फैशन: उस्तादों की नई जमात का जादू

स्थानीयता में जड़ें जमाए वैश्विक भाषा में खुद को अभिव्यक्त कर रहे नए डिजाइनरों की जमात अपनी विरासत के बल पर दुनिया को बना रही दीवाना. अनजान गांवों और छोटे कस्बों से आने वाले ये डिजाइनर दुनिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थानों में दुर्लभ ऊंचाइयां हासिल कर चुके हैं.

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अर्जुन सलूजा अर्जुन सलूजा

चिंकी सिन्हा

  • नई दिल्ली,
  • 24 अक्टूबर 2016,
  • अपडेटेड 6:02 PM IST

डिजाइन को समझाने के लिए अगर आप टेलिपोर्टेशन शब्द का इस्तेमाल करें, तो हाल में दिल्ली में अमेजन इंडिया फैशन वीक में गौरव जय गुप्ता के शो का सटीक विवरण दे पाएंगे. उनके बनाए परिधान पहनकर जब रैम्प पर मॉडलों की लहर उभरी, तो उसे दिखाने के लिए गुप्ता ने आइसलैंड की शैली वाले कलर पैलेट का इस्तेमाल किया—बर्फीले हरे, तीखे नीले और टिमटिमाते धूसर रंगों का एक सम्मिश्रण. इसकी पृष्ठभूमि में दमक रही स्वर्णिम और इस्पाती चांदी की आभा उनकी रचनात्मकता के दुस्साहस का उदाहरण थी. मद्धिम-सी हरी छायाएं कमजोरियों की निशानी थीं तो कांस्य और सोने की किरचियां मौन शक्ति का आभास देती थीं.

गुप्ता उन नई पीढ़ी के डिजाइनरों में एक हैं जिन्हें मेड-इन-इंडिया डिजाइनों को वैश्विक मंचों पर ले जाने में कोई संकोच नहीं होता. इनके काम में मनीष अरोड़ा वाला भड़कीलापन नहीं है जिसके सहारे पेरिस के फैशन राजमार्ग पर पहुंचने वाले वे पहले भारतीय हुए थे, बल्कि यह एक महीन फुसफुसाहट जैसी चीज हैं जिसकी अनुगूंज भारतीय चंदेरी और जरी जैसे हस्तशिल्प में सुनाई देती है जबकि उसकी छाया अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रनवे रेडी कट में झलकती है. फैशन वीक में ऐसे नए उस्तादों का खुद पर भरोसा देखते ही बनता थाः चाहे राहुल मिश्रा का मद्धिम फैशन हो जहां हर परिधान एक कहानी सुनाता है, सामंत चौहान का नए सांचे में गढ़ा भागलपुरी सिल्क हो, परंपरागत कढ़ाई को चतुराई से बरतने की अनीत अरोड़ा की कला हो या गौरव जय गुप्ता के नए दौर के कपड़े, जिसमें सिल्क को स्टील और तांबे के साथ बुना गया है.

अनजान गांवों और छोटे कस्बों से आने वाले ये डिजाइनर दुनिया के सर्वाधिक प्रतिष्ठित स्थानों में दुर्लभ ऊंचाइयां हासिल कर चुके हैं. ये बने-बनाए अंदाज को चुनौती दे रहे हैं और दर्शकों को नए सौंदर्यशास्त्र से चैंका रहे हैं जो पारंपरिक कपड़ों में अनोखी कारीगरी, नए दौर की कटाई-छंटाई और फैब्रिक के तकनीकी अपग्रेड से पैदा होता है. भारतीय फैशन का यह नया आख्यान आधुनिक डिजाइन और सदियों पुरानी विरासत की दो नावों पर सवार है जो भारतीय फैशन की नई पहचान गढ़ रही एक पीढ़ी की गवाही दे रहा है. अब वैकल्पिक या कहें अवां गार्द ही नई मुख्यधारा है.

फैशन वीक में गुप्ता के कलेक्शन में सिलुएट बिल्कुल साफ-सुथरे और न्यूनतम थे, कटाई तीखी और कसीदाकारी किया हुआ कपड़ा बिल्कुल ऐसा लगता था जैसे किसी ने उसे अब तक छुआ न हो. सीजन के इस सबसे सशक्त कलेक्शन में 37 अलग-अलग परिधानों का प्रदर्शन किया गया. ग्रामीण हस्तशिल्पकारों के बुने प्रायोगिक फैब्रिक से तैयार गुप्ता का काम फैशन की नई भावना को रेखांकित करता हैः इसकी जड़ें लोकल हैं लेकिन भाषा ग्लोबल!

