नेट न्यूट्रेलिटी: यह किसका इंटरनेट है?

वर्ल्ड वाइड वेब को हिस्सों में बांटने के टेलीकॉम कंपनियों के कदम के बाद गेंद अब सरकार के पाले में.

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कुणाल प्रधान

  • नई दिल्ली,
  • 01 जून 2015,
  • अपडेटेड 5:46 PM IST

"सूचना नया सोना है. सूचना ही नया तेल है. जिस किसी का भी सूचना पर नियंत्रण है, उसका महान संपदा और ताकत पर नियंत्रण है."
किल्सविचः द बैटल टू कंट्रोल द इंटरनेट (2015), निर्देशकः अली अकबरजादा


एक सिद्धांत के तौर पर तटस्थता का आशय यह है कि किसी टकराव के समय किसी एक का पक्ष लेने की प्रवृत्ति न रहे. यह उदासीनता, अज्ञानता या बेपरवाही से अलग है. इसका मतलब सहिष्णुता से है, भले ही कोई अवधारणा कितनी भी असामान्य, अरुचिकर या निंदनीय क्यों न हो. तटस्थता के इसी भाव ने इंटरनेट को एक महान लोकतंत्रकारी बनाया है. भूमंडल के भीतर एक ऐसा भूमंडल जिसमें विचारों की गहरी उथल-पुथल चलती रहती है, असीमित संभावनाएं जन्म लेती रहती हैं और सबके लिए बराबरी का मैदान मिलता है—चाहे वह सिलिकॉन वैली में बैठा कोई मीडिया घराना हो या भारत के किसी छोटे शहर में कोई छोटा-सा स्टार्ट-अप.

नेट न्यूट्रेलिटी (तटस्थता) के इस सिद्धांत पर छिड़ी बहस तकनीकी समुदाय से इतर भी बड़ी तादाद में लोगों को प्रभावित कर रही है कि इंटरनेट सभी के लिए खुला और स्वतंत्र होना चाहिए, और उसमें प्रवाहित हो रही सूचनाओं की बराबर की अहमियत होनी चाहिए, भले ही उसे कोई भी तैयार कर रहा हो. एकबारगी हम "गेटकीपर", "डाटा पैकेट" और "नेटवर्क आर्किटेक्चर" जैसे शब्दजाल से परे जाकर देखें तो हम महसूस करेंगे कि दो बुनियादी सवाल बेहद सरल से हैं—इंटरनेट पर स्वामित्व किसका है—टेलीकॉम कंपनियों का जो केबल बिछाती हैं और उन तक पहुंच सुनिश्चित करती हैं, या उन उपभोक्ताओं का जो उन्हें ऐप्लिकेशन, डाटा और सूचनाओं से भरते हैं? और यह भी कि इंटरनेट की प्राथमिक भूमिका क्या है—वह क्या सिर्फ विभिन्न प्रकार के बिल भरने, टीवी शो देखने या दोस्तों से संपर्क में रहने के लिए है या फिर हर पल उन विचारों, राय और नई खोजों पर निरंतर बहस के लिए है जो हमारी आज की दुनिया और आने वाले कल, दोनों को फिर से परिभाषित कर सकती है.

हालांकि नेट न्यूट्रेलिटी की यह बहस भारत के मामले में भी लगभग एक दशक पुरानी है, लेकिन इसके कई पेचोखम पिछले कुछ हफ्तों के दौरान खासे मुखर हुए हैं और आगे जाकर वे और पुख्ता स्वरूप लेने वाले हैं जब सरकार इस पर स्पष्ट नीति बनाने को तैयार होगी. समस्या की जड़ में उन टेलीकॉम कंपनियों की यह कोशिश है, जो ब्रॉडबैंड या मोबाइल, फोनों के जरिए सेवा प्रदाताओं की दोहरी भूमिका में हैं कि वे कुछ वेबसाइट और ऐप्लिकेशन के साथ साझीदारी करके उन्हें खास अहमियत दे सकें. अब यह अहमियत उन्हें विशिष्ट "जीरो रेटिंग" का हिस्सा बनाकर भी हो सकती है जिसमें उन पर कोई डाटा शुल्क लागू नहीं होगा या फिर उनके उत्पादों के लिए तेज ब्राउजिंग स्पीड के रूप में भी हो सकती है. जाहिर है, इससे उपभोक्ता इन कंपनियों के उत्पादों पर जाने के लिए ज्यादा प्रेरित होंगे, बजाए छोटी कंपनियों के तैयार किए गए नए उत्पादों के. उदाहरण के तौर पर भारत में एयरटेल ने कुछ वेबसाइटों को डाटा ट्रांजेक्शन के लिए जीरो रेटिंग की पेशकश करके हलचल पैदा कर दी. इस प्राइवेट क्लब में सबसे बड़ी ई-कॉमर्स की दुकान क्रिलपकार्ट शामिल थी. इसी तरह रिलायंस कम्युनिकेशंस और फेसबुक की एक ऐसी ही योजना internet.org में भारत की सबसे बड़ी ट्रैवल वेबसाइटों में से एक क्लीयरट्रिप और समाचार वेबसाइट NDTV.com शामिल थी. लेकिन जैसे ही नेट न्यूट्रेलिटी की यह बहस जोर पकडऩे लगी और लोगों में गुस्सा भड़का तो इन कंपनियों ने खुद को इससे अलग कर लिया. तटस्थता के प्रमुख पैरोकारों में से एक  Medianama.com की दलील है कि ये दोनों पहल प्रभावशाली रूप से इंटरनेट को अलग-अलग हिस्सों में बांटेगी—मुफ्त और भुगतान युक्त, भारतीय और विदेशी, बड़ी कंपनियां और छोटे स्टार्ट-अप और व्यक्तिगत सेवा प्रदाताओं के नियंत्रित हिस्से.

