काजीरंगा में अवैध शिकार: बचाने वालों के रवैये पर बवाल

गैंडों का अंधाधुंध शिकार और इसे रोकने के लिए शिकारियों को मार डालने के रवैये की बढ़ती आलोचना से काजीरंगा उद्यान एक बार फिर विवादों में.

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ब्रह्मपुत्र में नाव से गश्त लगाते वन सुरक्षाकर्मी ब्रह्मपुत्र में नाव से गश्त लगाते वन सुरक्षाकर्मी

कौशिक डेका

  • काजीरंगा,
  • 17 अप्रैल 2017,
  • अपडेटेड 4:25 PM IST

बारह दिसंबर 2010 का दिन था वह. तड़के साढ़े चार बजे का वक्त रहा होगा. कड़कड़ाती ठंड, ऊपर से कोहरा. काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान (केएनपी) में तैनात 27 वर्षीय होमगार्ड भूपेन हजारिका अभी उठे ही थे. उन्हें तुरंत तैयार होकर रात के उस गश्ती दल से चार्ज लेना था जो अभी पार्क के बागोड़ी रेंज स्थित तुतोनी के अवैध शिकार रोधी शिविर में लौट रहा था. अचानक उन्हें कुछ दूरी पर आवाज सुनाई दी. वे तुरंत अपनी पॉइंट 303 राइफल और टॉर्च लेकर बाहर निकल पड़ते हैं.

रात की टीम का उनका एक सहयोगी पेड़ के पीछे से उन्हें कवर कर रहा था. चारों ओर निगाह दौड़ाने पर हजारिका को एक परछाईं दिखी जो उनके सहयोगी के दाहिनी ओर घनी घास में छिपकर निशाना लगाकर वार करने की तैयारी में थी. हजारिका ने वक्त गंवाए बगैर परछाई पर गोली दाग दी और उसी झुरमुट में से उछल कर भागी परछाईं का पीछा करने लगे. एकाध मिनट बाद जब कई बार चेतावनी के बावजूद वह आकृति नहीं रुकी तो हजारिका ने उसके पांव में गोली मार दी. गोली लगते ही वह आदमी गिर पड़ा. कोई उसके पास पहुंचता, उसके पहले ही उसने खुद एक पिस्टल से अपनी खोपड़ी उड़ा ली. बाद में उसकी पहचान वहां से 20 किलोमीटर दूर स्थित धनबाड़ी गांव के लापता आदिवासी के रूप में हुई.

हजारिका को दो साल बाद वन्यजीव संरक्षण के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फाउंडेशन (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) की भारतीय इकाई और असम के वन विभाग ने वन्य प्राणी मित्र पुरस्कार से नवाजा. इस उपलब्धि के बावजूद वन्यजीवों के अवैध शिकार की जंग के इस नायक को पिछले महीने बीबीसी पर प्रसारित हुई एक डॉक्युमेंट्री में खलनायक चित्रित किया गया. किलिंग फॉर कंजर्वेशन नाम की इस फिल्म में काजीरंगा के अधिकारियों को शिकारियों के खिलाफ  ''असाधारण उपाय" अपनाने का दोषी ठहराया गया है जिसमें ''देखते ही गोली मार देने" के आदेश शामिल हैं. प्रसारण के बाद से ही यह फिल्म आलोचनाओं से घिर गई है. पर्यावरण मंत्रालय और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने डॉक्युमेंट्री बनाने वाले, चैनल के दक्षिण एशिया संवाददाता जस्टिन रॉलेट को ब्लैकलिस्ट करने और चैनल के किसी भी बाघ अभयारण्य को कवर करने पर पांच साल का प्रतिबंध लगाने की मांग उठाई.

ध्यान रहे कि पार्क के भीतर 2013 से 2016 के बीच 55 शिकारी मारे जा चुके हैं. उद्यान के निदेशक डॉ. सत्येंद्र सिंह कहते हैं, ''देखते ही गोली मारने जैसा कोई भी आदेश जारी नहीं किया गया है." इंडिया टुडे ने इस मामले की पड़ताल की तो पाया कि वाकई ऐसा ही है लेकिन सरकार ने 2010 में वन सुरक्षाकर्मियों को सीआरपीसी की धारा 197(2) के तहत आग्नेयास्त्रों के इस्तेमाल पर दंड से छूट दी थी. धारा के अनुसारः ''कोई भी अदालत सशस्त्र बलों के किसी भी सदस्य के कथित रूप से किए गए किसी भी अपराध का संज्ञान नहीं लेगी...अगर वह उसके आधिकारिक कार्य के निष्पादन के क्रम में किया गया हो." बावजूद इसके एक तथ्य यह भी है कि उद्यान के तत्कालीन निदेशक एम.के. यादव की गुवाहाटी हाइकोर्ट को 2014 में सौंपी रिपोर्ट कहती है कि काजीरंगा पार्क के सुरक्षाकर्मियों को शिकारियों को देखते ही गोली मारने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.

