शादी से लिव-इन तक: बदलते परिवारों का मुल्क

शादी का रिश्ता अब स्वर्ग में नहीं बनता और न ही परिवार फरिश्तों के यहां से उतरी कोई पवित्र चीज है. ये मुल्क के आधुनिक परिवार हैं, जहां सबकुछ शॉर्ट टर्म कॉन्ट्रैक्ट है. हिंदुस्तान बदल रहा है.

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लिव-इन रिलेशन लिव-इन रिलेशन

मनीषा पांडेय

  • नई दिल्‍ली,
  • 23 दिसंबर 2012,
  • अपडेटेड 2:04 PM IST

पच्चीस साल में दुनिया कितनी बदल गई है? राजधानी के नक्शे बदले, देश के कानून बदले, 1992 में उत्तर प्रदेश में मस्जिद गिराई गई और 20 साल बाद 2012 में कानपुर गूगल पर सेक्स सर्च करने में अव्वल था. शहरों की आबोहवा बदली और बदल गया उन शहरों में रहने वाले परिवारों का ढांचा.

उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी में मैदागिन चौराहे के पास 30 वर्षीय श्वेता मिश्र का घर है. श्वेता वाराणसी में बड़ी हुई, जहां आइआइटी बीएचयू में इंजीनियरिंग करने तक शाम को अंधेरा होने से पहले घर लौट आने का नियम बड़ी सख्ती से लागू था. जहां बनारस यूनिवर्सिटी के एक कॉलेज में हिंदी टीचर श्वेता के पिता अपने माता-पिता के सामने अपनी पत्नी से खुलकर बात तक नहीं करते थे, बेटी को भी उन्होंने कभी गले नहीं लगाया. मां सिर पर पल्ला रखती थीं, ससुर से परदा करती थीं. जाति में विवाह के नियम प्रबल और अटल थे. हर नियम, हर रास्ता तय था. लेकिन सिर्फ तब तक जब तक श्वेता ने बनारस के बाहर एक बड़ी दुनिया नहीं देखी थी.

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आज हैदराबाद में एक बड़ी आइटी कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर श्वेता अपने दलित साउथ इंडियन ब्वॉय फ्रेंड के साथ लिव-इन में रहती हैं. फिलहाल शादी का कोई इरादा नहीं. मम्मी-पापा को श्वेता के लिव-इन के बारे में पता नहीं, लेकिन इस तथ्य के साथ वे समझौता करने के लिए मजबूर हैं कि 30  साल की होने के बावजूद वह शादी को तैयार नहीं हैं और चाहे वह कितना भी सिर फोड़ लें, ब्राह्मण जाति की मैट्रिमोनी साइट पर तो वह कभी रजिस्टर नहीं कराने वाली. श्वेता कहती हैं, ''पता नहीं कि मुझे क्या चाहिए, लेकिन यह अच्छी तरह पता है कि क्या नहीं चाहिए. अपने मम्मी-पापा जैसी जिंदगी नहीं चाहिए. मैं अपने फैसले खुद लेना चाहती हूं.”

देबाशीष और सोनाली दासगुप्ता मुंबई में रहने वाले आधुनिक कपल हैं. देबाशीष एचडीएफसी बैंक में ऑफिसर हैं और सोनाली एक प्रोडक्शन हाउस में प्रोड्यूसर. देबाशीष के लंबे ड्यूटी आवर्स हैं और शूटिंग के समय सोनाली को अकसर ऑफ के दिन भी काम करना पड़ता है. मुलाकात सिर्फ वीकेंड में मुमकिन है और सेक्स उस दिन भी होगा, जरूरी नहीं.

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इंदौर में एक डॉक्टर अरुण और रमोला जयेकर का परिवार टेलीविजन के सामने बैठा है. सीरियल के बीच कंडोम का विज्ञापन आता है. उनकी 12 वर्षीय बेटी उत्सुकता में सवाल भी नहीं करती कि मम्मी यह क्या है. उसे सब मालूम है. मालूम तो उसके छोटे भाई शोभित को भी सब कुछ है. रविवार दोपहर को एक फिल्म देखते हुए जब हीरोइन ने उल्टी की तो वह तपाक से बोला, ''दादाजी, पता है इसे बच्चा होने वाला है.” हालांकि रमोला के बचपन में हर चीज बहुत दबी-ढकी थी, लेकिन इस एक्सपोजर पर चकित होने की बजाए वे कहती हैं, ''इंडियन फैमिलीज बदल गई हैं. अब तो टीवी में सब कुछ खुलकर दिखाते हैं. बच्चे सेक्स के बारे में सब जानते हैं.”

