अपनी 40वीं सालगिरह का जश्न मनाने के लिए इंडिया टुडे ने पांच डायरेक्टरों को आमंत्रित और राजी किया कि वे अपनी कहानियां बदलती और विकसित होती दुनिया के नए कलेवर में बयान करने के लिए आगे आएं. छोटा पर्दा. कम बजट. लघु फिल्म. उनमें से हरेक ने इस मौके को हाथोहाथ लपक लिया, ताकि वे आज के दौर की, जिसमें हम रह रहे हैं, कोई न कोई मौजूं बात कह सकें.
इम्तियाज अली रोमानी शख्सियत के हैं, जिन्होंने जब वी मेट की चुलबुली गीत और लव आज कल की विचारों में खोई और धीर-गंभीर मीरा सरीखी औरतों के शानदार किरदारों को गढ़ा है. उनकी फिल्में उस आजादी की पड़ताल करती हैं, जिसकी हमारे युवा अपने रिश्तों में तलाश कर रहे हैं-चाहे वह रॉकस्टार में हताश और टूटे हुए जनार्दन की प्यार की तलाश हो या भीतर ही भीतर जज्बातों से खौलता हुआ तमाशा का वेद हो. अली ने बदलाव के बारे में फिल्म बनाने के इस मौके को झपट लिया, ऐसे विषय पर जो उनका जाना-पहचाना है-मुहब्बत, रूमानियत, रिश्ते.
राष्ट्रीय पुरस्कार जीत चुके फिल्मकार हंसल मेहता की अभी-अभी आई फिल्म अलीगढ़ को बहुत पसंद किया गया, जो भीड़ के हाथों मारपीट का शिकार हुए अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के समलैंगिक प्रोफेसर की दिल को छू लेने वाली कहानी है. मेहता रोहित वेमुला की खुदकुशी से पहले लिखी गई उस चिट्ठी को पढ़कर भावविह्वल हो जाते हैं और प्रेरणा से भर उठते हैं, जो खोए हुए सपनों का हृदयविदारक जयगीत है. उनकी लघु फिल्म कैंपस की इसी उथल-पुथल को पर्दे पर साकार करती है. वे कहते हैं, “हम ऐसे दौर में हैं जब फिल्म निर्माता के तौर पर अपने आप को पेश करना मेरे लिए बेमानी है. ध्रुवीकरण करने वाली ताकतें हमारे संविधान में हमें दी गई आजादियां और हक हमसे छीन रही हैं. रोहित की चिट्ठी इन ताकतों के खिलाफ बगावत की दहलीज पर खड़े राष्ट्र की तकलीफ को बयान करती है. बेपरवाह प्रतिष्ठान हमें खामोश करके मौन समर्पण के लिए मजबूर कर रहा है. इस मुश्किल भरे दौर में छात्र ही प्रतिरोध की अकेली उम्मीद हैं. मेरी मंशा सिर्फ रोहित की चिट्ठी को मोनोलॉग के तौर पर उभारने की है, ताकि मैं लोगों को आगे और ध्रुवीकरण के खतरों के बारे में सोचने के लिए विवश कर सकूं.”
सामाजिक नियमों के बेतुकेपन पर मेघना गुलजार की तीखी नजर रहती है. तलवार में उन्होंने आरुषि तलवार के मुकदमे पर आधारित कहानी बयान की और हमारी न्यायिक व्यवस्था की समस्याओं और हमारी विचार प्रक्रियाओं में जड़ जमाए पूर्वाग्रहों की पड़ताल की थी. उनकी लघु फिल्म में मुंबई की रोजमर्रा की मामूली जिंदगी की झलक मिलती है. फिल्म शुरू होते ही हम सैकड़ों लोगों को समूहों में या श्रद्धा में डूबे अकेले ही सिद्धिविनायक मंदिर के दर्शनों के लिए आगे बढ़ते देखते हैं.
फिल्म मुंबई की जिंदगी के दूसरे टुकड़ों के साथ-साथ जो साप्ताहिक तस्वीरें दिखाती है, वे इस शहर के बाशिंदों के लिए कोई अनोखा तजुर्बा नहीं है. मेघना कहती हैं, “मुंबई को अपने संस्कृति, संपदा, समाज और धर्मों का खौलता हुआ कड़ाहा होने पर नाज है. इस लिहाज से मुंबई हिंदुस्तान का मुकम्मल लघु रूप है-जिसमें कई किस्म के अलग-अलग लोगों, जातियों, वर्गों और नस्लों का मेल है.” भारत में हमारी समूची विविधता के भीतर दिखाई न देने वाले धागों का जाल बुना है जो हमें एक साथ जोड़कर रखता है. उनके मुताबिक, “हम अपने हालात और सामाजिक-आर्थिक चीजों को लेकर आलोचना और शिकायत करते रहते हैं. इसलिए जब मुझे यह दुर्लभ मौका मिला, तो मैं विमर्श में कुछ पॉजिटिविटी लाने के लिए इसका इस्तेमाल करना चाहती थी.”