पर असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल स्पष्ट करते हैं, ''हम मारने को प्रोत्साहित नहीं करते. हमारा जोर शिकारियों को पकडऩे पर होता है (देखें साक्षात्कार). गोली तभी मारी जाती है जब वे चेतावनी की अनदेखी करते हैं."

उद्यान के निदेशक सत्येंद्र सिंह भी दुहराते हैं, ''हत्या आखिरी रास्ता है. बीबीसी की डॉक्युमेंट्री यह नहीं बताती कि उसी अवधि में 265 शिकारियों को गिरफ्तार किया गया है." असम की वन मंत्री प्रमिला रानी ब्रह्मा के अनुसार, 705 शिकारियों की पहचान की गई थी जिनमें 2001 के बाद से 661 को गिरफ्तार किया गया. 2013 से 2016 के बीच गिरफ्तार 265 शिकारियों में से केवल 6 को सजा मिली, 11 बरी हो गए और बाकी पर मुकदमा चल रहा है. सोनोवाल कहते हैं, ''तीव्र सुनवाई के लिए हमने उद्यान से लगे 10 जिलों में वन्यजीव फास्ट ट्रैक अदालतें गठित की हैं."

शिकार यानी करो या मरो
काजीरंगा के आसपास एक जुमला चलता है, ''होय खारगा, नोहोय स्वर्ग" (या तो गैंडे की सींग या फिर ऊपर का रास्ता). शिकारी अच्छी तरह जानते हैं कि संरक्षित वन में गैंडे की सींग हासिल करने के लिए प्रवेश करने का मतलब क्या होता है. वे बदले में मौत की तैयारी कर के वहां जाते हैं. उप वन संरक्षक (निदेशक कार्यालय से संबद्ध) पल्लव कुमार डेका पूछते हैं, ''ऐसे अपराधियों से कैसे निबटा जाए जो मरने से नहीं डरते?" वे कहते हैं, ''वे यहां यह सोचकर आते हैं कि या तो मार देना है या मर जाना है. रात के अंधेरे में हमला ही हमारा सबसे उत्तम बचाव है." वे दावा करते हैं कि शिकारियों के पास एके सीरीज की राइफलें होती हैं और उनके गिरोह के खिलाफ वन सुरक्षाकर्मी हमेशा तैयार रहते हैं. असम के प्रधान और मुख्य वन संरक्षक (वन्यजीव) विकास ब्रह्मा कहते हैं, ''शिकार में उग्रवादी समूहों के भी लिप्त होने के मामले सामने आए हैं."

करीब 900 वर्ग किलोमीटर में फैला काजीरंगा उद्यान भारत के सबसे पुराने वन्यजीव संरक्षण उद्यानों में से एक है, जिसकी अधिसूचना 1905 में जारी हुई थी और तीन साल बाद उसे संरक्षित वनक्षेत्र का दर्जा मिला. इसमें 228 वर्ग किलोमीटर का क्षेत्र विशेष रूप से एक सींग वाले गैंडे (राइनोसेरॉस यूनीकॉर्निस) के संरक्षण के लिए चिन्हित किया गया जिनकी अनुमानित संख्या उस वक्त 40 थी. संरक्षण के क्षेत्र में यह एक कामयाबी की दास्तान है कि काजीरंगा उद्यान में गैंडों की आबादी पिछले दो दशकों में दोगुनी हुई हैकृ1993 में 1,164 से 2015 में 2,401 तक. उद्यान में एक सींग वाले गैंडों की संख्या का घनत्व दुनिया में सर्वाधिक 5.59 प्रति वर्ग किलोमीटर है. यह प्रजाति आइयूसीएन की लाल सूची में दर्ज है.

गैंडों की संख्या में इजाफे से शिकार भी बढ़ता गया. 2006 से 2016 के बीच 151 गैंडों का शिकार हुआ, जिनमें 54 तो अकेले 2013-14 के दौरान मारे गए. गुवाहाटी में पर्यावरण के मुद्दे पर इस उद्यान के साथ मिलकर काम करने वाले एक एनजीओ आरण्यक के वरिष्ठ जीवविज्ञानी फिरोज अहमद कहते हैं, ''गैंडों को गंभीर खतरा है." वे कहते हैं, ''चीन और विएतनाम में एक गलत धारणा है कि गैंडे की सींग में कामोत्तेजक गुण होता है जिसके चलते वे इसके लिए भारी कीमत चुकाने को तैयार रहते हैं."