महानगर दिल्ली में फैमिली कोर्ट का एक दृश्य. न्यायाधीश के सामने दोनों ओर बेंचों पर पांच जोड़े बैठे हैं. कभी ये विवाह के बंधन में बंधे थे और आज उन्हें किसी भी कीमत पर साथ रहना गवारा नहीं. एक महिला को शक है कि उसके पति का किसी के साथ अफेयर है. दूसरी दिल्ली की कामकाजी औरत को शिकायत है कि उसका पति साथ रहने के लायक नहीं.

यह एक छोटी-सी बानगी है हिंदुस्तान के बदलते परिवारों की, जहां चारदीवारी के अंदर और बाहर रिश्ते तेजी से बदल रहे हैं. लड़के-लड़कियां शादी के पहले सेक्स कर रहे हैं, विवाहेतर संबंध बन रहे हैं, डबल इनकम, नो किड्स का चलन बढ़ रहा है और टीन एज प्रेग्नेंसी के मामले बढ़ रहे हैं.

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25 साल पहले जिन चीजों की कल्पना करना भी मुश्किल था, वे चीजें हमारी आंखों के सामने हुईं और इनमें से कई बदलावों पर तो कोर्ट ने भी अपनी मुहर लगा दी. 2005 में दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू के इस बयान कि ''विवाह पूर्व यौन-संबंध और लिव-इन रिलेशन शहरों में आम हैं और मुझे इसमें कोई बुराई नजर नहीं आती,” पर उन्मादी भीड़ उन पर चप्पल, टमाटर और अंडे फेंक रही थी. इस बेबाक-बयानी के लिए खुशबू के खिलाफ 22 क्रिमिनल केस दर्ज किए गए और उन सारे मामलों को सिरे से खारिज करते हुए अप्रैल, 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने खुशबू के पक्ष में फैसला सुनाया और विवाह पूर्व यौन संबंधों को आपराधिक मामला मानने से इनकार कर दिया. प्री-मैरिटल सेक्स पर यह पहली कानूनी मुहर थी.

फरवरी, 2011 में फिल्म निर्माता श्याम बेनेगल और अमोल पालेकर की पत्नी चित्रा पालेकर के नेतृत्व में 19 पैरेंट्स ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. ये लोग अपने लेस्बियन और गे (समलैंगिक) बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ रहे थे. 2 जुलाई, 2009 को दिल्ली हाइकोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आने से पहले तक भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत समलैंगिकता अपराध थी. हालांकि इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले शुद्घतावादियों की कमी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट में श्याम बेनेगल और चित्रा पालेकर ने कहा, ''हमारे बच्चे अपराधी नहीं हैं. हम अपने बच्चों को बहुत करीब से जानते हैं और वे दुनिया के सबसे अच्छे बच्चे हैं.”

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जिस देश में पूरी धार्मिक कट्टरता के साथ पिता और परिवार मनमाने तरीके से लड़कियों के विवाह का फैसला सुनाते रहे हैं, उसी देश में 2011 में एक चौंकाने वाला आंकड़ा सामने आया. मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन स्टडीज के अध्ययन के मुताबिक, 2011 में देश में 20 से 49 वर्ष आयु वर्ग की महिलाओं में 11.6 फीसदी 'सिंगल’ हैं.

देश में तकरीबन 2.42 करोड़ वर्किंग वुमन हैं, जिसमें 29 लाख अविवाहित हैं. मतलब छोटे और बड़े शहरों की लड़कियां भी करियर बना रही हैं, पैसा कमा रही हैं और शादी को कह रही हैं ''ना.” जैसा कि कोलकाता की 37 वर्षीया फैशन डिजाइनर अनिंदिता बसाक कहती हैं, ''मैं अपने जीने लायक पर्याप्त कमा लेती हूं. सो मुझे किसी पुरुष पर निर्भर रहने की क्या जरूरत.” क्या वक्त के साथ हमारे देश में विवाह संस्था की पवित्रता पर सवालिया निशान लग रहे हैं?

अपनी पुस्तक 'इंडियन फैमिली’ में भारतीय परिवारों की सामंती सरंचना की पड़ताल करने वाले मनोचिकित्सक सुधीर कक्कड़ कहते  हैं, ''समाज के आधुनिक और बराबरी पर आधारित होते जाने के साथ विवाह संस्था का मौजूदा ढांचा टूटने के लिए अभिशप्त है.” विवाहेतर संबंध और तलाक के बढ़ते मामले तयशुदा ढांचे को चुनौती दे रहे हैं.