खोए हुए किरदार, जिंदगी को बदल देने वाले सफर, रोमांस की खालिस ताकत और उससे जुड़ी तमाम बातें
अपनी बात को मजबूती से कहने वाली उनकी फिल्में दरारों से रिसकर आने वाली कई चीजों को अपना विषय बनाती हैं
जुनून भरी औरतों और उनकी जद्दोजहद को दिखाने वाले प्रदीप मनोरंजन और ठोस बातों को मिलाकर जज्बाती ताना-बाना बुनते हैं
कॉमेडी, ड्रामा और ऐक्शन का मिला-जुला तड़का सिप्पी की सिनेमाई दुनिया का जरूरी पहलू है
रोहन सिप्पी की कम कर आंकी गई फिल्म ब्लफमास्टर में ब्लैक ह्यूमर था. उसी ब्लैक ह्यूमर के साथ वे उन पाबंदियों पर सवालिया निशान खड़े कर रहे हैं जो हमारी अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाने की कोशिशें की जा रही हैं. जब न्यूज चैनल ऊंची से ऊंची रेटिंग के लिए होड़ करते दिखाई दे रहे हैं, ऐसे में सिप्पी इस बात पर विचार कर रहे हैं कि मीडिया किस तरह जनता के लिए जानकारियों का माध्यम है और उस पर कितनी बड़ी जिम्मेदारी है.
गोपाल दत्त, कुणाल रॉय कपूर और अनुवब पॉल के साथ मिलकर काम करते हुए सिप्पी हमें एक न्यूजरूम के भीतर ले जाते हैं और हंसाने के लिए वहां की कारगुजारियों को अतिरंजित ढंग से बताते हैं. खास तौर पर उस वक्त दत्त हंसी से दोहरा कर देते हैं जब वे कहते हैं, “यह न्यूज है. यहां तथ्यों का सचाई से क्या लेना-देना?” सिप्पी इसे स्टैनली क्यूब्रिक की फिल्म डॉ स्ट्रेंजलव के लिए ट्रिब्यूट भी कहते हैं, जिसमें यह मशहूर लाइन थी कि “सज्जनो, यहां आप लड़ाई नहीं कर सकते! यह वॉर रूम है.” सिप्पी कहते हैं, “हर कोई सबसे सनसनीखेज खबरें लाने के लिए एक दूसरे को पटखनी देने की कोशिश कर रहा है और इसमें बारीक बातों की कोई जगह ही नहीं बची है.” उन्होंने माना कि वे टीवी न्यूज नहीं देखते.
प्रदीप सरकार भारत में सब-इंस्पेक्टर बनने के लिए लिंग परिवर्तन करने वाली पहली ट्रांसजेंडर के. पृथिका यशिनी की कहानी को उठा रहे हैं और उस समुदाय की बात कर रहे हैं जिसे उसकी कानूनी हैसियत के बावजूद कई लोगों ने तिलांजलि दे रखी है. यशिनी की प्रेरणास्पद कहानी सरकार के मन को छू गई, जो वैसे भी पर्दे पर ताकतवर औरतों को पेश करने के लिए जाने जाते हैं, चाहे वह मर्दानी की सख्त महिला पुलिस रानी मुखर्जी हों या परिणीता की मजबूत इरादों वाली युवा स्त्री के किरदार में विद्या बालन हों. सरकार के लिए आने वाले कल का हिंदुस्तान वही होगा जो “अदर्स” (जो उनकी लघु फिल्म का नाम भी है) को स्वीकार करेगा और उन्हें बराबरी के मौके देगा. वे कहते हैं, “ट्रांसजेंडर समुदाय के बारे में हमें बहुत ही कम जानकारी है. हम बस उन्हें ट्रैफिक सिग्नलों पर भीख मांगते देखते हैं. यहां एक ऐसा शख्स है जिसने तमाम अड़चनों से लोहा लिया.” सरकार ने इस फिल्म के लिए छह हिजड़ों को राजी किया, जिसे वे “आंख खोलने वाला” तजुर्बा कहते हैं.
इन सभी में साझा बात सिर्फ यही नहीं है कि उन्होंने अपनी कला को मोबाइल उपकरण के हिसाब से ढाला है, बल्कि यह भी कि उन्होंने झकझोरने वाले मुद्दों के साथ मुठभेड़ की है. लैंगिक पक्षपात, यौन पूर्वाग्रह, जातिवाद, धर्मनिरपेक्षता की विकृतियां, जो हमारे भीतर गहरे धंसी हुई हैं, और बगैर सोचे-समझे सेंसरशिप थोप देना-ये सब आज के ऐसे मुद्दे हैं जो छेड़ते ही धधक उठते हैं. इससे बेहतर क्या होगा कि भारत के बेहतरीन किस्सागो ही हमें ये कहानियां सुनाएं, बहुत संक्षेप में, सारगर्भित और कभी-कभी बेहद चुभने वाली भी.
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