नेट न्यूट्रेलिटी बनाम नेट अवसर
"ओपन इंटरनेट" की वकालत करने वाली सभी टेलीकॉम कंपनियां नेट न्यूट्रेलिटी की मुखालफत अपने ही अंदाज में करती हैं—नेट अवसर. इस सिद्धांत में यह कहा जाता है कि इंटरनेट को नए-नए तरीकों से मौद्रिकृत किया जाना चाहिए ताकि देश के उन दूर-दराज के इलाकों को जोड़ा जा सके जहां अभी इंटरनेट की पहुंच नहीं है. उनका कहना है कि तटस्थता उन्हें विस्तार के लिए ज्यादा संसाधन जुटाने से रोक रही है. सेलुलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया (सीओएआइ) के महानिदेशक राजन मैथ्यूज ने हाल के साक्षात्कारों में इस बारे में कहा, "भारत में नेट न्यूट्रेलिटी की पैरोकारी कर रहे लोग कहते हैं कि भारत में इंटरनेट तक पहुंच रखने वाले हर व्यक्ति को हर वेबसाइट और हर ऐप्लिकेशन तक भी पहुंच मिलनी चाहिए, और हम इस बात से इनकार नहीं कर रहे. लेकिन हमारा सवाल यह है कि भारत के उन एक अरब लोगों का क्या जिनके पास इंटरनेट तक पहुंच ही नहीं है. उनकी भी तो इंटरनेट तक पहुंच होनी चाहिए." दरअसल, अपनी वेबसाइट पर ग्रामीण भारत में इंटरनेट के इस्तेमाल की बड़ी दिल को छूने वाली तस्वीरें लगाकर, वहां "डिजिटल भारत" और "सबके सामथ्र्य में इंटरनेट" का गुणगान करने वाला सीओएआइ का "सबका इंटरनेट" अभियान वास्तव में तटस्थता-विरोध की उसकी दलील का थोड़ा परिष्कृत स्वरूप है. इसे पोकर (और फ्रांसीसी क्रांति) के रूप में कहा जाए तो टेलीकॉम कंपनियां कह रही हैं, "हम आपकी बिरादरी बढ़ाकर आपको बराबरी दे रहे हैं."

मार्च में 1.1 लाख करोड़ रुपये खर्च करके स्पेक्ट्रम खरीदने का हवाला देकर और स्काइप और व्हाट्सऐप जैसी ओटीटी (ओवर द टॉप) सेवाओं के जरिए फोन और एसएमएस राजस्व को लगे चूने का रोना रोकर टेलीकॉम कंपनियां जो भी दलीलें दे रही हैं, वे किसी के गले नहीं उतर रहीं. ताजा विवाद की जड़ 27 मार्च को टेलीकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के उस "कंसल्टेशन पेपर" में है जिसमें कई सारी सिफारिशें की गई थीं. इनमें इस सुझाव के अलावा कि आवाज और संदेश का इस्तेमाल करने वाली किसी भी कंपनी को, भले ही वह विदेश से काम कर रही हो, सरकार से लाइसेंस खरीदना चाहिए, ट्राई ने यह सिफारिश भी की कि इंटरनेट कंपनियों को टेलीकॉम कंपनियों के पास रजिस्टर करना चाहिए ताकि उपभोक्ताओं के पास सरलता से पहुंच हो सके. अगर इस सिफारिशों के हिसाब से चला जाए तो एयरटेल जैसी किसी टेलीकॉम कंपनी को व्हाट्सऐप जैसी किसी कंपनी से समझौता कर लेना चाहिए ताकि वह उसे मुफ्त पहुंच दे सके और बदले में वह ब्लैकबेरी मैसेंजर या किक मैसेंजर जैसे छोटे ऐप्स को मुकाबले से बाहर कर सके.