इन सारे मोर्चों पर बेशक हिंदुस्तान तेजी के साथ आधुनिकता की राह पर कदम बढ़ा रहा है, लेकिन इसी के समानांतर एक दूसरी दुनिया भी मौजूद है, जिनके लिए परंपरा ही जीवन है और जिनकी घड़ी 16वीं सदी में कहीं अटकी है. हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की खाप पंचायतों ने अंतरजातीय और समान गोत्र में विवाह करने वालों को जान से मार डालने के बर्बर फैसले सुनाए, लड़कियों के जींस पहनने, मोबाइल फोन इस्तेमाल करने, बाजार जाने पर प्रतिबंध लगाया और बलात्कार की बढ़ती घटनाओं से लड़कियों की रक्षा के लिए सोलह साल में ही उनका विवाह कर दिए जाने की वकालत की.

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2009 में मैट्रिमोनियल वेबसाइट शादी डॉट कॉम द्वारा किए गए एक सर्वे में 56 फीसदी युवाओं ने विवाह में जाति के महत्व को नकारा और कहा, 'व्यक्ति महत्वपूर्ण है, जाति नहीं.’ लेकिन दूसरी ओर उसके बाद से लगातार जाति और समुदाय आधारित मैट्रिमोनियल वेबसाइटों की बाढ़ आई हुई है. ब्राह्मण मैट्रिमोनी, ठाकुर मैट्रिमोनी, कायस्थ मैट्रिमोनी और यहां तक कि दलित मैट्रिमोनी की वेबसाइटें और उन पर लाखों का ट्रैफिक यह सोचने के लिए मजबूर करता है कि आधुनिकता के सफर में विवाह संस्था जाति को तोडऩे में आखिर कितनी सफल हुई है.

जिनके मानसिक और बौद्घिक विकास की मशीन 18वीं सदी में रुक गई है, उन्हें उनके हाल पर छोड़ते हुए उन बदलावों की बात करें, जिसने नए समाज की दिशा को मुकम्मल किया है. डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर परोमिता वोहरा सिंगल वुमन की बढ़ती संख्या को एक बड़े क्रांतिकारी बदलाव की तरह देखती हैं. वे कहती हैं, ''दिक्कत यह है कि महिलाएं तो बदल गई हैं. वह अपनी पहचान बना रही हैं, अपने पैसे कमा रही हैं, लेकिन पुरुष अब भी पत्नी में अपनी आज्ञाकारी मां तलाश रहा है. ऐसे में मेल कैसे मुमकिन है?”

42 वर्षीया फिल्मकार जोया अख्तर भी अविवाहित हैं और अपने सिंगल स्टेटस को गर्व के साथ लेती हैं, ''दुनिया को तब तक चैन नहीं आता, जब तक लड़की को किसी खूंटे से बांध न दे. मैं ऐसे ही खुश हूं. ऐसा नहीं कि मैं शादी के खिलाफ हूं, लेकिन वही जिंदगी का पहला और आखिरी मकसद नहीं है.” ये 'प्राउड टू बी सिंगल’ जनरेशन है. मम्मी-पापा अपनी इन बेटियों के स्टेटस से परेशान जरूर हैं, लेकिन इसके साथ जीना सीख रहे हैं.

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कोलकाता में रहने वाले फिल्म मेकर कौशिक और उनकी लिव-इन पार्टनर अभिनेत्री ऋतुपर्णा के लिए प्रेम, रिश्ते और साथ रहने की परिभाषा किसी सामाजिक सर्टिफिकेट से तय नहीं होती. ये दोनों पिछले 12 साल से साथ रह रहे हैं. हालांकि दोनों के घरवाले अब भी यह कहने से नहीं चूकते कि जब सब कुछ ठीक है तो शादी कर लेने में क्या हर्ज है. कोर्ट में कागज के एक टुकड़े पर साइन ही तो करने हैं. कौशिक कहते  हैं, ''एक मामूली साइन हमारे प्यार को कैसे तय कर सकता है.” शादी न करने के पीछे दोनों के अपने तर्क हैं. कौशिक विवाह को बुनियादी रूप से पितृसत्तात्मक और स्त्री को कंट्रोल करने वाली संस्था मानते हैं.

