एक दिन पहले ही बहुसंख्यक समुदाय की महिलाओं के उग्र जत्थे ने पथराव किया तो मीडिया गांव में घुसने से डर रहा है. गांव के बहुसंख्यक समुदाय के ज्यादातर युवा गायब हैं और कथित पुलिस उत्पीडऩ या गिरफ्तारी के डर से वे दूसरी जगहों पर चले गए हैं. पीड़ित अल्पसंख्यक परिवार ने गांव छोड़ देने की मंशा जताई है. असली अपराधी प्रवृत्ति को सब जान रहे हैं, लेकिन अपराधी व्यक्ति कौन है, दावे से कोई नहीं जानता. नेता सियासी नफे-नुक्सान का हिसाब लगा रहे हैं. वैसे तो यह गौतमबुद्ध नगर के बिसहेड़ा गांव में सांप्रदायिक हिंसा के बाद सितंबर-अक्तूबर 2015 के हालात की सपाटबयानी है, लेकिन अगर इसकी जगह मुजफ्फरनगर के कुटवा-कुटवी, फुगाना, हसनपुर या लिसाड़ जैसे गांवों का नाम डाल दिया जाए और तारीख सितंबर 2013 कर दी जाए तो भी दोनों घटनाक्रम की अपरिहार्य परिणिति मिलती-जुलती ही दिखाई देगी.
इन घटनाओं के जरिए सांप्रदायिकता का वह जहर समय-समय पर फूट पड़ता है, जिसे बड़े सुनियोजित ढंग से समाज में उड़ेला जा रहा है. जाहिर है, इलाके और प्रदेश के राजनैतिक-सामाजिक ताने-बाने के लिहाज से विवाद की शक्ल तो बदल जाती है, लेकिन फितरत वही रहती है. विवाद की जो वजहें गढ़ी जाती हैं, उनमें गोहत्या की अफवाह, मंदिर या मस्जिद का लाउडस्पीकर, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ या श्लव जेहाद्य और कभी-कभी तो सड़क पर दो वाहनों में हुई टक्कर भी आग भड़काने के लिए काफी नजर आती है. यह भी संयोग नहीं है कि पश्चिम यूपी में दो साल पहले शुरू हुई हिंसा की राजनैतिक मंजिल लोकसभा चुनाव थे, तो ताजा हिंसा के सामने भी मौजूदा बिहार चुनाव, अगले साल पश्चिम बंगाल चुनाव और उसके अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मील के पत्थर खड़े हैं. बढ़ती हिंसा की तस्दीक केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े भी करते हैं. देश में वर्ष 2014 के पहले छह महीने में सांप्रदायिक हिंसा की जहां 252 घटनाएं हुईं, वहीं 2015 में ये घटनाएं बढ़कर 330 हो गईं. 2014 के पहले छह महीने मोटे तौर पर मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में आते हैं, जबकि 2015 के आंकड़े मोदी सरकार के दौर के हैं. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक दंगों या तनाव पर आज तक कुछ नहीं बोला. न तो वे तब कुछ बोले जब दिल्ली से सटे फरीदाबाद में सांप्रदायिक दंगा हुआ और न वे अब बोल रहे हैं, जब खुद उनके संसदीय क्षेत्र वाराणसी की हवा खराब हो रही है. उनकी चुप्पी तुड़वाने के लिए नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी जैसे लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी सक्वमान भी लौटा दिए हैं. वहीं उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री आजम खान ने इंडिया टुडे से कहा, “मोदीजी ये बता दें कि उनके हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों की क्या स्थिति होगी. अगर वे हमें जवाब दे देते तो यूएन को चिट्ठी लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती.”
ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि अगर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सांप्रदायिक उन्माद को काबू करने की बजाए या तो उसे बढ़ावा देने का काम करें या फिर उसके बहाव में बह जाएं तो लोकतांत्रिक भारत का सामाजिक ताना-बाना कैसे बचाया जाएगा? इस सवाल पर पंडित जवाहरलाल नेहरू का 4 जून, 1949 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा खत प्रासंगिक हो जाता है. पंडितजी ने लिखा था, “सांप्रदायिकता निश्चित तौर पर आदर्शवादियों और साथ ही अवसरवादियों को अपनी तरफ खींचती है. लेकिन इसके काम करने का ढर्रा ऐसा है कि यह नैतिकता के किसी भी मानक से और भारत की किसी तरह की भलाई से दूर हो जाती है. इसकी सोच अलग है. लेकिन इसमें थोड़ा-सा आदर्शवाद होता है जो नौजवानों को अपनी तरफ खींचता है. जिन लोगों की किसी उद्देश्य में आस्था होती है, उन्हें बल प्रयोग से हराया नहीं जा सकता. वे केवल उच्चतर आदर्श, दूरदृष्टि और महान उद्देश्य के लिए काम करने की क्षमता से पराजित हो सकते हैं.”
(साथ में अखिलेश पांडे)
पीयूष बबेले