जेएनयू को नष्ट करने की कोशिश

2018-19 में दाखिला लेने वालों में 60% एससी/एसटी/ओबीसी हैं; 40% ऐसे हैं जिनके परिवार की सालाना आमदनी 12,000 रु. या इससे भी कम है

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संध्या द्विवेदी

  • नई दिल्ली,
  • 26 नवंबर 2019,
  • अपडेटेड 2:50 PM IST

प्रस्तावित फीस बढ़ोतरी के खिलाफ जेएनयू के छात्रों के आंदोलन पर अपने मर्मस्पर्शी पोस्ट में मेरे एक पीएचडी स्कॉलर ने लिखा: 'क्या आपको प्रवेश परीक्षा में सफलता हासिल करने वाले जेएनयू के सुरक्षा गार्ड की कहानी याद है? यह कहानी कभी दोहराई नहीं जा सकेगी, अगर वाकई यह फीस बढ़ोतरी हो जाती है...भारत मेहरबानी करके हमारी आवाज सुनो.'

कैंपस के हममें से ज्यादातर लोग, छात्र और शिक्षक, इस महान सरकारी विश्वविद्यालय को नष्ट किया जाता देख रहे हैं. गौरवशाली अतीत वाले इस संस्थान को टुकड़े-टुकड़े नष्ट करने की अशोभनीय कोशिश की जा रही है और जेएनयू छात्रों का मौजूदा फीस वृद्धि आंदोलन इसमें एक नया मोड़ है. संस्थान को नष्ट करने की प्रक्रिया के अगुआ मौजूदा कुलपति एम. जगदेश कुमार हैं और यह जनवरी, 2016 में उनकी नियुक्ति के साथ ही शुरू हो गई थी. प्रस्तावित फीस वृद्धि—जो जेएनयू प्रशासन का अपने छात्रों को सबसे ताजा झटका है—के साथ अकेला फर्क यह है कि इसके नतीजतन उच्च शिक्षा हासिल करने की इच्छा रखने वाले छात्रों को तत्काल बीच में ही पढ़ाई छोडऩी पड़ेगी और इसके साथ जुड़ा होगा बहिष्कार का अपमान और सपनों के टूट जाने की त्रासदी.

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किनके सपनों और भविष्य की बात कर रहे हैं हम? 2018-19 में जेएनयू में दाखिला लेने वाले कुल छात्रों में 53 फीसद लड़कियां थीं; दाखिला लेने वालों में करीब 60 फीसद एससी, एसटी और ओबीसी परिवारों के थे; 40 फीसद से ज्यादा छात्र 12,000 रुपए या उससे कम मासिक आमदनी वाले परिवारों से आए थे. इस किस्म का सामाजिक तानाबाना कई वर्षों के दौरान हासिल किया गया और यह जेएनयू की प्रगतिशील दाखिला नीति की बदौलत बढ़ता रहा. विश्वविद्यालय की स्थापना के वक्त से ही चली आ रही यह नीति क्षेत्रीय वंचना (डेप्रवेशन) अंक प्रदान करती है और देश के सुदूर तथा सुविधाहीन क्षेत्रों के छात्रों को तरजीह देती है.

देश में ओबीसी कोटा लागू होने से बहुत पहले ओबीसी परिवारों के अभिलाषी छात्रों को वंचना अंक देना जेएनयू में स्थापित चलन था. 2010 में जेएनयू ने लड़कियों और ट्रांसजेंडर उम्मीदवारों को बढ़ावा देने के लिए जेंडर-आधारित वंचना अंक शुरू किया. जेएनयू के मौजूदा प्रशासन में एम. फिल./पीएच.डी. प्रोग्राम्स के लिए वंचना अंक प्रदान करने की व्यवस्था खत्म कर दी गई है.

