सांप्रदायिक हिंसा: नफरत के शोलों को हवा

मोदी सरकार में तेजी से बढ़ी सांप्रदायिक हिंसा के बावजूद प्रधानमंत्री की चुप्पी चिंता का सबब.

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वाराणसी में उपद्रव को काबू में करने के लिए सख्ती करती पुलिस वाराणसी में उपद्रव को काबू में करने के लिए सख्ती करती पुलिस

पीयूष बबेले

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  • 12 अक्टूबर 2015,
  • अपडेटेड 5:39 PM IST

एक दिन पहले ही बहुसंख्यक समुदाय की महिलाओं के उग्र जत्थे ने पथराव किया तो मीडिया गांव में घुसने से डर रहा है. गांव के बहुसंख्यक समुदाय के ज्यादातर युवा गायब हैं और कथित पुलिस उत्पीडऩ या गिरफ्तारी के डर से वे दूसरी जगहों पर चले गए हैं. पीड़ित अल्पसंख्यक परिवार ने गांव छोड़ देने की मंशा जताई है. असली अपराधी प्रवृत्ति को सब जान रहे हैं, लेकिन अपराधी व्यक्ति कौन है, दावे से कोई नहीं जानता. नेता सियासी नफे-नुक्सान का हिसाब लगा रहे हैं. वैसे तो यह गौतमबुद्ध नगर के बिसहेड़ा गांव में सांप्रदायिक हिंसा के बाद सितंबर-अक्तूबर 2015 के हालात की सपाटबयानी है, लेकिन अगर इसकी जगह मुजफ्फरनगर के कुटवा-कुटवी, फुगाना, हसनपुर या लिसाड़ जैसे गांवों का नाम डाल दिया जाए और तारीख सितंबर 2013 कर दी जाए तो भी दोनों घटनाक्रम की अपरिहार्य परिणिति मिलती-जुलती ही दिखाई देगी.

दरअसल, दो साल पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों में सांप्रदायिकता के बर्बर हो जाने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह गंगा किनारे पूर्वी उत्तर प्रदेश को पार करते हुए बिहार और पश्चिम बंगाल तक फैलता दिखता है. इस साल जनवरी में बिहार के मुजफ्फरपुर के अजितपुर बहिलवारा में “लव जेहाद” के नाम पर पांच लोगों की हत्या कर दी गई और 50 से ज्यादा मुसलमानों के घर जला दिए गए. बिहार में सांप्रदायिक तनाव की यह इकलौती घटना नहीं है, हालांकि अन्य घटनाएं इतना तूल नहीं पकड़ सकीं. इसी साल मई में पश्चिम बंगाल के नदिया में भयंकर सांप्रदायिक संघर्ष हुआ. दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर गोले फेंके. इलाके के ज्यादातर घर तबाह कर दिए गए. हिंदू समुदाय के चार लोग मारे गए, वहीं आठ लोग घायल हुए. इसे वहां हाल में हुई हिंसा में सबसे खतरनाक माना जा रहा है. और तो और, उत्तराखंड जैसे अपेक्षाकृत शांत राज्य के कोटद्वार शहर में 29 सितंबर को एक ट्रैक्टर किसी दुकान के सामने पत्थरों के ढेर से टकराया और यह मामला सांप्रदायिक झगड़े में बदल गया. घटना में चार लोग घायल हो गए और इलाके में धारा 144 लगानी पड़ी.

इन घटनाओं के जरिए सांप्रदायिकता का वह जहर समय-समय पर फूट पड़ता है, जिसे बड़े सुनियोजित ढंग से समाज में उड़ेला जा रहा है. जाहिर है, इलाके और प्रदेश के राजनैतिक-सामाजिक ताने-बाने के लिहाज से विवाद की शक्ल तो बदल जाती है, लेकिन फितरत वही रहती है. विवाद की जो वजहें गढ़ी जाती हैं, उनमें गोहत्या की अफवाह, मंदिर या मस्जिद का लाउडस्पीकर, लड़कियों के साथ छेड़छाड़ या श्लव जेहाद्य और कभी-कभी तो सड़क पर दो वाहनों में हुई टक्कर भी आग भड़काने के लिए काफी नजर आती है. यह भी संयोग नहीं है कि पश्चिम यूपी में दो साल पहले शुरू हुई हिंसा की राजनैतिक मंजिल लोकसभा चुनाव थे, तो ताजा हिंसा के सामने भी मौजूदा बिहार चुनाव, अगले साल पश्चिम बंगाल चुनाव और उसके अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के मील के पत्थर खड़े हैं. बढ़ती हिंसा की तस्दीक केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़े भी करते हैं. देश में वर्ष 2014 के पहले छह महीने में सांप्रदायिक हिंसा की जहां 252 घटनाएं हुईं, वहीं 2015 में ये घटनाएं बढ़कर 330 हो गईं. 2014 के पहले छह महीने मोटे तौर पर मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल में आते हैं, जबकि 2015 के आंकड़े मोदी सरकार के दौर के हैं. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सांप्रदायिक दंगों या तनाव पर आज तक कुछ नहीं बोला. न तो वे तब कुछ बोले जब दिल्ली से सटे फरीदाबाद में सांप्रदायिक दंगा हुआ और न वे अब बोल रहे हैं, जब खुद उनके संसदीय क्षेत्र वाराणसी की हवा खराब हो रही है. उनकी चुप्पी तुड़वाने के लिए नयनतारा सहगल और अशोक वाजपेयी जैसे लेखकों ने अपने साहित्य अकादमी सक्वमान भी लौटा दिए हैं. वहीं उत्तर प्रदेश के अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री आजम खान ने इंडिया टुडे से कहा, “मोदीजी ये बता दें कि उनके हिंदू राष्ट्र में मुसलमानों की क्या स्थिति होगी. अगर वे हमें जवाब दे देते तो यूएन को चिट्ठी लिखने की जरूरत ही नहीं पड़ती.”

