नवंबर के पहले हक्रते में यहां सोशल मीडिया में एक स्थानीय महिला पत्रकार की एक ऑडियो क्लिप चर्चा का विषय थी. इसमें उसे अगले 10 वर्षों में मुसलमानों से उनकी सरकारी नौकरियां और सियासी हक छीन लेने की ''घिनौनी साजिश" के खिलाफ कुछ अज्ञात लोगों से मदद की गुहार लगाते सुना गया. उसका यह शक उस ''मूल निवासी" शब्द पर टिका था, जिसका जिक्र सुप्रीम कोर्ट में प्रतीक हजेला ने किया था. हजेला सूबे का नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजंस (एनआरसी) यानी राष्ट्रीय नागरिक पंजिका तैयार करने के काम के प्रभारी हैं. इसी रजिस्टर के आधार पर असम से गैरकानूनी बहिरागतों को छांटने और निकालने की मुहिम चलाई जा रही है.
हालांकि एनआरसी को हर 10 साल में अपडेट किया जाना चाहिए, पर 1951 में इसे पहली बार तैयार करने के बाद किसी भी राज्य ने ऐसा नहीं किया है. केंद्र सरकार असम में एनआरसी को 1985 में असम समझौते के मुताबिक अपडेट करने के लिए राजी हो गई थी, पर पहला पायलट प्रोजेक्ट 2010 में ही शुरू हो सका. ऑल असम माइनॉरिटी स्टुडेंट यूनियन (एएएमएसयू) के एक विरोध प्रदर्शन के दौरान हिंसा के बाद प्रोजेक्ट को बीच में ही रोक दिया गया था. रजिस्टर को अपडेट करने की कवायद मार्च 2013 में दोबारा शुरू हुई.
अक्तूबर 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने हुक्म दिया कि एनआरसी को पूरा करने का काम 31 जनवरी, 2016 तक पूरा कर लिया जाए (एनआरसी अथॉरिटी इस समय-सीमा से चूक गई और शीर्ष अदालत अब सीधे इस काम की निगरानी कर रही है). मार्च में इस काम में एक बार फिर फच्चर फंस गया जब गुवाहाटी हाइकोर्ट ने ग्राम पंचायतों के जारी किए हुए निवास प्रमाणपत्रों को (जो 2010 में राज्य मंत्रिमंडल की एक उपसमिति से मंजूर 11 दस्तावेजों में से एक थे) नागरिकता का सबूत मानने से इनकार कर दिया. 24 अगस्त को सुप्रीम कोर्ट ने हजेला को हिदायत दी की वे हाइकोर्ट के आदेश से प्रभावित हुए 47 लाख लोगों के नामों के बगैर ही एनआरसी का ''आंशिक" प्रारूप 31 दिसंबर तक तैयार करें. अदालत ने उनसे इन 47 लाख आवेदकों में से ''मूल निवासियों" को छांटकर अलग करने के लिए भी कहा. यह मुद्दा तब उभरा जब हजेला की रिपोर्ट 10 अक्तूबर को अदालत में पेश की गई और उसमें कहा गया कि इनमें से केवल 17 लाख लोग ''मूल निवासी" (ओआइ) हैं और रजिस्टर करने वाला प्राधिकार उनकी नागरिकता को लेकर संतुष्ट है.
राज्य में विपक्षी कांग्रेस, एएएमएसयू, ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (एआइयूडीएफ) और बराक घाटी के कई संगठनों ने आवेदकों में मूल निवासी की पहचान करने का इस आधार पर ऐतराज किया कि संवैधानिक प्राधिकारियों को इस शब्द की परिभाषा अभी तय करनी है. सोशल मीडिया पर ये खबरें छा गईं कि मूल निवासी के तौर पर एक भी मुसलमान की पहचान नहीं की गई है और उन सभी की नागरिकता रद्द कर दी जाएगी. एएएमएसयू का कहना है कि मूल निवासी की परिभाषा मौजूद नहीं होने की वजह से धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यक तबकों से आने वाले कई आवेदकों के नामों को तस्दीक की प्रक्रिया के दौरान छांटा जा सकता है. पूर्व कांग्रेसी मुख्यमंत्री तरुण गोगोई कहते हैं कि यह जाना-बूझा कदम है जिसके जरिए अल्पसंख्यक समुदायों को अधर में छोड़ दिया जाएगा.
विरोध प्रदर्शनों के बाद हजेला ने एक स्पष्टीकरण जारी करके कहा कि मसौदा और अंतिम एनआरसी में किसी को भी मूल निवासी या गैर-मूल निवासी के तौर पर जो नहीं दिखाया जाएगा; उन्हें केवल एक ही श्रेणी—नागरिकता—में रखा जाएगा. जिन 30 लाख लोगों ने पंचायत का प्रमाणपत्र पेश किया है पर जो मूल निवासी सूची में नहीं हैं, उनकी तकदीर का फैसला 15 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट करेगा.
कौशिक डेका