चूंकि यह एक "कंसल्टेशन पेपर" था, इसलिए ट्राई ने देशभर में इंटरनेट उपभोक्ताओं से 24 अप्रैल तक उनके विचार मांगे. लिहाजा उस एक महीने में उसे 11 लाख लोगों से टिप्पणियां मिलीं, जिसमें लोगों ने नेट न्यूट्रेलिटी को सुरक्षित रखने की गुजारिश की. इसके लिए न तो ओटीटी सेवाओं को लाइसेंस देने और न ही टेलीकॉम कंपनियों को वेब आधारित विभिन्न सेवाओं के लिए अलग-अलग शुल्क वसूलने का अधिकार देने का पक्ष लिया गया.

ट्राई के "कंसल्टेशन पेपर" में जो बात खास थी, वह यह कि कैसे उसके ख्याल अतीत में उसकी धारणाओं से इस बार बिल्कुल अलग थे. उदाहरण के तौर पर, 2006 के एक पेपर—ट्राई रिव्यू ऑफ इंटरनेट सर्विसेज में यह बात साफ तौर पर कही गई थी कि नेट न्यूट्रेलिटी की सुरक्षा की जानी चाहिए क्योंकि यही वह सिद्धांत है जिसकी बदौलत "कई कंपनियों (ऐप्लिकेशन सेवा प्रदाता, कंटेंट प्रदाता आदि) को शुरू होने, बढऩे और नई पहल का मौका मिलता है."

नियामक ने चेतावनी भी दी थीः "(एक दिन) इंटरनेट सेवा प्रदाता अपने बाजार की ताकत का इस्तेमाल प्रतिस्पर्धी ऐप्लिकेशन और/या सामग्री में भेदभाव करने के लिए कर सकते हैं. आगे चलकर नेट न्यूट्रेलिटी का मुद्दा सार्वजनिक इंटरनेट आधारित टेलीफोनी और ऐसी ही अन्य ऐप्लिकेशन की लोकप्रियता को खतरे में डाल सकता है क्योंकि सभी मध्यवर्ती इंटरनेट सेवा प्रदाता वाणिज्यिक समझौतों की मांग कर सकते हैं जो न होने पर वे या तो किसी सामग्री को अपना इस्तेमाल करने से रोक सकते हैं या फिर उसे वांछित सेवा गुणवत्ता देने से मना कर सकते हैं." संयोग की बात है कि उस समय ट्राई के चेयरमैन रहे नृपेंद्र मिश्र इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधान सचिव हैं.

नेट न्यूट्रेलिटी के पक्षधर मानते हंो कि ट्राई के रवैए में यह बदलाव टेलीकॉम कंपनियों के दबाव के चलते आया है. ट्राई हालांकि इस आरोप से इनकार करता है. लेकिन "सेव द इंटरनेट" अभियान के लिए इकट्ठे आए कलाकारों, प्रोफेशनल्स और उद्यमियों के समूह के नेतृत्व में तटस्थता समर्थक आरोप लगाते हैं कि टेलीकॉम कंपनियां बड़ी अच्छी दर से वृद्धि दर्ज कर रही हैं और उनके फोन तथा संदेश राजस्व में आई गिरावट की भरपाई बड़े मजे से डाटा के ज्यादा इस्तेमाल से हो जा रही है (देखें ग्राफिक), फिर भी वे इन बदलावों के लिए दबाव डाल रही हैं. वे इस बात को भी इंगित करते हैं कि तीन प्रमुख टेलीकॉम कंपनियों—एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया ने सिर्फ पिछली चार तिमाहियों में ही 70 लाख से 1.15 करोड़ के बीच 3जी इंटरनेट कनेक्शन जोड़े हैं. जून, 2015 तक भारत में 35.4 करोड़ इंटरनेट उपभोक्ता हो जाएंगे जिनमें से 21.3 करोड़ इंटरनेट के इस्तेमाल के लिए फोन का ही इस्तेमाल करेंगे.

सरकार पर दबाव
इस विवाद में अब बात सिर्फ नेट न्यूट्रेलिटी को बचाने से कहीं आगे पहुंच गई है. नेट न्यूट्रेलिटी के समर्थक अब सिर्फ यथास्थिति बनाए रखने से संतुष्ट नहीं हैं. टेलीकॉम कंपनियां संसाधन जुटाने की आजादी मांग रही हैं, वहीं ये समूह इसके ठीक उलट मांग कर रहे हैं—ऐसे नियम या कानून बनाए जाएं जो सेवा प्रदाताओं के लिए नेट न्यूट्रेलिटी बनाए रखना अनिवार्य कर दें.

