आर्थिक मोर्चे पर नरेंद्र मोदी का प्रदर्शन इतना बुरा नहीं, लेकिन आम लोग और कॉर्पोरेट जगत को और तेजी दिखाने की उम्मीद है. हालांकि इन सब के बीच इस साल फरवरी के मध्य में दीपक पारेख ने मानो बम ही गिरा दिया.
एक समाचार एजेंसी को इंटरव्यू में पारेख ने कहा, 'मुझे लगता है कि देश के लोगों और उद्योगपतियों तथा उद्यमियों में अभी भी इस बात को लेकर काफी उम्मीदें हैं कि मोदी सरकार महज काम से मतलब रखती है. हालांकि नौ महीने के बाद इस बात को लेकर थोड़ी बेचैनी बढ़ रही है कि क्यों, कोई बदलाव नहीं हो रहा है और जमीनी असर होने में इतना वक्त क्यों लग रहा है.
यह नजरिया तो भारतीय उद्योग जगत के सूरमाओं और देशी-विदेशी निवेशकों के बीच घर करता जा रहा था कि सरकार ने अपने इरादे से तो प्रभावित किया था लेकिन इसके हकीकत में साकार होने की प्रक्रिया तकलीफदेह रूप से धीमी है. यही वह तबका था जो मोदी का सबसे बड़ा प्रशंसक रहा है. लेकिन कोई भी बोलने को तैयार नहीं था. यही कारण है कि पारेख की टिप्पणी बड़ी धमाकेदार रही. आखिरकार एचडीएफसी के चेयरमैन वर्षों से हर सरकार के लिए उद्योग क्षेत्र के सबसे पसंदीदा नेता रहे हैं. जब वे बोलते हैं तो हर कोई सुनता है. जाहिर है कि उन्होंने जो कहा, सरकार को वह पसंद नहीं आया और उसकी प्रतिक्रिया फौरी और तल्ख थी. पारेख ने उसके बाद से खामोशी ओढ़ ली है.
पारेख की चेतावनीपूर्ण टिप्पणी इस बात को रेखांकित करती है कि भारतीय उद्योग जगत की उम्मीदें कितनी ऊंची थीं. कोटक महिंद्रा एसेट मैनेजमेंट कंपनी के प्रबंध निदेशक नीलेश शाह कहते हैं, ''मोदी सरकार टेस्ट मैच खेल रही है लेकिन उससे उम्मीदें टी-20 मैच जैसा प्रदर्शन दिखाने की हैं. हम उस बाजार को देख रहे हैं जिसमें ईपीएस (मौजूदा आमदनी) तो मनमोहन सिंह हैं लेकिन पीई (मूल्यांकन) नरेंद्र मोदी हैं."
इसके उलट इंडिया टुडे समूह-सिसेरो के विशेष जनमत सर्वेक्षण 'देश का मिज़ाज' के मुताबिक नरेंद्र मोदी सरकार से लोगों की उम्मीदें इतनी निराशाजनक नहीं हैं. सर्वेक्षण में 36 फीसदी लोगों को यकीन है कि सरकार ने अर्थव्यवस्था को सुधारा है जबकि 22 फीसदी लोगों का मानना है कि अर्थव्यवस्था में तब्दीली का असर अगले छह महीने में दिखाई देने लगेगा. हालांकि 29 फीसदी लोग यह मानने वाले हैं कि न तो अर्थव्यवस्था में सुधार का कोई संकेत है और न ही अगले छह महीने में ऐसा होने की कोई उक्वमीद नजर आती है. दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सर्वेक्षण में शामिल लोगों में 58 फीसदी यह मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के शासन में अर्थव्यवस्था सुधार के रास्ते पर है. इसी तरह सर्वेक्षण में 30 फीसदी यह मानते हैं कि पहले दस महीनों में सरकार का प्रदर्शन उम्मीदों से कहीं बेहतर रहा है और 39 फीसदी यह महसूस करते हैं कि उसका प्रदर्शन उम्मीदों के अनुरूप रहा है.
कॉरपोरेट जगत की तुलना में बदलाव की गति को लेकर आम लोगों की राय कुछ कम निराशाजनक है. सर्वेक्षण में यह मानने वाले लोगों का प्रतिशत अगस्त 2014 में किए गए पिछले देश का मिज़ाज सर्वेक्षण के बराबर ही 32 फीसदी था कि उनके जीवन का स्तर सुधरा है. यही प्रतिशत यह मानने वालों की संख्या का है जो यह यकीन करते हैं कि उनका जीवन स्तर जस का तस है (अगस्त 2014 में 44 फीसदी के मुकाबले अब 43 फीसदी). अब सिर्फ 39 फीसदी लोगों का ही यह मानना है कि वे गुजारे लायक पर्याप्त नहीं कमा सकते हैं. मोदी सरकार के सत्ता में आने के शुरुआती महीनों में यह संख्या 67 फीसदी थी.