नजदीकी मणिपुर और नगालैंड से शार्प शूटर शिकारियों को अक्सर भाड़े पर लाया जाता है. शिकार से मिले सींग को पहले उद्यान से 150 किलोमीटर दूर दीमापुर ले जाया जाता है. यही वह आरंभिक बिंदु है जहां शिकारियों को भुगतान किया जाता है और फिर सींग मणिपुर के मोरेह ले जाया जाता है जो म्यांमार से लगा जिला है. असम में अगर एक सींग की कीमत डेढ़ लाख रु. है तो देश की सीमा पार करने पर यह करोड़ों हो जाती है. राज्य की वन मंत्री ब्रह्मा ने पिछले साल विधानसभा को बताया था, ''म्यांमार में यह 2 करोड़ रु. में और चीन में 3 करोड़ में बिकती है."

यही वजह है कि उद्यान के अधिकारी शिकारियों से निबटने में कोई रियायत नहीं बरतते. इनमें पकड़े जाते ही शिकारी को ''खत्म" कर देना शामिल है. अफ्रीका के कुछ पार्कों में मिली कामयाबी से प्रेरणा लेकर यह काम किया जाता है. एनवायरनमेंटल इकोनॉमिक्स नाम के जर्नल में 2014 में प्रकाशित एक अध्ययन में देश में शिकार निरोधक तकनीकों का विश्लेषण करते हुए कहा गया कि जिन पार्कों में ''देखते ही गोली मार देने" की तकनीक अपनाई गई, वहां ''किसी और विधि के मुकाबले शिकार काफी तेजी से घटा, क्योंकि शिकारियों को पकड़े जाने पर अपनी जान गंवाने का डर रहता है."

लेकिन क्या यह हत्या है?
गैंडों को बचाने के नाम पर लोगों को मार देने की यह तकनीक हालांकि मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की तीखी आलोचना झेल रही है. पास के गांवों से एक से बढ़कर एक कहानियां निकली हैं. एक कहानी बीजू की है, जिसकी विधवा रेनुमाई कहती है कि सुरक्षाकर्मियों ने उसके पति को पानबाड़ी आदर्श मिसिंग गांव से अगवा कर लिया था. बाद में उसकी लाश नौगांव सिविल अस्पताल में पाई गई. रेनुमाई कहती है, ''उन लोगों ने आज तक हमें एफआइआर या पोस्टमॉर्टम रिपोर्ट की प्रति तक नहीं दिखाई है."

एक और मामला दिमागी रूप से कमजोर एक किशोर गाओंबुरहा कीलिंग का है जो 2013 में दिसंबर की एक रात अपनी गायों की तलाश में पार्क में घुस गया और उसे गोली मार दी गई क्योंकि गार्डों की चेतावनी पर उसने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की थी.

तीस साल का होरेन डोले 2014 में लापता हो गया. बाद में गोलियों से छलनी उसकी लाश उद्यान में मिली. सरकारी रिकॉर्ड में उसे शिकारी दर्शाया गया. वह वन रेंजर सलीम अहमद का करीबी दोस्त था, बावजूद इसके होरेन की लाश की पहचान करने कोई नहीं आया. उसके पिता अजीत कहते हैं, ''अहमद हमारे घर आता था. उसने होरेन की लाश को क्यों नहीं पहचाना?" घटना के बाद काजीरंगा से अहमद का तबादला हो गया. उसने फोन कॉल्स का जवाब नहीं दिया.

दो बच्चों के पिता 35 वर्षीय दीपेन सौरो को एक वन सुरक्षाकर्मी ने पार्क में नौकरी का प्रस्ताव दिया था. सौरो भी होरेन की तरह 2014 में लापता हो गया. बाद में उसकी लाश उद्यान में दफन पाई गई. उसके सिर पर गोली लगने का निशान था. होरेन से उलट हालांकि उसे शिकारी नहीं ठहराया गया बल्कि उसकी हत्या का केस दर्ज हुआ.