अमेरिका के मिनेसोटा स्थित सेंट कैथरीन यूनिवर्सिटी में अपैरेल, मर्चेंडाइजिंग और डिजाइन की एसोसिएट प्रोफेसर अनुपमा पसरीचा कहती हैं, ''भारतीय शिल्पकला की विरासत और वैश्विक उपभोक्ताओं के लिए डिजाइन निर्मित करने के मामले में राहुल मिश्रा, गौरव जय गुप्ता और सुकेत धीर अलग खड़े नजर आते हैं. उन्होंने अपनी ओर अंतरराष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है. इनके डिजाइन समकालीन और अद्भुत हैं जिनका कलर पैलेट ग्लोबल है."

इस नए काम की अपील इतनी ज्यादा है कि सुकेत धीर और राहुल मिश्रा ने क्रमशः 2016 और 2014 में अपने मेंसवियर और विमेंसवियर कलेक्शन के लिए इंटरनेशनल वूलमार्क पुरस्कार जीत लिया था.

इस पुरस्कार ने मिश्रा को उत्तर प्रदेश के मल्हौसी से इस साल पेरिस फैशन वीक के एक प्रतिष्ठित स्लॉट तक पहुंचा दिया था जब उनका काम हर्मेस और म्यु म्यु के शो के बीच प्रदर्शित किया गया. फैशन पत्रिका वोग में प्रतिष्ठित फैशन लेखिका सुजी मेंकेस ने उन्हें राष्ट्रीय थाती बताया था और आधुनिक परिधानों को नया आयाम देने में हाथ से बने कपड़े के उनके इस्तेमाल की सराहना की थी. उन्होंने लिखा था, ''हैंडवर्क से बने 3डी सरफेस की अवधारणा वाकई मौलिक है."

पेरिस फैशन वीक का हिस्सा रहा हाथ की कढ़ाई वाला कलेक्शन पश्चिम बंगाल के बोंदपुर में तैयार किया गया था जहां मिश्रा उन झुग्गीवासियों के लिए घर-वापसी नाम का कार्यक्रम चलाते हैं जो रोजगार की तलाश में मजबूरन मुंबई पलायन कर गए हैं. इस योजना के तहत इस डिजाइनर ने धारावी की झुग्गियों में पहले रह चुके लोगों को साल भर रोजगार का वादा किया है ताकि वे अपने गांवों में ही रुक सकें. अब तक वे 200 शिल्पकारों को रोक पाने में कामयाब रहे हैं. ये लोग आरी, कांठा और जरदोजी का काम करते हैं.

मिश्रा 700-800 लोगों के साथ काम करते हैं और दुनिया की तमाम बड़ी दुकानों को अपना माल भेजते हैं, जिनमें कोपनहेगन और जापान की दुकानें भी शामिल हैं. कपड़े को केरल में तैयार किया जाता है, इकत ओडिशा में होती है और पोचमपल्ली आंध्र प्रदेश से मंगाई जाती है. उनके काम ने दुनिया के सामने एक विशिष्ट भारतीय सौंदर्यशास्त्र को रखा है जो भड़कीली और अतिधनाढ्य शादियों तथा सितारों से भरी बॉलीवुड संगीत की शामों में सामने आने वाले नजारों से बिल्कुल अलहदा है. दुनिया भर में उनके छह स्टोर हैं और 45 स्टोर में उनका माल रीटेल में बिकता है.