उत्तर प्रदेश तो सांप्रदायिकता की सबसे जरखेज जमीन बनकर उभरा है. अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें तो बिसहेड़ा गांव के बाद मुरादाबाद से भी इसी तरह की हिंसा की खबरें हैं. उधर, सितंबर के शुरू में आगरा के शिकोहाबाद में सांप्रदायिक तनाव देखा ही जा चुका है. पूर्वी उत्तर प्रदेश का रुख करें तो खुद प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में गणेश विसर्जन को लेकर साधु-महंतों और प्रशासन के बीच तीखी झड़प हो गई. वाराणसी का नजारा कुछ ऐसा था कि जिन सड़कों पर श्रद्धालु हाथों में फूल लिए जाते थे, 5 अक्तूबर की शाम साढ़े चार बजे इन्हीं तंग गलियों में हर हाथ में पत्थर थे. यह वाराणसी का सबसे प्रसिद्घ गोदौलिया चैराहा था और यहां हजारों की भीड़ पुलिस प्रशासन पर अपना आक्रोश जाहिर करने के लिए जीप, मोटर साइकिलें, पिकट हर किसी को आग के हवाले करने पर आमादा थी. कुछ ही देर में धू-धू करती आग और इनसे उठते काले धुएं ने वाराणसी के हृदय स्थल गोदौलिया को ढक दिया. एक दर्जन गाडिय़ों को आग के हवाले कर दिया गया. बवाल के फैलने की आशंका में प्रशासन ने चार थाना क्षेत्रों में कक्रर्यू लगा दिया. अपनी नाकामी छिपाने के लिए पुलिस ने स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद, सतुआ बाबा, पतालपुरी मठ के महंत बाबा बालक दास समेत 50 लोगों पर दंगा भड़काने का मुकदमा दर्ज कर लिया.

इसके बाद से पूरे प्रदेश में एक बार फिर सपा सरकार ने हिंदुत्ववादी ताकतों को एकजुट होने का मौका दे दिया है जिससे आने वाले दिनों में प्रदेश में सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं और जोर मार सकती हैं. इसी आशंका को भांपते हुए मुख्य सचिव आलोक रंजन ने किसी भी जिले में अप्रिय घटना होने पर वहां के अधिकारियों पर कड़ी कार्रवाई की चेतावनी जारी की है. पूर्व पुलिस महानिदेशक के.एल. गुप्ता बताते हैं, “यूपी में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक तनाव की घटनाएं यह भी जाहिर करती हैं कि सपा सरकार की इनको रोकने की मंशा नहीं है.” उनकी बात पर तब क्यों न यकीन किया जाए जब सरकार के मंत्री आजम खान खुद ईद से दो दिन पहले डीजीपी को पत्र लिखकर पशुवध के नाम पर मुसलमानों पर हिंसा की आशंका जता चुके थे, उसके बावजूद बिसहेड़ा में हिंसा हो गई. यहां एक चीज और गौर करने वाली है कि बिसहेड़ा  में अगर बीजेपी नेता संगीत सोम, स्थानीय सांसद और केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा को सांप्रदायिक तनाव फैलाने का आरोपी बनाया जा रहा है तो वाराणसी में कांग्रेस विधायक अजय राय पर ठीक यही आरोप लगा है. यानी बीजेपी के उग्र हिंदुत्व के सामने हाशिए पर आ गई कांग्रेस भी लोकलाज छोड़कर धीरे से ही सही हिंदुत्व के एजेंडे से बाहर दिखना नहीं चाहती.

ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि अगर सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही सांप्रदायिक उन्माद को काबू करने की बजाए या तो उसे बढ़ावा देने का काम करें या फिर उसके बहाव में बह जाएं तो लोकतांत्रिक भारत का सामाजिक ताना-बाना कैसे बचाया जाएगा? इस सवाल पर पंडित जवाहरलाल नेहरू का 4 जून, 1949 को राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखा खत प्रासंगिक हो जाता है. पंडितजी ने लिखा था, “सांप्रदायिकता निश्चित तौर पर आदर्शवादियों और साथ ही अवसरवादियों को अपनी तरफ खींचती है. लेकिन इसके काम करने का ढर्रा ऐसा है कि यह नैतिकता के किसी भी मानक से और भारत की किसी तरह की भलाई से दूर हो जाती है. इसकी सोच अलग है. लेकिन इसमें थोड़ा-सा आदर्शवाद होता है जो नौजवानों को अपनी तरफ खींचता है. जिन लोगों की किसी उद्देश्य में आस्था होती है, उन्हें बल प्रयोग से हराया नहीं जा सकता. वे केवल उच्चतर आदर्श, दूरदृष्टि और महान उद्देश्य के लिए काम करने की क्षमता से पराजित हो सकते हैं.”

(साथ में अखिलेश पांडे)

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