलाका डूब क्षेत्र में आ रहा था. इसी वजह से पर्यावरणविदों ने परियोजना का विरोध शुरू कर दिया. परियोजना के लिए वन भूमि ली जाती तो बदले में इतनी ही जमीन सरकार को वन विभाग को देनी पड़ती. इस कारण यूपी सरकार ने भी हाथ खींच लिए. एमपी के जल संसाधन मंत्री जयंत मलैया कहते हैं, ‘‘यूपी सरकार ने जमीन देने में सहयोग नहीं किया.’’
चंबल-पार्वती-कालीसिंध लिंक परियोजना भी एमपी और राजस्थान में तालमेल नहीं होने के कारण आगे नहीं बढ़ पाई. इसमें पार्वती और कालीसिंध के सरप्लस पानी को 243 किमी लंबी नहर बनाकर चंबल नदी पर बने गांधी सागर या राणा सागर बांध में डाला जाता. इससे दोनों प्रदेशों के करीब 2.25 लाख हेक्टेयर इलाके में सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी मिलता. दरअसल चंबल नदी के पानी के बंटवारे को लेकर राजस्थान और एमपी में चार दशक से रार ठनी है. एमपी के जल संसाधन विभाग के मुख्य अभियंता एन.पी. कोरी कहते हैं, ‘‘नदी लिंक परियोजना के लिए दोनों राज्यों को विवाद खत्म करना होगा.’’
नदी लिंक परियोजनाओं से राज्य सरकारों के पीछे हटने की बड़ी वजह धन की कमी है. चंबल लिंक के लिए दस साल में 3,000 करोड़ रु. खर्च होने का अनुमान था. अब यह आंकड़ा 30,000 करोड़ रु. हो चुका है. इसी तरह केन-बेतवा लिंक की अनुमानित लागत 20,000 करोड़ रु. पहुंच चुकी है. शुरुआती लागत 1,900 करोड़ रु. थी. नदी लिंक के परिचालन के लिए भी धन की जरूरत होती है. नर्मदा-क्षिप्रा लिंक को चालू रखने के लिए एमपी सरकार को विश्व बैंक से कर्ज तक मांगना पड़ा है.
पर्यावरण संरक्षण और विस्थापन से जुड़े कई मसले भी लिंक परियोजनाओं की राह में रोड़े हैं. चंबल लिंक में 17,000 हेक्टेयर जमीन प्रभावित होती और 65 गांवों के 27,055 लोगों को विस्थापित करना पड़ता. जबकि केन-बेतवा में पन्ना टाइगर रिजर्व की 4,500 हेक्टेयर जमीन डूब में आती और दस गांव के 8,500 लोगों को विस्थापित करना पड़ता. पर्यावरणविद डॉ. राजीव चौहान के मुताबिक नदी लिंक योजना से जैव विविधता भी प्रभावित होती है. चंबल और यमुना नदी का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं, ‘‘यह लिंक प्राकृतिक है, लेकिन यमुना का दूषित पानी चंबल में आने से इस नदी के घडिय़ालों को नुकसान पहुंचा है.’’ चौहान के मुताबिक भिन्न नदियों के पानी की प्रकृति भी भिन्न होती है. उनका मेल होने पर पर्यावरण संबंधी परेशानियां बढ़ती हैं.
सीएम शिवराज सिंह चौहान ने केंद्रीय जल संसाधन विभाग से भी नर्मदा लिंक को विस्तार देने वाली नर्मदा-मालवा लिंक परियोजना के लिए 26,000 करोड़ रु. मांगे हैं. परियोजना का परिचालन और विस्तार बेहद महंगा होने से ऐसी अन्य परियोजनाओं को लेकर राज्य सरकार के हौसले पस्त होना लाजमी है.

Read more!
Advertisement

RECOMMENDED

Advertisement