बांग्लादेश: हर बोलने वाला मारा जाएगा

इस 12 सितंबर को दुनिया बांग्लादेश के निडर ब्लॉगर अविजित की हत्या पर बनी डॉक्युमेंट्री देखेगी और यह भी जानेगी कि डॉक्युमेंट्री बनाने वालों में से कई किस तरह कठमुल्लों के हाथों मार दिए गए.

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अविजित रॉय की हत्या के बाद ढाका में निकाला गया मशाल जुलूस अविजित रॉय की हत्या के बाद ढाका में निकाला गया मशाल जुलूस

सरोज कुमार

  • ढाका,
  • 16 अगस्त 2016,
  • अपडेटेड 6:29 PM IST

फरवरी की उस सुबह आसमान में बादल छाए हुए थे. ब्लॉगर अविजित रॉय का शव वाहन ढाका में श्मशान की तरफ जब धीरे-धीरे बढ़ रहा था, बारिश होने लगी. लगा, जैसे हजारों शोकाकुल लोगों के साथ आसमान भी रो पड़ा हो. अविजित एक नास्तिक और क्रांतिकारी विचार रखने वाले ब्लॉगर थे. वे अपने धारदार लेखन के जरिए बांग्लादेशी युवाओं को प्रोत्साहित कर रहे थे कि वे कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों के दबदबे वाले माहौल में व्यवस्था को लेकर सवाल खड़े कर सकें.

26 फरवरी, 2015 की रात ढाका में जब 42 वर्षीय अविजित एक पुस्तक मेले से बाहर निकले ही थे कि तभी धारदार हथियारों से उनका कत्ल कर दिया गया. उनकी पत्नी रफीदा अहमद बोन्ना भी घायल हो गई थीं. बांग्लादेश में कट्टरपंथियों के हाथों मरने वालों में अविजित पहले व्यक्ति नहीं थे. बांग्लादेश में कट्टरपंथी खुले सोच के जुर्म में यही सजा दे रहे हैं.

अंतिम संस्कार के बाद संकल्प लिया गया कि अविजित ने जो मशाल जलाई थी, उसे बुझने नहीं दिया जाएगा. उनके समर्थकों ने एक फेसबुक ग्रुप बनाया और कुछ देर की चर्चा के बाद फैसला किया गया कि अविजित के मिशन, उनके आलोचकों और उनकी हत्या पर एक छोटी-सी फिल्म बनाई जाए. विचार यह था कि अविजित की मौत को एक सोची-समझी सामूहिक हत्या के अभियान के अंग के तौर पर दिखाया जाए, जिसकी शुरुआत 1971 के मुक्ति संघर्ष के दौरान 900 शिक्षकों की हत्या से हुई थी. और अब धर्मनिरपेक्ष ब्लॉगर उसका सबसे ताजा निशाना हैं.

अविजित के नौजवान प्रशंसकों ने फेसबुक ग्रुप और डाक्युमेंट्री का नाम अविजित की एक किताब के नाम पर अलो हाटे अंधारेर जात्री, (द टॉर्चबियरर) रखा. फिल्म के निर्देशक रकीबुल हसन बताते हैं कि 34 मिनट की यह फिल्म अब दुनिया भर में अविजित के जन्मदिन 12 सितंबर को परदे पर दिखाई जाएगी.

लेकिन यह डॉक्युमेंट्री बहुत महंगी पड़ी, बजट के लिहाज से नहीं, इनसानी जान के हिसाब से. फिल्म बनाने वाले गुप्त जगह पर मिलते और छोटे-छोटे दल बनाकर काम करते थे. इसके अलावा वे लगातार अपना घर बदलते रहते थे. लेकिन इतनी सावधानी बरतने के बावजूद फिल्म जब तैयार होने के करीब पहुंची तो सहयोगी ग्रुप के चार लोगों को निर्ममता से मार डाला गया.

