इंडिया टुडे-नीलसन सर्वे 2015: डीयू है बेस्ट, जानें और कौन-कौन हैं बेस्ट कॉलेज

साल 2014 में गलत वजहों से खबरों में रहने के बाद भी दिल्ली यूनिवर्सिटी लगातार देश भर के छात्र-छात्राओं का सबसे पसंदीदा विकल्प है.

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कौशिक डेका

  • नई दिल्‍ली,
  • 22 जून 2015,
  • अपडेटेड 1:44 PM IST

इधर कुछ साल से यह निर्विवाद है कि दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) देश भर के छात्र-छात्राओं की सबसे पसंदीदा बनी हुई है. उसकी किसी से होड़ है तो वह खुद से ही है. इतने शानदार और गौरवशाली इतिहास के साथ डीयू ने इस साल एक और हैरतअंगेज कीर्तिमान कायम किया. उसकी 54,000 अंडरग्रेजुएट सीटों के लिए 3,20,000 छात्र-छात्राओं से दाखिले के लिए आवेदन पहुंचे, जो पिछले साल से तकरीबन 50,000 ज्यादा थे. सेंट स्टीफंस कॉलेज को, जिसकी अपनी प्रवेश प्रक्रिया है, 400 सीटों के लिए रिकॉर्ड 32,100 आवेदन मिले. मुंबई यूनिवर्सिटी के साथ संबद्ध कॉलेजों से इसकी तुलना कीजिए उनकी अंडरग्रेजुएट कक्षाओं की काफी कुछ बेंचें खाली पड़ी होंगी. कला, विज्ञान, वाणिज्य और पांच-साला कानून के कोर्सों की इस साल उपलब्ध 4,21,000 सीटों के लिए 2,65,000 छात्र-छात्राओं ने आवेदन किया. यह सब इसके बावजूद है कि पूरे 2014 के दौरान डीयू गलत वजहों से खबरों में रही खासकर चार साल के अंडरग्रेजुएट कोर्स को विवादास्पद ढंग से लागू करने और फिर उसे वापस लेने के चलते.

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इस पहेली का जवाब इंडिया टुडे ग्रुप के वार्षिक बेस्ट कॉलेज सर्वेक्षण में छिपा है, जिसका यह 19वां साल है. सर्वेक्षण नीलसन ने किया है . यह सर्वेक्षण बताता है कि पांचों धाराओं कला, विज्ञान, वाणिज्य, मेडिसिन और फैशन&में शीर्ष कॉलेज दिल्ली के हैं. कला के शीर्ष 40 कॉलेजों में से 14 दिल्ली के हैं. विज्ञान में दिल्ली के नौ कॉलेज शीर्ष 40 में शुमार हैं, जबकि वाणिज्य में शीर्ष कॉलेजों में शामिल 12 कॉलेज दिल्ली में स्थित हैं. शीर्ष 10 मेडिकल कॉलेजों में भी 4 दिल्ली के हैं.

दिल्ली की तरफ इस भौगोलिक झुकाव की एक वजह बेशक नौकरियों के वे अवसर हैं, जो आम धारणा के लिहाज से अच्छे माने जाने वाले कॉलेजों से उत्तीर्ण ग्रेजुएट छात्र-छात्राओं को मिलते हैं. ऑर्गेनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डेवलपमेंट (ओईसीडी) की 2012 की एक रिपोर्ट में भविष्यवाणी की गई थी कि भारत, जहां से 2010 में दुनिया के 11 फीसदी ग्रेजुएट पढ़कर निकले थे, उम्मीद है कि 2020 तक 12 फीसदी ग्रेजुएट के साथ अमेरिका को पीछे छोड़ देगा. उद्योग जगत के कई सर्वेक्षण देश भर में हर साल ग्रेजुएट होने वाले छात्र-छात्राओं की कुल संख्या 50 लाख से ज्यादा बताते हैं. लेकिन असली सवाल यह है कि वे रोजगार या नौकरियों के कितने लायक हैं. भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआइआइ) के साथ मिलकर ऑनलाइन आकलन कंपनी व्हीबॉक्स की 2013 की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि सिर्फ 34 फीसदी ग्रेजुएट ही रोजगार या नौकरी के लायक हैं, क्योंकि बाकी ग्रेजुएटों में उद्योग जगत में किसी भी भूमिका के लिए जरूरी हुनर और दक्षता का अभाव है.

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यही बात तकनीकी ग्रेजुएटों के बारे में भी सही है. हालांकि इंजीनियरिंग कॉलेज देश भर में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए हैं, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता और छात्रों का दाखिला गंभीर चिंता की विषय बना हुआ है. इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या 2006-07 में 1,511 से दोगुनी से ज्यादा बढ़कर 2014-15 में 3,345 हो गई. तो भी तमिलनाडु सरीखे राज्य में इंजीनियरिंग कॉलेजों की 50,000 से ज्यादा सीटें पिछले साल खाली रह गई थीं.

मेडिकल शिक्षा की हालत भी इतनी ही निराशाजनक है. और तो और, कदाचार और फर्जीवाड़े के आरोपों के बाद सुप्रीम कोर्ट को राष्ट्रीय सामान्य प्रवेश परीक्षा तक रद्द करनी पड़ी है. सरकारी रिकॉर्डों से पता चलता है कि देश के 404 में से 69 मेडिकल कॉलेज और शिक्षण अस्पताल कदाचार के आरोपों से घिरे हैं, जिनमें प्रवेश परीक्षा में फर्जीवाड़े और छात्रों को दाखिला देने में रिश्वत लेने के आरोप भी शामिल हैं. सरकारी जांच में खरा उतरने के लिए वे प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टरों को मोटी फीस देकर पूर्णकालिक शिक्षकों के तौर पर पेश कर देते हैं और रकम चुकाकर फर्जी छात्र भी ले आते हैं.

पिछले साल सत्ता संभालने के बाद से ही नरेंद्र मोदी सरकार देश की शिक्षा प्रणाली को लगातार खोखला कर रही बुराइयों से निजात दिलाने के लिए और अपने आर्थिक एजेंडे को रक्रतार देने की खातिर हुनर को बढ़ावा देने के लिए एक नई शिक्षा नीति बनाने की बात कर रही है. अब वक्त आ गया है कि सरकार अपनी बात पर फौरन अमल शुरू करे.

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