मित्रों,
नमस्कार! इन पुरस्कार-लौटाऊ लेखकों के बारे में लोगों का कहना है कि एक तो ये लोग आपस में ही पुरस्कार बांट-बंटा लेते थे और दूसरे पाठकों की छोड़िए, खुद इन्हें भी याद नहीं था कि ये लेखक-वेखक हैं.
नए पाठकों ने अपने नए लेखक ढूंढ़ लिए हैं और इसमें किसी साहित्य अकादमी का कोई रोल रह नहीं गया है. इंटरनेट, मोबाइल, सोशल मीडिया ने अकादमियों, टीवी, अखबार आदि को बहुत पीछे धकेल दिया है.
अकेले अमीश त्रिपाठी के 'शिवा त्रयी' (मेलूहा के मृत्युंजय, नागाओं के रहस्य, वायुपुत्रों की शपथ) की मूल अंग्रेजी और हिन्दी अनुवादों की जितनी बिक्री हुई है, उतनी पिछली दस वर्षों में भी इन 25-30 पुरस्कार-लौटाऊ लेखकों की किताबें नहीं बिकीं. मतलब साफ है कोई ये भक्त कवियों तुलसी-कबीर-मीरा-सूर-नानक-रैदास की तरह जनता के कवि या लेखक तो हैं नहीं.
ये सब हैं मन और आमतौर पर अपने लेखन से दरबारी जो किसी पार्टी लाइन पर किसी नेहरू-गांधी के लिए, उनकी प्रशंसा में या उनके बताए लीक पर कलम घिसने वाले, जिन्हें पाठकों की भावना से कोई मतलब नहीं. हिंदी में बिहारी ऐसे ही कवि थे, देश डूब रहा था और वे 'नायिका भेद' लिखने में मस्त थे.
बात भी सही है, 'सैयां भये कोतवाल, अब डर काहे का' जिसका मूलमंत्र हो, वो पाठकों की रुचियों पर अपना टाइम क्यों खराब करेगा? लेकिन इंटरनेट-मोबाइल ने सब गुड़-गोबर कर दिया है. इनका जो मजबूर पाठक वर्ग था वो इनके हाथ से फुर्र हो गया है. अब ये करें तो क्या करें, जाए तो जाएं कहां?
तो पुरस्कार लौटाकर ये दुनिया को बताना चाहते हैं कि देखो, मैं लेखक हूं क्योंकि मुझे पुरस्कार मिला था! ये नहीं कि देखो मैंने कैसे-कैसे क्या लिखा! इनसे ज्यादा इन पुरस्कारों की अहमियत कौन जानता होगा? क्योंकि ये पुरस्कार ज्यादातर इन्हें लेखन की गुणवत्ता के लिए नहीं मिले थे, बल्कि मिले थे किसी संगठन, विचारधारा या पार्टी के प्रति अंधभक्ति के लिए.
कुछ अपवादों को छोड़कर इनमें से अधिकतर की आजीविका लेखन से नहीं, किसी और धंधे से चलती है. तो हो जाए एक सर्वे इन पुरस्कार-लौटाऊ लेखकों की आजीविका पर? साथ ही यह भी कि अंतिम बड़ी महत्वपूर्ण किताब आपने कब लिखी? लाइब्रेरी को छोड़, आपकी किताबें कितनी बिकीं और पढ़ी गईं? कितने दलित-पिछड़े समूहों के लेखकों को आपने पुरस्कार दिए?
इन सब प्रक्रिया में इस बात का ध्यान आवश्य रखें कि साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्था है और इसका अध्यक्ष लेखक खुद ही निर्वाचित करते हैं.
(डॉ. चंद्रकांत प्रसाद सिंह के ब्लॉग से साभार. इसमें व्यक्त किए गए विचार से इंडिया टुडे ग्रुप का कोई संबंध नहीं है.)
स्वपनल सोनल