चाहे-अनचाहे मोदी के प्रचार अभियान ने यह धारणा तो पैदा ही कर दी थी कि वे देश को जंजाल से निकालकर उसकी आर्थिक समस्याओं का समाधान निकाल लेंगे, मानो उनके पास कोई जादुई छड़ी हो. इस धारणा को अब जमीनी हकीकत से रू-ब-रू होना पड़ रहा है. जिस दिन बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर मोदी के नाम का ऐलान किया गया, उसी दिन से जबरदस्त ऊंचाई से सफर शुरू करने वाला शेयर बाजार का सूचकांक मार्च में 30,000 अंक का स्तर छूने के बाद नीचे आकर 28,000 के अंक के आसपास चल रहा है. यह इस बात का भी संकेत है कि निवेशकों का भरोसा फिलहाल कायम है.
उद्योग जगत के सूरमा भारत को एक हाथी की तरह मानकर बड़ी तस्वीर देखने की सलाह देते हैं. मारुति सुजुकी के चेयरमैन आर.सी. भार्गव कहते हैं, ''लोगों को उम्मीद थी कि मैनुफैक्चरिंग में तेजी आएगी, नौकरियों में इजाफा होगा और आर्थिक गतिविधियों में अचानक बढ़ोतरी हो जाएगी तो उनकी ये अपेक्षाएं कुछ ज्यादा ही ऊंची थीं. भारतीय मैन्युफैक्चरिंग की समस्याएं गहरी हैं और ये एक साल में दुरुस्त नहीं की जा सकतीं." गोदरेज समूह के चेयरमैन अदी गोदरेज कहते हैं, ''चीजें थोड़ी धीमी जरूर हैं लेकिन ऐसा भारत में जड़ता की वजह से है जहां किसी भी बदलाव को शुरू में प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है. भारत में भी बदलाव की प्रक्रिया धीमी होती है."
अर्थव्यवस्था के संदर्भ में सर्वेक्षण के नतीजे इस ओर इशारा करते हैं कि लोगों को सरकार के कुछ कामकाज में अच्छे इरादे नजर आते हैं, जैसे कि बीमा, खदान व खनिज पर महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित किया जाना, रक्षा में विदेशी निवेश को बढ़ाकर 49 फीसदी किया जाना, स्पेक्ट्रम की बोली फिर से लगाना जिससे 1.10 लाख करोड़ रु. की राशि हासिल हुई, 'मेक-इन-इंडिया' अभियान शुरू करना, राज्यों को ज्यादा संसाधन उपलब्ध कराना और अप्रैल 2016 तक गुड्स व सर्विस टैक्स लागू करने का स्पष्ट खाका तैयार करना. लेकिन मांटम म्युचुअल फंड के सीईओ जिम्मी पटेल कहते हैं, ''फील गुड फैक्टर तो है लेकिन वह तेजी से गायब भी हो सकता है."
उद्योग जगत की सूची में ढांचागत परियोजनाओं की जल्द मंजूरी, निवेशकों में विश्वास को बढ़ाने के लिए पूर्व प्रभाव से लागू कर व्यवस्था को रद्द करना, भूमि अधिग्रहण पर आम राय कायम करने के लिए सरकार की ओर से प्रयास और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ज्यादा स्वायत्तता देना शामिल है तो आम आदमी के लिए महंगाई पर काबू पाना मोदी सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए. दरअसल, पिछले सर्वेक्षण के लगभग बराबर ही 34 फीसदी लोग यह मानते हैं कि अगर उन्हें आज फिर से वोट डालने पड़े तो महंगाई ही उनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा रहेगा. इतना ही नहीं, पिछले बार की तुलना में कहीं ज्यादा 27 फीसदी लोग यह मानते हैं कि सरकार की सर्वोच्च प्राथमिकता में कीमतों में वृद्धि को नियंत्रित करना होना चाहिए. अगस्त 2014 में यह राय केवल 18 फीसदी लोगों की थी.
( साथ में एम.जी. अरुण, तन्वी आर. वर्मा और रेणु यादव)
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