ट्राई एक नियामक है जिसके पास शुल्कों और "सेवा की गुणवत्ता" की निगरानी के लिए वैधानिक ताकत है, लेकिन आम तौर पर बाध्यकारी दिशानिर्देश दूरसंचार विभाग (डीओटी) बनाता है. वहीं टेलीकॉम कंपनियों को परिचालन लाइसेंस भी प्रदान करता है. जाहिर है, इसलिए गेंद अब सरकार के पाले में है और टेलीकॉम लॉबी और सार्वजिनिक आक्रोश के बीच महीन संतुलन बनाए रखने की उसकी कोशिशों को अब तक कोई कामयाबी नहीं मिली है.

बीजेपी सांसद अनुराग ठाकुर की अध्यक्षता वाली सूचना प्रौद्योगिकी पर संसदीय स्थायी समिति की 21 मई को हुई बैठक में उसे सत्तारूढ़ पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी का विरोध झेलना पड़ा. इस बैठक में सेवा प्रदाता कंपनियों एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया के प्रतिनिधियों को भी अपना पक्ष रखने के लिए बुलाया गया था. इसमें आडवाणी ने तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक ओ्यब्रायन और कांग्रेस सांसद केवीपी रामचंद्र राव का साथ दिया, जिनका इस बात पर जोर था कि उपभोक्ता मंचों और ओटीटी सेवा प्रदाताओं को पहले पक्ष रखने के लिए आमंत्रित किया जाना चाहिए. बैठक के तुरंत बाद ओ्यब्रायन ने ट्वीट किया, "दिल्ली गर्म है, लेकिन संसदीय समिति की बैठकों में चल रही बातचीत में ज्यादा गर्मी देखने को मिल रही है." सबसे पहले इस मुद्दे को राज्यसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के रूप में उठाने वाले तृणमूल कांग्रेस के ओ्यब्रायन ने इंडिया टुडे से कहा, "हम टेलीकॉम कंपनियों से लडऩा नहीं चाहते, लेकिन हमें उपभोक्ता हितों की सुरक्षा तो हर कीमत पर करनी ही होगी."

संसद के भीतर भी कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने इसे "सूट-बूट की सरकार" के कॉर्पोरेटों की हित साधना के खिलाफ अपने अभियान से जोड़ते हुए नेट न्यूट्रेलिटी को बचाए रखने के लिए कानून की वकालत की. हालांकि सरकार खुले इंटरनेट को समर्थन देने की बात करती है लेकिन नेट न्यूट्रेलिटी के विभिन्न पहलुओं को लेकर उसका रुख स्पष्ट नहीं है. दूरसंचार मंत्रालय के सूत्र कहते हैं कि उन्हें कोई स्पष्ट रुख लेने से पहले स्थायी समिति, ट्राई और दूरसंचार विभाग की रिपोर्टों का इंतजार है और वे लोगों की प्रतिक्रिया पर भी कान धरे हुए हैं. दूरसंचार मंत्री रविशंकर प्रसाद के हवाले से यह भी कहा गया है कि "नेट न्यूट्रेलिटी बनाए रखने के लिए लाइसेंसिंग शर्तों में कुछ प्रावधान जोडऩे सरीखे कई उपाय" संभव हैं.

क्या शानदार बात है कि टेलीकॉम कंपनियों की राह का सबसे बड़ा रोड़ा एक लोकतंत्रकारी के रूप में इंटरनेट की ताकत ही है. ट्राई के 118 पन्नों के कंसल्टेशन पेपर में से ही सेव द इंटरनेट अभियान का तैयार किया 23 पन्ने का सार था जिसने उस मुद्दे को सामने रखा जो अन्यथा नजरअंदाज कर दिया जाता. कॉमेडी शो "ऑल इंडिया बकचोद" ने एक तटस्थता समर्थक नाटक के जरिए इस समस्या को सरलीकृत कर दिया. यह शो वायरल हुआ और उसने लोगों को ट्राई को विरोध के मेलों से लाद देने के लिए प्रेरित किया. कुछ उसी तरह जैसे जॉन ओलिवर ने पिछली जून में लास्ट वीक टुनाइट शो पर तटस्थता समर्थक कड़ी से अमेरिका में बहस पलट दी थी. अपने शो में ओलिवर ने कहा था, "उन्हें इसे 'नेट न्यूट्रेलिटी की सुरक्षा' नहीं कहना चाहिए उन्हें इसे 'केबल कंपनी की दादागरी बंद करना' कहना चाहिए."

ऐसे में क्या वेब ऐसा प्लेटफॉर्म बना रहेगा जहां हर राय, चाहे उस पर कितनी ही असहमति क्यों न हो, हर सूचना, वह चाहे कितनी भी अरुचिकर क्यों न हो, उसे बराबरी की बैंडविड्थ मिले? संभावना तो यही है कि इस बात की गारंटी खुद इंटरनेट कर लेगा. 

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