यह काम आसान नहीं था. जब उन्होंने 2006 में शुरुआत की थी, तो उस दौर को ''एज ऑफ  ब्लिंग" का उत्कर्ष कहा जा रहा था और वैसे में हैंडलूम और हस्तशिल्प से जुड़े रहना काफी साहस और धैर्य की मांग करता था. उन्होंने कपड़ों को इस तरह से ढाला कि वे अंतरराष्ट्रीय संवेदनाओं से तो जुड़ते दिखे लेकिन उनके भीतर की अनिवार्य भारतीयता भी बनी रहे. ऊन और चंदेरी का उनका मिश्रण जिस पर ट्री ऑफ लाइफ  की कढ़ाई सजी है, इंटरनेशनल वूलमार्क कलेक्शन के लिए तैयार किया गया था जिसने उन्हें बाकी से अलग पहचान दिलाई. मिश्रा कहते हैं कि उनके कपड़े सिर्फ फैशन का पर्याय नहीं हैं, बल्कि उनमें भावनाएं भी हैं. विज्ञान के विद्यार्थी रह चुके मिश्रा कहते हैं कि वे कालातीत होने की अहमियत को समझते हैं. उनका फलसफा बहुत सरल है- हस्तशिल्प को अगले चरण तक ले जाना, रूढ़ बंधनों से उसे आजाद करना, सिलुएट से कलाकारी करना और मेड इन इंडिया लग्जरी लेबल को तैयार करना. वे कहते हैं, ''मैं चाहता हूं कि बुनकारों को फायदा हो. मैं सिर्फ एक उत्पाद नहीं, डिजाइन प्रणाली विकसित करना चाहता हूं. मैं अब दुनिया के लिए तैयार हूं." वे मानते हैं कि फैशन के बारे में इससे ज्यादा प्रोत्साहित करने वाली बात कुछ नहीं हो सकती कि यह ऐसी नई पारिस्थितिकी विकसित करने में सक्षम हो जाए जिसमें बुनकरों को वैश्विक मंचों का लाभ मिले और अपने श्रम का सक्वमान हासिल हो. भारत में हथकरघा में लगे करीब 3.4 करोड़ लोगों के होते यह ऐसी बात है जिसका बेशक स्वागत होना चाहिए.

फैशन की दुनिया पर लंबे समय से निगाह रखे रमेश मेनन, जो फैशन डिजाइन काउंसिल ऑफ इंडिया के परामर्शदाता भी हैं, इसे कपड़े का पुनरुत्थान जैसी कोई चीज मानने से हिचकते हैं. उसके बजाए इसे वे एक ''हस्तक्षेप" कहना पसंद करते हैं. वे कहते हैं, ''स्थानीय स्वीकार्यता की जरूरत होती है. जापानी जब यूरोप के बाजारों को कब्जाने निकले, तो वे मजबूत पहचान के साथ लहर की तरह पहुंचे. पेरिस में मनीष अरोड़ा और राहुल मिश्रा की पहचान है पर भारतीय डिजाइन के मामले में दोनों दो विपरीत ध्रुवों पर हैं. भारतीय अंतरराष्ट्रीय फैशन का वक्त अभी नहीं आया है."

यह बात अलग है कि नए डिजाइनर वहां पहुंच रहे हैं और भड़कीले और भोंडे नीले-गुलाबी परिधानों की अवधारणा को चुनौती देकर उसे बिखेरने का काम कर रहे हैं. बाजार के लिए बनाए जाने वाले बीस किलो के लहंगे और स्टेटमेंट साडिय़ां एक ऐसे नव उपभोक्ता वर्ग की जरूरत को पूरा करने के लिए थे जो इन्हें पहनने को अपनी शख्सियत से जोड़कर देखते थे. अब नया सौंदर्यशास्त्र पर्याप्त शांत और विनम्र है, कलर पैलेट पर कुदरती रंग हैं और उसका फैब्रिक हमारी विरासत की देन है. इसके बदले प्रशंसा भी मिल रही है, जिनके सबसे ताजा पात्र दिल्ली के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ  फैशन टेक्नोलॉजी से पढ़े धीर हैं. फ्लोरेंस के पिट्टी उओमो में आयोजित दुनिया के सबसे अग्रणी मेंसवियर व्यापार मेले में वूलमार्क पुरस्कार समारोह के दौरान जब मॉडलों ने अपनी जैकेट उतारी, तो लाइनिंग पर की गई कढ़ाई को देखकर जजों को पुराने दिन याद आ गए और उनकी आह निकल गई. ढीले पलाजरो पैंट और लंबे जैकेट के सिलुएट उनके दादा देस राज धीर की स्टाइल से प्रेरित थे. भीतर तोते, आम के पेड़ और छातों के मोटिफ  थे-ये छवियां कपड़ा व्यापारी दादा के साथ बिताई गर्मी की छुट्टियों की स्मृतियों से धीर के काम में अभिव्यक्त हुई थीं. इनका पैलेट नीले और पीले की छवियों का एक कंट्रास्ट था. धीर का काम देखकर दुनिया भर से आई फैशन की ताकतवर हस्तियों ने नए सौंदर्यबोध में आ रहे बदलाव को स्वीकार कर लिया. पीले रंग की छवियों ने भ्रम का अंत कर दिया.