ऋतुपर्णा कहती हैं, ''हम विवाह और समाज के डर से साथ नहीं रहते. हम दोनों आजाद हैं और साथ हैं. यही हमारी ताकत है.” फिल्म अभिनेता अभय देओल की राह इस मामले में बिलकुल साफ है. वे कहते हैं, ''मैं लिव-इन रिलेशन को किसी नैतिक चश्मे से देखने के लिए तैयार नहीं. स्त्री-पुरुष का प्रेम और उनका साथ रहना एक नैसर्गिक चीज है, जबकि विवाह एक सामाजिक, सांस्कृतिक चीज है. आप हर सामाजिक नियम को मानने के लिए मजबूर नहीं हैं.”

हमारे समाज में परदे के पीछे कुछ भी होता रहे, लेकिन खुलकर उस पर बात करने से नैतिकताएं दरकने लगती हैं. कुछ ऐसा ही हुआ, जब 2010 में एक टेलीविजन शो में अभिनेत्री रूपा गांगुली ने अपने से 13 साल छोटे गायक दिब्येंदु मुखर्जी के साथ अपनी लिव-इन रिलेशनशिप की बात खुलकर स्वीकार की. अब जबकि दिब्येंदु के साथ उनका संबंध खत्म हो चुका है, रूपा लिव-इन के बारे में बोलने में संकोच नहीं करतीं, ''दो व्यक्तियों का संबंध शादी के सामाजिक नियमों से तय नहीं होता. न अग्नि से, न फेरों से.”

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बदलते और टूटते भारतीय परिवारों में लिव-इन का एक और रूप देखने में आया, जब फरवरी, 2012 में इंदौर में एक अनोखे लिव-इन मेले का आयोजन हुआ, जहां 50 से 70 वर्ष के डेढ़ सौ बुजुर्ग उम्र के इस पड़ाव पर लिव-इन पार्टनर की तलाश में आए थे. उनमें से पांच पुरुष अकेले आए थे, लेकिन लौटे एक साथी के साथ. फरवरी में ही भोपाल में हुए ऐसे ही एक लिव-इन सम्मेलन को लोगों की तीखी आलोचना और विरोध का शिकार होना पड़ा.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) से जुड़े समाजविज्ञानी आशीष नंदी महानगरों में बढ़ती लिव-इन रिलेशनशिप के पीछे मुख्य कारण आर्थिक बदलावों को मानते हैं. वे कहते हैं, ''दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में नौकरीपेशा अधिकांश युवा पीढ़ी अपने शहर और परिवार से दूर है. इसलिए ऐसे संबंध ज्यादा बनते हैं. यह सोचने वाली बात है कि लिव-इन में रह रहे कितने लोगों के पास परिवार, विवाह संस्था जैसी चीजों के प्रति एक साफ पॉलिटिकल समझ है.”

पॉलिटिकल समझ के अभाव के तर्क से सहमत होते हुए भी मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ इन बदलावों का स्वागत करना चाहते हैं, ''समाज अपने तर्कों और तरीकों से बदलता है. लिव-इन की आलोचना नहीं, बल्कि स्वागत करने की जरूरत है.”

इन बदलावों का स्वागत वे लोग भी खुले दिल से कर रहे हैं, जिन्होंने वह दुनिया भी देखी है, जहां तीन-चार बच्चों के जन्म के बाद भी पुरुषों ने दिन के उजाले में अपनी पत्नी का मुंह भी नहीं देखा होता था. हिंदी लेखक विश्वनाथ त्रिपाठी कहते हैं, ''अब तो लोग खुलकर अपने प्रेम का इजहार करने लगे हैं. हमारे जमाने में तो पत्नी इतने लंबे घूंघट में रहती थी कि अगर स्टेशन पर खो जाए तो उसे ढूंढ भी नहीं सकते थे, क्योंकि उसका चेहरा ही नहीं पहचानते थे.”

राजेंद्र यादव भी इन बदलावों को सकारात्मक नजरिए से देखते हैं. वे कहते हैं, ''आज पति-पत्नी हों या बच्चे, सभी ज्यादा खुलकर अपनी भावनाओं को व्यक्त कर रहे हैं. हमारे जमाने में तो अपने बच्चे के प्रति प्रेम जताना भी बहुत अच्छी बात नहीं मानी जाती थी.”

कोई खुश हो ले या दुखी, आने वाले समय में इन बदलावों की रफ्तार तेज होनी है. जो नहीं बदलेंगे, वे वक्त की ठंडी मशीन में जम जाने को अभिशप्त होंगे.

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