अविजित की मौत के बाद सोशल मीडिया पर पहली प्रतिक्रियाओं में एक प्रतिक्रिया वाशीकुर रहमान बाबू की थी. 20 साल से कुछ ऊपर की उम्र वाला वशीकुर एक ट्रैवल कंपनी में अप्रेंटिस के तौर पर काम करता था. अपने फेसबुक एकाउंट पर अपनी प्रोफाइल तस्वीर बदलते हुए उसने पोस्ट किया, ''अमी-ई अविजित. शाब्देर मृत्यु नेई (मैं भी अविजित हूं. शब्दों की मौत नहीं होती है). 30 मार्च, 2015 को डॉक्युमेंट्री फिल्म के निर्माण में सहयोग कर रहे वशीकुर को ढाका में उसके हॉस्टल से कुछ गज की दूरी पर बस स्टैंड पर चाकुओं से गोदकर मार दिया गया.''

12 मई को ग्रुप के एक अन्य सदस्य अनंतो बिजोय दास को उस वक्त दिनदहाड़े धारदार हथियारों से कत्ल कर दिया गया जब वे सिलहेट के अपने घर से काम पर निकल रहे थे. दास बैंक में काम करते थे और ब्लॉग लिखा करते थे.

तीन महीने बाद, 7 अगस्त को ब्लॉगर निलोय नील के नाम से मशहूर नीलाद्रि चटर्जी को भी ढाका में मौत की नींद सुला दिया गया. हसन कहते हैं, ''स्क्रिप्ट हर महीने बदल रही थी. अब यह सिर्फ अविजित तक सीमित नहीं थी. हमारी डॉक्युमेंट्री में शव यात्राओं की भीड़ बढ़ती जा रही थी. हम जानते थे कि मौत किसी भी समय हमें दबोच सकती है.''

इसके बाद 31 अक्तूबर को ढाका में उन प्रकाशकों पर दो अलग-अलग हमले हुए, जिन्होंने अविजित समेत कुछ उदारवादी लेखकों को छापा था. हमले में तीन प्रकाशक घायल हो गए थे. उनमें से एक फैसल अरफीन दीपन की मौत हो गई. वे सभी ब्लॉगर थे और डॉक्युमेंट्री फिल्म को समर्थन देने वाले समूह के सदस्य थे. हेलसिंकी से ऑनलाइन अखबार फिनलैंड टाइम्स के लिए काम करने वाले सैयद जमाल कहते हैं, ''इस घटना के चार महीने बाद, हम भूमिगत हो गए. फिल्म का काम अपने अंतिम चरण में पहुंच चुका था और हम इस बात को लेकर चिंतित थे कि अगर ऐसा ही चलता रहा तो फिल्म में हमारी शव यात्रा को शामिल करने के लिए हममें से कोई नहीं रह जाएगा.''
फिल्म की शुरुआत गुलाब के एक फूल, कुछ बिखरे हुए सफेद फूलों और अपने बेटे की लाश पर रोते-बिलखते एक पिता से होती है. फिल्म के आरंभ में खुश दिख रहे अविजित को उनकी पत्नी और सौतेली बेटी के साथ दिखाया गया है. ''नयन तोमारी देखिते ना पाइ, रोयेचो नयोने नयोने (आंखें तुक्वहें देख नहीं सकतीं, फिर भी तुम सबकी नजरों के सामने हो).'' इसकी पृष्ठभूमि में टैगोर का एक आध्यात्मिक गीत बजता है. अगले आधे घंटे में यह फिल्म धर्मनिरपेक्ष, उदारवादी, और स्वतंत्र विचार रखने वाले लोगों की सिलसिलेवार हत्या के इतिहास को दिखाती है, जिसकी शुरुआत 1971 की जंग में पाकिस्तानी सेना के हाथों ढाका विश्वविद्यालय के नौ शिक्षकों की हत्या से होती है.