डिजाइनरों की इस नई खेप की कामयाबी उनकी मौलिकता में है. पंजाब में पले-बढ़े धीर (36 वर्ष) कहते हैं कि पुराने दिनों की स्मृतियों ने ही उन्हें अंतरराष्ट्रीय मंच का रास्ता दिखाया. मिश्रा की ही तरह उन्होंने अपने तैयार किए कपड़ों पर कढ़ाई का उपयोग किया, जिसमें ऊन भी शामिल थी जो हल्का होने की वजह से गर्मियों में भी पहनी जा सकती है. वे बुनकरों के साथ एक रिश्ता कायम करने में यकीन करते हैं. वे कहते हैं, ''सजातीय और पारंपरिक में एक फर्क होता है. सारा मामला यह है कि आप कितने सुघड़ हो सकते हैं." उन्होंने ढीले सिलुएट के साथ यथास्थिति को चुनौती दी. वे इसे ''चिपके रहने वाले चुस्त कपड़ों के खिलाफ एक बगावत" मानते हैं. वे सूत, लिनन, बांस, महीन मलमल और सिल्क के ब्लेंड का इस्तेमाल करते हैं.

और ये कुछ अलग
तैयार नहीं, सिले हुए कपड़े  
दूसरी ओर अर्जुन सलूजा के काम में ऐसा कुछ भी महीन नहीं है. अनुभव का खुरदरापन, पेंट के छींटे, टूटी हुई आकृतियां, धूल-मिट्टी उनके परिधानों में झलकती है, जो उत्तर प्रदेश के बरेली से न्यूयॉर्क और फिर दिल्ली तक तय किए उनके सफर का दृश्य-दस्तावेज हैं. एक ऐसे देश में जहां कपड़े अब भी अपनी जरूरत के हिसाब से सिलवाए जाते हों और चमकदार रंगों को तरजीह दी जाती हो, सलूजा के बनाए उभयलिंगी (स्त्री-पुरुष दोनों के लिए) और बहावदार ड्रेप उन्हें अलग पहचान देते हैं.

वे कहते हैं, ''हमारा जोर वास्तव में सिलाई पर है. यह हमारी देसी परंपरा का हिस्सा है. हमने टसर कॉटन के लिए ओडिशा के बुनकरों के साथ काम किया है, साडिय़ों की बुनाई पर काम किया है और हमने एक फैब्रिक तैयार किया. हमने इसी क्षेत्र में हाथ डाला है. हम इन कपड़ों को डिजाइन की अपनी सोच में ढालने की कोशिश कर रहे हैं और वजन के साथ प्रयोग कर रहे हैं, क्योंकि हमारे काम में स्ट्रक्चर और ड्रेप का केंद्रीय महत्व है." वे कहते हैं कि फैशन एक किस्म की अभिव्यक्ति है और यह निजता तैयार करता है. फैशन एक नजरिया है और यह देखने-समझने जैसा है.

अपने शार्प कट और बोल्ड स्ट्रक्चर के लिए चर्चित सलूजा कहते हैं कि पैटर्न कटिंग अहम है क्योंकि शरीर एक त्रिआयामी संरचना है जबकि कपड़ा द्विआयामी होता है. इसीलिए पैटर्न निर्माण के वक्त अनुपात और संरचनाओं को समझना बहुत जरूरी होता है.

दूसरों से उलट सलूजा ने कभी भी न तो महिलाओं और न ही पुरुषों को ''यौनाकर्षक" बनाने में विश्वास किया. वे कहते हैं कि उनका काम यौनिकता पर नहीं, ऐंद्रिकता पर केंद्रित है. वे शुरुआत में रंगमंच के कलाकार बनना चाहते थे. उनके डिजाइन में नाटकीयता यहीं से आती है. पैट्रीशिया फील्ड्स के सैलन में काम करने के दौरान उन्हें उभयलिंगी परिधानों का विचार आया. इस काम के दौरान उन्होंने टीवी शृंखला सेक्स ऐंड द सिटी के लिए डिजाइन किया था जिसमें फील्ड्स मुख्य किरदार कैरी ब्रैडशॉ की स्टाइलिस्ट थीं. अपने करियर के आरंभ वे ही अपना लेबल रिश्ता भारत में लॉन्च करने से पहले न्यूयॉर्क ले गए. ऐसा उन्होंने इसलिए किया ताकि भारतीय सिलुएट को अलंकरणों और सर्फेस ऑर्नामेनटेशन के बरक्स रखकर दिखा सकें—साथ ही भारतीय कट का भी मुजाहिरा कर सकें. सलूजा का सारा हुनर यही है. जापान में उनका लेबल हेनरी बेन्डेल में बिकता था और न्यूयॉर्क में प्रतिष्ठित स्टोर बार्नीज तथा एंथ्रोपॉलॉजी में मिलता था. वे कहते हैं, ''कुछ इस तरह हमने शुरुआत की. मैं 9/11 की घटना के बाद भारत वापस आ गया और अपना लेबल यहां ले आया."