रेनुमाई की फूस की झोंपड़ी में आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता प्रनब डोले से मुलाकात हुई जो मुंबई के टाटा स्कूल ऑफ  सोशल साइंसेज से पढ़े हुए हैं और जीपल नाम के एनजीओ के परामर्शदाता हैं. वे आरोप लगाते हैं कि शिकारियों के खिलाफ जनभावना और कानून से मिली आड़ के चलते अब यहां के सुरक्षाकर्मी हत्यारों में तब्दील हो चुके हैं. ''अधिकारियों पर शिकारियों के खिलाफ कार्रवाई दर्शाने का भारी दबाव होता है. जाहिर है, मिलीभगत के बगैर बड़े पैमाने पर ऐसा करना मुमकिन नहीं है. नतीजे दिखाने के लिए वे निर्दोष आदिवासियों को मार देते हैं. अगर वे वाकई एके राइफलों से लैस हिंसक शिकारियों को मार रहे होते तो मारे गए शिकारियों से सुरक्षाकर्मियों को केवल थ्री नॉट थ्री की राइफल क्यों बरामद होती? कार्रवाई में अब तक एक भी वन गार्ड जख्मी क्यों नहीं हुआ?"

डोले के सहयोगी और जीपल के संस्थापक सोनेस्वर नाराह गैंडों के संरक्षण के प्रति सौ फीसदी वचनबद्धता जताते हैं और यह भी कहते हैं कि यह काम स्थानीय लोगों की जिंदगी की कीमत पर नहीं किया जाना चाहिए. वे कहते हैं, ''इन संदिग्ध शिकारियों को अक्सर चेहरे पर गोली मारी जाती है और ऐसे तस्वीर खींची जाती है कि आप उनके चेहरे न पहचान सकें."
काजीरंगा उद्यान के निदेशक सत्येंद्र सिंह जीपल के आरोपों के जवाब में कहते हैं कि 2013 से अब तक मारे गए 55 शिकारियों में से केवल चार आदिवासी थे. तथ्य यह है कि 34 लाशों का कोई दावेदार नहीं था. यह इस बात को दर्शाता है कि उद्यान के भीतर मारे गए शिकारी स्थानीय नहीं थे; इनमें 17 ब्रह्मपुत्र के उत्तरी तट पर रहने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के लोग थे.

पार्क के आसपास काम करने वाले पर्यावरणकर्मी कहते हैं कि हकीकत एकतरफा नहीं है बल्कि कहीं बीच में है. नाम न छापने की शर्त पर एक एक्टिविस्ट बताते हैं, ''गलत पहचान के भी कुछ मामले हुए हैं. स्थानीय समुदायों की खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी शिकार को बढ़ावा देती है. उद्यान के अधिकारी स्थानीय जासूस भी पालते हैं. ये जासूस कभी-कभार निजी रंजिश निकालने के लिए मासूमों को भी शिकार बना लेते हैं. हालांकि ऐसे मामले कम हैं."

पहले बचाव
सोनोवाल कहते हैं, ''मैं जब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलता हूं, वे काजीरंगा उद्यान में शिकार के हालात के बारे में पूछते हैं." इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए क्योंकि 2014 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव में राज्य में भाजपा ने गैंडों के शिकार को मुद्दा बनाया था. एक सींग वाला गैंडा राज्य का प्रतीक है, एक भावनात्मक मामला है और इस पर हमले को असमिया गौरव पर हमले के रूप में लिया जाता है.

राज्य सरकार अब एहतियाती उपायों पर ध्यान दे रही है. पार्क से लगे जिलों—कर्बी आंगलांग, गोलाघाट, शोणितपुर और जोरहाट—के जिला अधीक्षकों को सोनोवाल ने शिकारियों के नेटवर्क पर कड़ी निगाह रखने को कहा है.

उद्यान के अगोराटोली रेंज से 100 मीटर की दूरी पर तमुला पाथर गांव स्थित है. वन उप संरक्षक डेका इस गांव को संरक्षण के प्रयासों में वन अधिकारियों और स्थानीय लोगों के बीच सहयोग की एक मिसाल के तौर पर पेश करते हैं. असम प्रोजेक्ट ऑन फॉरेस्ट और बायोडायवर्सिटी कंजर्वेशन से अनुदानित राज्य सरकार और फ्रांस की फंडिंग एजेंसी एजेंसी फ्रांसेज डी डेवलपमेंट की साझा पहल के तौर पर गांव की ईको-डेवलपमेंट कमेटी ने औरतों को आजीविका में मदद करने के लिए चार हथकरघे और आठ सिलाई मशीनें खरीदी हैं. इसने 10 छात्रों को कंप्यूटर प्रशिक्षण भी दिया है. डेका कहते हैं, ''मकसद यह है कि स्थानीय लोगों को आजीविका और रोजगार के अवसर मुहैया कराए जाएं ताकि गरीब लोग शिकारियों के जाल में न फंसने पाएं." वन विभाग जल्द ही इस गांव को आदर्श गांव के रूप में गोद लेने वाला है. यहां के 150 कोच-राजवंशी परिवार संभावित शिकारियों के लिए अवरोध का काम कर रहे हैं. पिछले साल गांव वालों ने शिकार में लिप्त चार युवाओं को पुलिस को सौंप दिया था.