इस फिल्म में कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के उन्मादी समर्थकों को दिखाया गया है, जो हाथों में पट्टियां लेकर सड़कों पर चल रहे हैं. पट्टियों पर लिखा हैः ब्लॉगिंग तो ठीक है, लेकिन नास्तिकता नहीं, कुकुर बेरल मेरोना, किंतु नास्तिक के चेरोना (कुत्तों और बिल्लियों को छोड़ दो, लेकिन नास्तिकों को नहीं), नास्तिक ब्लॉगर तुरंत बांग्लादेश छोड़ो. जल्दी ही भीड़ दंगे पर उतर आती है और कारों को आग लगाना, दुकानों में तोड़-फोड़ करना और पुलिसवालों को पीटना व सामने नजर आने वाली हर चीज को तहस-नहस करना शुरू कर देती है.
फिल्म में कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन हिफाजत-ए-इस्लाम के प्रमुख अल्लामा शफी को महिलाओं, ब्लॉगरों और सभी 'काफिरों' के खिलाफ उत्तेजक भाषण देते हुए दिखाया गया है. वह फेसबुक पर इस्लामी कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लामी (जेईआइ) पार्टी की ओर से प्रकाशित एक सूची में दर्ज 84 ब्लॉगरों और लेखकों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए कहता है. चार ब्लॉगरों को मजहब को बदनाम करने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. इन 84 लोगों की सूची जल्दी ही 'हट लिस्ट' बन गई.

अविजित के 81 वर्षीय पिता फिजिक्स के रिटायर्ड प्रोफेसर और मानवाधिकार कार्यकर्ता अजॉय रॉय फिल्म में कई बार दिखाई देते हैं. सैयद जमाल कहते हैं, ''एक जगह आकर जब हमने काम को बीच में छोडऩे का मन बनाया तो उन्होंने कहा कि मशालची इतनी आसानी से हार नहीं मान सकते.'' अजॉय अपने बेटे के बारे में बताते हैं कि वह अमेरिका में रहता था और जान से मारने की धमकियां मिलने के बावजूद अपनी मां से मिलने के लिए वापस आया था.

अविजित की पत्नी बोन्ना कहती हैं कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन पर हमला होगा. ''वे कहा करते थे, कोई मुझे क्यों मारेगा? मैं कभी भी निम्न स्तर की सनसनीखेज बातें नहीं लिखता हूं. मेरा लेखन विज्ञान और दर्शन पर आधारित होता है.'' बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और जेईआइ गठबंधन की मुखालफत करने वाली अवामी लीग के सत्ता में होने से वे खुद को सुरक्षित महसूस कर रहे थे. बोन्ना कहती हैं, ''हम भोले थे...हम समझ नहीं सके कि देश में स्थिति किस हद तक बिगड़ चुकी है.''

फिल्म में धारदार हथियारों से लैस हत्यारों को बुद्धिजीवियों, निर्दोष लोगों की हत्या करते हुए दिखाया गया है. ये हत्यारे जिस तरह से विदेशियों, हिंदुओं, ईसाइयों, सूफी दरगाहों और जिला अदालतों को निशाना बनाते हैं, उससे यह फिल्म लेखकों, कवियों और समाज सेवियों के माध्यम से एक सवाल खड़ा करती हैः ''क्या यह वही मुल्क है, जिसका हमने सपना देखा था?'' यह फिल्म एक ऐसे देश की तस्वीर बनाती है जो कठमुल्लों और पाकिस्तान से अलग होकर खुली तबीयत का मुल्क बनाने वालों के संघर्ष में उलझा हुआ है.
इस फिल्म को ढाका में अविजित की पहली पुण्य तिथि 26 फरवरी, 2016 को पहली बार देखने के लिए चुनिंदा दर्शकों को आमंत्रित किया गया था. फिल्म से जुड़े एक सदस्य ने अपना नाम जाहिर न करते हुए बताया, ''फिल्म के बारे में बात फैल गई और बाहर बड़ी संक्चया में लोग इंतजार कर रहे थे. हमें पिछले दरवाजे से बाहर निकलना पड़ा, क्योंकि हमें डर था कि कट्टरपंथी भीड़ में छिपे हो सकते थे.'' फिल्म के निर्माता बताते हैं कि ढाका में वह पहला शो बांग्लादेश में आखिरी शो था. उन्होंने 12 सितंबर को इंग्लैंड, स्वीडन, पुर्तगाल और कनाडा में कुछ हितचिंतक संगठनों के सहयोग से फिल्म को प्रदर्शित करने की योजना बनाई है, लेकिन वे यह नहीं बता रहे हैं कि फिल्म कहां दिखाई जाएगी. हसन कहते हैं, ''मैं सुरक्षा कारणों से जगहों के नाम नहीं बता सकता.''

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