भारत की खासियत उसके टेक्सटाइल में है और इन डिजाइनरों ने कपड़े के इतिहास को खोदकर निकाल लाने का फैसला कर डाला है, जिसमें वे थोड़ी-बहुत तकनीक की मदद ले रहे हैं. निफ्ट से प्रशिक्षित निटवियर डिजाइनर सामंत चौहान बिहार के एक छोटे से गांव धरहरा से हैं और बिनाई के बारे में सब कुछ जानते हैं, खासकर जब वह भागलपुरी सिल्क हो. वे कहते हैं, ''इस फैब्रिक में कुदरती एहसास होता है और देखने में यह शानदार और कच्चे सिल्क जैसा अभिजात्य लगता है."

भारत के फैशन उद्योग को दुनिया भर में प्रतिस्पर्धी बनने के लिए कुछ कड़े फैसले लेने होंगे. उनमें एक सवाल साइजिंग यानी नाप का है. मेनन कहते हैं, ''हमने अब तक भारत की कोई नाप प्रणाली तैयार नहीं की है. कपड़ा मंत्रालय ने एक परियोजना शुरू की थी लेकिन अब तक कुछ भी सामने नहीं आया है." दूसरा सवाल सोशल ऑडिट का है, जिसे सैक्स फिफ्थ एवेन्यू जैसे अंतरराष्ट्रीय रीटेलर अंजाम देते हैं जो यहां बुनकरों की संख्या, उनके श्रम की स्थितियों, काम के घंटों और भत्तों का परीक्षण करते हैं. तीसरे, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैशन के साल में चार सीजन होते हैं जबकि भारत में साल भर में तीन कलेक्शन निकाल पाना मुश्किल है. आखिरी सवाल स्केल यानी आकार का है. हाइ-एंड फैशन के मामले में घरेलू रीटेल कारोबार अब भी शैशव अवस्था में है. भारत में डिजाइनर वियर उद्योग 1,000 करोड़ रु. का है जो वैश्विक बाजार का छोटा हिस्सा है. मेनन बताते हैं कि मल्टीब्रांड ढांचा स्थापित करने में अब तक सबसे कामयाब अनीता डोंगरे रही हैं जिनके 700 बिक्री केंद्र हैं, 185 एक्सक्लूसिव ब्रांड स्टोर हैं और 600 मल्टीब्रांड लार्ज फॉर्मेट स्टोर 84 शहरों में हैं. इनके करीब और कोई नहीं पहुंच सका है, भले ही सब्यसाची और मनीष मल्होत्रा सौ-सौ करोड़ रु. का कारोबार करते हों.

इसके बावजूद फैशन समुदाय फैल रहा है. देश में अनुमान के हिसाब से 700-800 डिजाइन हैं. हर साल फैशन स्कूलों से 40,000 से ज्यादा छात्र ग्रेजुएट होते हैं. यहां से निकल रही नई शैलियों और नए फैब्रिक ने दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है.

अतीत की छाया
पुराने शिल्प और कपड़ों का पुनर्जन्म
यही वजह है कि बैकएंड प्रदाता के रूप में काम करते रहे कुछ डिजाइनर अब अपनी शर्तों पर अपने लेबल लेकर आ रहे हैं. इसका एक उदाहरण पल्लवी मोहन हैं, जो गुवाहाटी में पली-बढ़ीं और उस इलाके के चाय बागानों में जिन्होंने काफी वक्त गुजारा. उन्होंने हैंड एप्लीक और पैचवर्क के काम से अपना लेबल ईजाद किया है जिसका नाम है ''नॉट सो सीरियस", जो भारत में वाणिज्यिक स्तर पर सर्वाधिक चालू ब्रांड में एक है. लंदन के चेल्सिया कॉलेज ऑफ आर्ट्स में पढ़ीं मोहन को खूबसूरत सर्फेस ऑर्नामेन्टेशन के लिए जाना जाता है, जिसकी जड़ें उनके बचपन की स्मृतियों में हैं. उन्हें फूल पसंद हैं. मोहन ने अपना पहला शो 2008 में किया था. वे बताती हैं निर्यात क्षेत्र में शुरुआती नौकरी करते हुए वे न्यूयॉर्क और पेरिस के बड़े डिजाइनरों की ओर हसरत से देखती थीं और सोचती थीं कि क्या उन्हें इनके बीच कभी जगह मिल पाएगी. आजकल वे चीन के बाजार में अपना लेबल ले जाने के लिए बात चला रही हैं. वे कहती हैं, ''मैं सदाबहार कपड़े तैयार करना चाहती हूं. मैं चाहती हूं कि हेयरलूम के कपड़ों जैसे तैयार करूं जिसे हमेशा संजोकर रखा जाए."