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कल्याणकारी राज्य के अपने नागरिकों के प्रति सामाजिक दायित्वों को पूरा करने के अलावा जेएनयू की सामाजिक और आर्थिक विविधता कई मकसदों को पूरा करती है. मिसाल के लिए, जेएनयू की अकादमिक उत्कृष्टता छात्रों की सामाजिक विविधता की वजह से है, उसके बावजूद नहीं. इस विश्वविद्यालय में ज्ञान को जो अनूठा योगदान हासिल होता है, वह उन विभिन्न तरीकों का जैविक उत्पाद है, जिनमें यहां के लोगों की परवरिश हुई है और उन्होंने अपनी जिंदगी जी है. मौजूदा विमर्शों में जेएनयू जिन अमूल्य योगदानों के श्रेय का जायज दावा कर सकता है, वे जेएनयू में उपलब्ध सीखने-सिखाने के माहौल की बदौलत संभव हुए हैं. इसकी विविधता की बदौलत ही विभिन्न सामाजिक विभाजनों के बीच एकजुटता और हमदर्दी कायम हो पाती है. कुल मिलाकर यह भारतीय नागरिकों के निर्माण में असल योगदान देता है.

जेएनयू का यही वह चरित्र है, जिसके इस फीस वृद्धि से बुनियादी तौर पर बदलने का खतरा पैदा गया है—40 फीसद से ज्यादा मौजूदा छात्र, जो सभी वंचित पृष्ठभूमियों से आए हैं, विश्वविद्यालय छोडऩे पर मजबूर हो जाएंगे. यहां तक कि जो लोग निरे रुपए-पैसे में उच्च शिक्षा के फायदों की गिनती करते हैं, उनके लिए भी इसका अर्थ इन छात्रों पर पहले ही खर्च किए जा चुके 'करदाताओं के धन' की बर्बादी होना चाहिए. सेल्फ-फाइनेंसिंग मॉडल के तौर पर पेश की जा रही इस फीस वृद्धि में अब सफाई और मेस कर्मचारियों की तनख्वाहें, पानी-बिजली जैसी जरूरी सुविधाओं के शुल्क और बहुत ज्यादा बढ़ा हुआ कमरे का किराया शामिल है.

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इससे हॉस्टल की सालाना फीस करीब (मौजूदा 30,000 रुपए से बढ़कर) 66,000 रुपए हो जाएगी. 13 नवंबर, 2019 को प्रस्तावित फीस में जिस 'कमी' की घोषणा की गई है, वह केवल बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) परिवारों से आए छात्रों पर लागू है और इस कमी के बाद भी केवल हॉस्टल की फीस ही बीपीएल परिवार की सालाना आमदनी (अनुमानित 27,000 रुपए, डिजिटल इंडिया, 2016) से तकरीबन दोगुनी होगी. तो असल में घोषित 'कमी' कैंपस के किन्हीं भी छात्रों पर लागू नहीं होती और यह तथ्य जेएनयू के आंदोलकारी छात्रों को पूरी तरह पता है. फीस वृद्धि के फैसले पर छात्र संघ से कोई मशविरा भी नहीं किया गया, जो संस्थान की स्थापित प्रक्रिया का उल्लंघन है.

जेएनयू के छात्र सिर्फ अपने भविष्य के लिए या जेएनयू के उस लोकाचार—जिससे वे लाभान्वित हुए हैं—के लिए नहीं लड़ रहे हैं. वे वंचित वर्ग के छात्रों की भावी पीढिय़ों के भी लड़ रहे हैं, जो उच्च शिक्षा की इस सरकारी संस्था के जरिए अपने सपनों को साकार कर सकते हैं. आंदोलनकारी छात्र यह मौन सवाल पूछ रहे हैं: क्या उच्च शिक्षा उन लोगों का आखेट है जो उसके लिए कीमत अदा कर सकते हैं?

सुचरिता सेन जेएनयू के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज में क्षेत्रीय विकास अध्ययन केंद्र में प्रोफेसर हैं

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