''हत्यारे" या ''संरक्षक"?
आज 954 वनकर्मी चौबीसों घंटे पार्क की निगरानी करते हैं. इन्हें असम पुलिस की विशेष राइनो प्रोटेक्शन फोर्स के 285 कमांडो मदद देते हैं. पुलिस एसएलआर का इस्तेमाल करती है और वन सुरक्षाकर्मियों को थ्री नॉट थ्री से काम चलाना पड़ता है. गार्डों को कोई नियमित प्रशिक्षण नहीं दिया जाता. विधानसभा में रखी गई सीएजी की 2014 की रिपोर्ट कहती है कि उद्यान में फॉरेस्ट गार्डों को 2008-09 से 2012-13 तक कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया और उनके पास गोली चलाने का कोई अभ्यास नहीं था, क्योंकि फ्रेशर ट्रेनिंग मॉडयूल में केवल सैद्धांतिक प्रशिक्षण दिया जाता है, व्यावहारिक नहीं. कुछ गार्ड तो मुठभेड़ की स्थिति में यह भी नहीं जानते कि बंदूक कैसे पकड़ी जाती है. रिपोर्ट कहती है कि ''भारी संख्या में हथियार बेकार हो चुके हैं. वे पुराने पड़ चुके हैं, और वे मिसफायर कर सकते हैं."

कुछ गार्ड तो काफी बुजुर्ग हो चले हैं. मसलन, 57 साल के अमूल्य बोरदोलोई को दो साल पहले इस उद्यान में भेजा गया. जिंदगी का ज्यादातर हिस्सा उन्होंने सामाजिक वानिकी विभाग में बिताया था, लिहाजा वन्यजीव प्रभाग के लिए जरूरी कौशल उनमें नहीं है.

पार्क में 178 शिकार निरोधक शिविर हैं जिनमें दो यांत्रिक नावों पर हैं. जमीन पर बने शिविरों का आकार 24 गुणा 36 फुट है जो कंक्रीट के चार खंभों पर खड़ा होता है. इनकी छत टीन की होती है और दीवारें कंक्रीट और बांस से बनी होती हैं. हर शिविर में 4 से 6 गार्ड रह सकते हैं. गार्डों के पास वायरलेस सेट चार्ज करने के लिए बिजली तक नहीं होती थी. पिछले ही साल डब्ल्यूडब्ल्यूएफ ने 178 सोलर इनवर्टर यहां दान किए हैं. संस्था ने रात में देखने वाले उपकरण भी दान दिए थे लेकिन ये सब आला अधिकारियों के पास जमा हैं. गार्डों की निर्भरता पूरी तरह सात इलेक्ट्रॉनिक टावरों पर है और उन 300 कैमरों पर जिन्हें आरण्यक ने बाघों की गणना के लिए वहां लगाया है.

भारतीय वन्यजीव ट्रस्ट के उपनिदेशक डॉ. रतिन बर्मन कहते हैं, ''गार्डों को हत्यारा करार देना गलत होगा. अक्सर जंगल-झाड़ को साफ करने के लिए वे अपनी बंदूकों की नली से काम लेते हैं जिसके चलते उनकी राइफलें जाम हो जाती हैं. कई मौकों पर जब जंगली जानवर उन पर हमला करते हैं तो वे उन्हें दूर भगाने के लिए हवा में भी गोली नहीं दाग पाते." फरवरी में एक जंगली जानवर के हमले में पांच गार्ड जख्मी हो गए थे और एक की मौत हो गई थी.

दिसंबर 2010 की उस बदकिस्मत सुबह को सात साल हो चुके हैं. भूपेन हजारिका अब देवेश्वरी शिविर में तैनात हैं. उन्हें 2012 में वन्य प्राणी मित्र पुरस्कार के रूप में 25,000 रु. की जो रकम मिली थी, वह कब की खत्म हो चुकी. उनकी नौकरी पक्की नहीं हुई है. फरवरी में गैंडे के हमले में जीवन नाम का एक गार्ड मारा गया था! वह उनका साथी था. हजारिका के दिमाग में रह-रह कर उसी का ख्याल आता है.

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