ऐसी ही एक डिजाइनर रिमजिम दादू हैं जिनका कपड़ों के साथ किया हुआ इंकलाबी काम तब सुर्खियों में आया जब इस साल मई में कान फिल्म महोत्सव के रेड कार्पेट समारोह में सोनम कपूर उनकी बनाई ड्रेस पहनकर पहुंची थीं. वह ''बहुत मेहनत से बुनी गई" साड़ी थी. पूरी दुनिया से उनके काम को उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली.

नए डिजाइनर अपरिचित क्षेत्रों में उतरने से डरते नहीं हैं. फाइन फैब्रिक्स और स्मार्ट कट के प्रणेता अब्राहम और ठाकोर के डेविड अब्राहम कहते हैं कि इकत, जमदानी और माहेश्वरी बुनकरों के साथ काम करके और हर सीजन में नए डिजाइन तैयार कर के आज के डिजाइनर फैशन की परिभाषा को ही बदलने में जुटे हैं.

इस काम में वे अकेले नहीं हैं. नई कपड़ा मंत्री स्मृति ईरानी ने भी पारंपरिक कपड़ों के पुनरुत्थान में एक भूमिका निभाई है. मंत्री ने अगस्त में सोशल मीडिया पर एक अभियान शुरू किया जिसका लक्ष्य हथकरघा उद्योग को प्रोत्साहन देना था. इस अभियान का समापन 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथरकघा दिवस पर उनके बनारस दौरे से हुआ जो लाखों बुनकरों का शहर है. यह इस दिशा में केंद्र सरकार के प्रयासों का ही विस्तार थाः इस साल जून में केंद्र ने टेक्सटाइल और अपैरल उद्योग के लिए 6,000 करोड़ रु. के पैकेज की घोषणा की थी जिसका घोषित उद्देश्य एक करोड़ नए रोजगारों का सृजन था.

जड़ों की ओर
हथकरघा का साथ
भारत में कपड़े की संभावनाओं का अब तक पर्याप्त दोहन नहीं हुआ है. इसके लिए प्रतिबद्धता की जरूरत होती है, भीतरी इलाकों में जाना पड़ता है ताकि बुनकारी और मोटिफ में हो रहे बदलावों को समझा जा सके. मध्य प्रदेश के महेश्वर में 1979 से ही बुनकरों के बीच काम कर रहे अलाभकारी संगठन रेहवा सोसायटी की सह-संस्थापक सैली होलकर कहती हैं कि टिकाऊ फैशन के लिए हैंडलूम का साथ देना जरूरी है.
फैशन की विद्वान और मानव शास्त्री फिलिडा जे कहती हैं कि परंपरागत बुनकरी और शिल्प की भूमिका कई भारतीय डिजाइनरों के काम के केंद्र में है और उनकी पहचान को बनाती है. वे कहती हैं, ''इसका मतलब यह हुआ कि फैशन जगत में संवाद के दौरान अनिवार्य रूप से नैतिकता और शिल्पकारों की आजीविका का सवाल लगातार उठता रहता है. यह कई चुनौतीपूर्ण सवालों को जन्म देता है लेकिन भारतीय डिजानरों के लिए अद्भुत अवसर भी मुहैया कराता है कि वे खुद को ग्लोबल लीडर के रूप में अलग से स्थापित कर सकें." देखते ही खरीद लेने के चलन वाले फटाफट फैशन के इस दौर में संभव है कि ये डिजाइनर फैशन जगत में हस्तशिल्प की बहाली के संदर्भ में एक व्यापक संवाद का हिस्सा हों. वे इससे भी आश्वस्त हैं कि वे असाधारण हैं, साहसिक हैं और इन्हें रोकना मुमकिन नहीं.

(—साथ में सृष्टि झा)

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